Sinhansan Battishi Ki tisri Kahani || सिंहासन बत्तीसी की तीसरी कहानी - चन्द्रकला पुतली की कथा

 सिंहासन बत्तीसी की तीसरी कहानी - चन्द्रकला पुतली की कथा







राजा विक्रमादित्य के गुणों का बखान करने के लिए उनके सिंहासन से इस बार तीसरी पुतली निकलती है। वह राजाभोज को विक्रमादित्य की ‘भाग्य और पुरुषार्थ’ की कहानी सुनाती है, जो इस प्रकार है।


एक बार भाग्य और पुरुषार्थ के बीच इस बात को लेकर बहस हुई कि उन दोनों में से सबसे बड़ा कौन है। भाग्य ने कहा कि हर किसी को जो भी मिलता है, वह भाग्य से ही मिलता है। यह सुनकर पुरुषार्थ कहने लगा कि बिना मेहनत किए कुछ भी हासिल नहीं होता है। दोनों के बीच कई दिनों तक इस बात पर बहस होती रही। देखते-ही-देखते बात इतनी बढ़ गई कि दोनों ने इसके समाधान के लिए देवताओं के राजा इन्द्र के पास जाने की ठान ली।


दोनों इंद्र देव के पास पहुंचकर इस सवाल का जवाब मांगने लगे, लेकिन मामला गंभीर होने की वजह से देवराज को भी कुछ समझ नहीं आया। फिर देवराज इंद्र ने उन दोनों को राजा विक्रमादित्य के पास जाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि राजा ही इस बात का जवाब दे सकते हैं कि आप दोनों में से कौन सबसे बड़ा है। इतना सुनते ही भाग्य और पुरुषार्थ तुरंत मानव भेष में विक्रमादित्य के पास पहुंच गए।


राजा के दरबार पहुंचकर भाग्य और पुरुषार्थ ने अपने झगड़े की वजह उन्हें बताई। उस वक्त विक्रमादित्य को भी इसका कोई उचित जवाब नहीं सूझा। तब राजा ने दोनों से 6 महीने का समय मांगा। इस दौरान भाग्य और पुरुषार्थ के सवाल का उन्हें कोई जवाब समझ नहीं आता। तब राजा सही जवाब की तलाश में अपने राज्य में जनता के बीच सामान्य नागरिक का भेष बनकर घूमने लगते हैं।



राजा को काफी कोशिश के बाद भी अपने राज्य में इस बात का सही जवाब नहीं मिलता। फिर राजा भेष बदलकर दूसरे राज्य में जाने का फैसला लेते हैं। ऐसा करते-करते राजा कई राज्य पहुंच जाते हैं, लेकिन उन्हें जवाब नहीं मिलता। इस दौरान राजा एक व्यापारी के पास जाकर काम मांगते हैं और कहते हैं कि वो ऐसे काम कर सकते हैं, जो कोई अन्य नहीं कर सकता।


कुछ दिन बाद व्यापारी बाहर काम के लिए राजा विक्रमादित्य के साथ जहाज से जाता है। कुछ दूर जाते ही अचानक तेज तूफान आने लगता है और जहाज एक टापू के पास फंस जाता है। तूफान थमने के बाद जहाज को टापू से बाहर निकालने के लिए लोहे का कांटा उठाना होता है। व्यापारी ने राजा को उसे उठाने के लिए कहा। जैसे ही राजा ऐसा करता है, तो जहाज तेजी से आगे निकल जाता है और विक्रमादित्य टापू पर ही छूट जाते हैं।


टापू पर छूटने के बाद राजा कुछ देर आगे चलते हैं, तो उन्हें वहां एक नगर दिखाई दिया। नगर के गेट में लिखा हुआ था कि यहां के राजा की बेटी का विवाह महाराज विक्रमादित्य के साथ होगा। यह पढ़कर राजा चौंक गए और महल में चले गए। वहां पहुंचते ही उनकी मुलाकात राजकुमारी से होती है। कुछ दिनों के बाद दोनों की शादी हो जाती है।



महल में कुछ दिन बीताने के बाद राजा विक्रमादित्य अपनी पत्नी व राज्य की राजकुमारी को लेकर अपने राज्य की ओर निकल जाते हैं। रास्ते में राजा की भेंट एक संन्यासी से होती है। वह संन्यासी चमत्कारी माला व एक छड़ी राजा को देता है। संन्यासी ने राजा को बताया कि इस माला को पहनने पर व्यक्ति अदृश्य हो जाता है और छड़ी से सोने से पहले जो भी मांगा जाए, वो मिल जाता है। राजा संन्यासी को उपहार के लिए धन्यवाद कहते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।


राजा महल पहुंचकर राजकुमारी को अंदर कमरे में भेज देते हैं और खुद बगीचे में चले जाते हैं। वहां उनकी मुलाकात एक गायक और ब्राह्मण से होती है। दोनों ने राजा को बताया कि वो इस दिन का सालों से इंतजार कर रहे थे। राजा विक्रमादित्य ने पूछा कि ऐसी क्या बात है कि वो सालों से उनकी राह देख रहे थे। दोनों ने बताया कि वो गरीब हैं और सालों से बगीचे में ये सोचकर मेहनत कर रहे हैं कि एक दिन राजा उनके सब दुखों को दूर कर देंगे।


इतना सब सुनते ही राजा ने संन्यासी से मिली माला गायक को दे दी और छड़ी ब्राह्मण को। उसके बाद राजा अपने दरबार चले गए। 6 महीने बीतने के बाद भाग्य और पुरुषार्थ दोनों राजा के सभा में आए। विक्रमादित्य उन दोनों को बीते छह महीने की सभी घटनाएं सुनाते हैं। इतना कहकर राजा दोनों को समझते हुए कहते हैं कि छड़ी और माला का उन्हें मिलना भाग्य था और गायक व ब्राह्मण को यह पुरुषार्थ की वजह से मिला। इसी वजह से भाग्य और पुरुषार्थ दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इनमें कोई छोटा या बड़ा नहीं हो सकता है। दोनों राजा का जवाब सुनकर संतुष्ट हो गए और वहां से चले गए।


इतनी कहानी सुनाकर पुतली राजा विक्रमादित्य के सिंहासन से उड़ जाती है।


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