All Poems of Ageya


 



अरे ! ऋतुराज आ गया !!



शिशर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल

गंध बह उड़ रहा पराग धूल झूले

काँटे का किरीट धारे बने देवदूत

पीत वसन दमक रहे तिरस्कृत बबूल

अरे! ऋतुराज आ गया!!




 उधार



सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी

और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।


मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार

चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?

मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी—

तिनके की नोक-भर?

शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी—

किरण की ओक-भर?

मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,

लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।

मैने आकाश से मांगी

आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।


सब से उधार मांगा, सब ने दिया ।

यों मैं जिया और जीता हूँ

क्योंकि यही सब तो है जीवन—

गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,

गन्धवाही मुक्त खुलापन,

लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,

और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का:

ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।


रात के अकेले अन्धकार में

सामने से जागा जिस में

एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर

मुझ से पूछा था: "क्यों जी,

तुम्हारे इस जीवन के

इतने विविध अनुभव हैं

इतने तुम धनी हो,

तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—जिसे मैं

सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा—

और वह भी सौ-सौ बार गिन के—

जब-जब मैं आऊँगा?"

मैने कहा: प्यार? उधार?

स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे

अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार ।

उस अनदेखे अरूप ने कहा: "हाँ,

क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं—

यह अकेलापन, यह अकुलाहट,

यह असमंजस, अचकचाहट,

आर्त अनुभव,

यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय

विरह व्यथा,

यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना

कि जो मेरा है वही ममेतर है

यह सब तुम्हारे पास है

तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार—

मुझे जो चरम आवश्यकता है।


उस ने यह कहा,

पर रात के घुप अंधेरे में

मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:

अनदेखे अरूप को

उधार देते मैं डरता हूँ:

क्या जाने

यह याचक कौन है?





 मेरे देश की आँखें



नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं

पुते गालों के ऊपर

नकली भवों के नीचे

छाया प्यार के छलावे बिछाती

मुकुर से उठाई हुई

मुस्कान मुस्कुराती

ये आँखें -

नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...


तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से

शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ -

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...


वन डालियों के बीच से

चौंकी अनपहचानी

कभी झाँकती हैं

वे आँखें,

मेरे देश की आँखें,

खेतों के पार

मेड़ की लीक धारे

क्षिति-रेखा को खोजती

सूनी कभी ताकती हैं

वे आँखें...


उसने

झुकी कमर सीधी की

माथे से पसीना पोछा

डलिया हाथ से छोड़ी

और उड़ी धूल के बादल के

बीच में से झलमलाते

जाड़ों की अमावस में से

मैले चाँद-चेहरे सुकचाते

में टँकी थकी पलकें

उठायीं -

और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं

मेरे देश की आँखें...


(पुरी-कोणार्क, 2 जनवरी 1980)





 शिशिर ने पहन लिया



शिशिर ने पहन लिया वसंत का दुकूल

गंध बन उड़ रहा पराग धूल झूल

काँटे का किरीट धारे बने देवदूत

पीत वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल

अरे! ऋतुराज आ गया।




नया कवि : आत्म-स्वीकार



किसी का सत्य था,

मैंने संदर्भ में जोड़ दिया ।

कोई मधुकोष काट लाया था,

मैंने निचोड़ लिया ।


किसी की उक्ति में गरिमा थी

मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया,

किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था

मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया ।


कोई हुनरमन्द था:

मैंने देखा और कहा, 'यों!'

थका भारवाही पाया -

घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों!'


किसी की पौध थी,

मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली।

किसी की लगाई लता थी,

मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली ।


किसी की कली थी

मैंने अनदेखे में बीन ली,

किसी की बात थी

मैंने मुँह से छीन ली ।


यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:

काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ?

चाहता हूँ आप मुझे

एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।

पर प्रतिमा--अरे, वह तो

जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें ।






देखिये न मेरी कारगुज़ारी



अब देखिये न मेरी कारगुज़ारी

कि मैं मँगनी के घोड़े पर

सवारी पर

ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान

और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दुकान

से किराया

वसूल कर लाया हूँ ।

थैली वाले को थैली

तोड़े वाले को तोड़ा

-और घोड़े वाले को घोड़ा

सब को सब का लौटा दिया

अब मेरे पास यह घमंड है

कि सारा समाज मेरा एहसानमन्द है ।






 सत्य तो बहुत मिले



खोज़ में जब निकल ही आया

सत्य तो बहुत मिले ।


कुछ नये कुछ पुराने मिले

कुछ अपने कुछ बिराने मिले

कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले

कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले

कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले

कुछ ईमानदार ख़ानाबदोश मिले ।


कुछ ने लुभाया

कुछ ने डराया

कुछ ने परचाया-

कुछ ने भरमाया-

सत्य तो बहुत मिले

खोज़ में जब निकल ही आया ।


कुछ पड़े मिले

कुछ खड़े मिले

कुछ झड़े मिले

कुछ सड़े मिले

कुछ निखरे कुछ बिखरे

कुछ धुँधले कुछ सुथरे

सब सत्य रहे

कहे, अनकहे ।


खोज़ में जब निकल ही आया

सत्य तो बहुत मिले

पर तुम

नभ के तुम कि गुहा-गह्वर के तुम

मोम के तुम, पत्थर के तुम

तुम किसी देवता से नहीं निकले:

तुम मेरे साथ मेरे ही आँसू में गले

मेरे ही रक्त पर पले

अनुभव के दाह पर क्षण-क्षण उकसती

मेरी अशमित चिता पर

तुम मेरे ही साथ जले ।


तुम-

तुम्हें तो

भस्म हो

मैंने फिर अपनी भभूत में पाया

अंग रमाया

तभी तो पाया ।


खोज़ में जब निकल ही आया,

सत्य तो बहुत मिले-

एक ही पाया ।


काशी (रेल में), 15 फरवरी, 1954





चांदनी जी लो



शरद चांदनी बरसी

अँजुरी भर कर पी लो


ऊँघ रहे हैं तारे

सिहरी सरसी

ओ प्रिय कुमुद ताकते

अनझिप क्षण में

तुम भी जी लो ।


सींच रही है ओस

हमारे गाने

घने कुहासे में

झिपते

चेहरे पहचाने


खम्भों पर बत्तियाँ

खड़ी हैं सीठी

ठिठक गये हैं मानों

पल-छिन

आने-जाने


उठी ललक

हिय उमगा

अनकहनी अलसानी

जगी लालसा मीठी,

खड़े रहो ढिंग

गहो हाथ

पाहुन मन-भाने,

ओ प्रिय रहो साथ

भर-भर कर अँजुरी पी लो


बरसी

शरद चांदनी

मेरा अन्त:स्पन्दन

तुम भी क्षण-क्षण जी लो!







मैंने आहुति बन कर देखा



मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,

मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?

काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,

मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?


मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?

मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?

मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने?

या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?


पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?

नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?

मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-

फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!


अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-

क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?

वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-

वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है


मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-

मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!

मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ

कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ


मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने

इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!

भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-

तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने


बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937





जो कहा नही गया



है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया ।


उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई,

सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,

बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।

अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति:

मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई-

फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।

पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।


निर्विकार मरु तक को सींचा है

तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है

तो क्या? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,

इसी अहंकार के मारे

अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया: नत हूँ

उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया ।

इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया ।


शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं

पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।

शायद केवल इतना ही: जो दर्द है

वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया।

तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया ।


(रचनाकाल / स्थल: दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३)





 ताजमहल की छाया में



मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,

या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।

साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर-

तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।


पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे

या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे?

हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-

औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?


हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,

देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये

व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:

क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!


मैं निर्धन हूँ,साधनहीन; न तुम ही हो महारानी,

पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!

जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का

प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी!


२० दिसम्बर १९३५, आगरा





 ये मेघ साहसिक सैलानी



ये मेघ साहसिक सैलानी!

ये तरल वाष्प से लदे हुए

द्रुत साँसों से लालसा भरे

ये ढीठ समीरण के झोंके

कंटकित हुए रोएं तन के

किन अदृश करों से आलोड़ित

स्मृति शेफाली के फूल झरे!


झर झर झर झर

अप्रतिहत स्वर

जीवन की गति आनी-जानी!


झर -

नदी कूल के झर नरसल

झर - उमड़ा हुआ नदी का जल

ज्यों क्वारपने की केंचुल में

यौवन की गति उद्दाम प्रबल


झर -

दूर आड़ में झुरमुट की

चातक की करूण कथा बिखरी

चमकी टिटीहरी की गुहार

झाऊ की साँसों में सिहरी

मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं

वे चकित मृगी सी आँखडि़याँ

झर!सहसा दर्शन से झंकृत

इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ!


झर -

अंतरिक्ष की कौली भर

मटियाया सा भूरा पानी

थिगलियाँ भरे छीजे आँचल-सी

ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी

हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे

बढ़ चले अटपटे पैरों से

छिन लता-गुल्म छिन वानीरे

झर झर झर झर

द्रुत मंद स्वर

आये दल बल ले अभिमानी

ये मेघ साहसिक सैलानी!


कम्पित फरास की ध्वनि सर सर

कहती थी कौतुक से भर कर

पुरवा पछवा हरकारों से

कह देगा सब निर्मम हो कर

दो प्राणों का सलज्ज मर्मर

औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र

इन नभ के प्रहरी तारों से!


ओ कह देते तो कह देते

पुलिनों के ओ नटखट फरास!

ओ कह देते तो कह देते

पुरवा पछवा के हरकारों

नभ के कौतुक कंपित तारों

हाँ कह देते तो कह देते

लहरों के ओ उच्छवसित हास!

पर अब झर-झर

स्मृति शेफाली

यह युग-सरि का

अप्रतिहत स्वर!

झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे

जीवन के अंधड़ में पिटते

मरूथल के रेणुक कण रूखे!


झर -

जीवन गति आनी जानी

उठती गिरतीं सूनी साँसें

लोचन अन्तस प्यासे भूखे


अलमस्त चल दिये छलिया से

ये मेघ साहसिक सैलानी!


दिल्ली, 1942




उड़ चल हारिल



उड़ चल हारिल लिये हाथ में

यही अकेला ओछा तिनका

उषा जाग उठी प्राची में

कैसी बाट, भरोसा किन का!


शक्ति रहे तेरे हाथों में

छूट न जाय यह चाह सृजन की

शक्ति रहे तेरे हाथों में

रुक न जाय यह गति जीवन की!


ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर

बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल

अनथक पंखों की चोटों से

नभ में एक मचा दे हलचल!


तिनका तेरे हाथों में है

अमर एक रचना का साधन

तिनका तेरे पंजे में है

विधना के प्राणों का स्पंदन!


काँप न यद्यपि दसों दिशा में

तुझे शून्य नभ घेर रहा है

रुक न यद्यपि उपहास जगत का

तुझको पथ से हेर रहा है!


तू मिट्टी था, किन्तु आज

मिट्टी को तूने बाँध लिया है

तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का

गुर तूने पहचान लिया है!


मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर

क्या जीवन केवल मिट्टी है?

तू मिट्टी, पर मिट्टी से

उठने की इच्छा किसने दी है?


आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का

तू है दुर्निवार हरकारा

दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका

सूने पथ का एक सहारा!


मिट्टी से जो छीन लिया है

वह तज देना धर्म नहीं है

जीवन साधन की अवहेला

कर्मवीर का कर्म नहीं है!


तिनका पथ की धूल स्वयं तू

है अनंत की पावन धूली

किन्तु आज तूने नभ पथ में

क्षण में बद्ध अमरता छू ली!


ऊषा जाग उठी प्राची में

आवाहन यह नूतन दिन का

उड़ चल हारिल लिये हाथ में

एक अकेला पावन तिनका!


गुरदासपुर, 2 अक्टूबर, 1938






हँसती रहने देना



जब आवे दिन

तब देह बुझे या टूटे

इन आँखों को

हँसती रहने देना!


हाथों ने बहुत अनर्थ किये

पग ठौर-कुठौर चले

मन के

आगे भी खोटे लक्ष्य रहे

वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे


पर आँखों ने

हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का

अंधकार भी देखा तो

सच-सच देखा


इस पार

उन्हें जब आवे दिन

ले जावे

पर उस पार

उन्हें

फिर भी आलोक कथा

सच्ची कहने देना

अपलक

हँसती रहने देना

जब आवे दिन!






 सर्जना के क्षण



एक क्षण भर और

रहने दो मुझे अभिभूत

फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं

ज्योति शिखायें

वहीं तुम भी चली जाना

शांत तेजोरूप!


एक क्षण भर और

लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते!

बूँद स्वाती की भले हो

बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से

वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को

भले ही फिर व्यथा के तम में

बरस पर बरस बीतें

एक मुक्तारूप को पकते!


दिल्ली, 17 मई, 1956






 यह दीप अकेला



यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इसको भी पंक्ति को दे दो


यह जन है: गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा

पनडुब्बा: ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?

यह समिधा: ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा

यह अद्वितीय: यह मेरा: यह मैं स्वयं विसर्जित:


यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इस को भी पंक्ति दे दो


यह मधु है: स्वयं काल की मौना का युगसंचय

यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय

यह अंकुर: फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय

यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः

इस को भी शक्ति को दे दो


यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इस को भी पंक्ति दे दो


यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,

वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,

कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में

यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,

उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा

जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय

इस को भक्ति को दे दो


यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता पर

इस को भी पंक्ति दे दो


नयी दिल्ली ('आल्प्स' कहवाघर में), 18 अक्टूबर, 1953






 वन झरने की धार



मुड़ी डगर

मैं ठिठक गया

वन-झरने की धार

साल के पत्ते पर से

झरती रही


मैने हाथ पसार दिये

वह शीतलता चमकीली

मेरी अंजुरी

भरती रही


गिरती बिखरती

एक कलकल

करती रही


भूल गया मैं क्लांति, तृषा,

अवसाद,

याद

बस एक

हर रोम में

सिहरती रही


लोच भरी एडि़याँ

लहराती

तुम्हारी चाल के संग-संग

मेरी चेतना

विहरती रही


आह! धार वह वन झरने की

भरती अंजुरी से

झरती रही


और याद से सिहरती

मेरी मति

तुम्हारी लहराती गति के

साथ विचरती रही


मैं ठिठक रहा

मुड़ गयी डगर

वन झरने सी तुम

मुझे भिंजाती

चली गयीं

सो... चली गयीं...






वसंत आ गया



मलयज का झोंका बुला गया

खेलते से स्पर्श से

रोम रोम को कंपा गया

जागो जागो

जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो


पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली

सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली

नीम के भी बौर में मिठास देख

हँस उठी है कचनार की कली

टेसुओं की आरती सजा के

बन गयी वधू वनस्थली


स्नेह भरे बादलों से

व्योम छा गया

जागो जागो

जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो


चेत उठी ढीली देह में लहू की धार

बेंध गयी मानस को दूर की पुकार

गूंज उठा दिग दिगन्त

चीन्ह के दुरन्त वह स्वर बार

"सुनो सखि! सुनो बन्धु!

प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार!"


आज मधुदूत निज

गीत गा गया

जागो जागो

जागो सखि वसन्त आ गया, जागो!






शरद



सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी

गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी

दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब

ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी


बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली

शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली

झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते

झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली


बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती

उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती

गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी

शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती


मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती

कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती!

घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में

गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती!


साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया

हार का प्रतीक - दिया सो दिया, भुला दिया जो किया!

किन्तु शारद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है

प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया!


इलाहाबाद, 5 सितम्बर, 1948






सारस अकेले



घिर रही है साँझ

हो रहा है समय

घर कर ले उदासी

तौल अपने पंख, सारस दूर के

इस देश में तू है प्रवासी!


रात! तारे हों न हों

रव हीनता को सघनतर कर दे अंधेरा

तू अदीन! लिये हिय में

चित्र ज्योति प्रदेश का

करना जहाँ तुझको सवेरा!


थिर गयी जो लहर, वह सो जाय

तीर-तरु का बिम्ब भी अव्यक्त में खो जाय

मेघ मरु मारुत मरण -

अब आय जो सो आय!


कर नमन बीते दिवस को, धीर!

दे उसी को सौंप

यह अवसाद का लघु पल

निकल चल! सारस अकेले!






 मैंने देखा, एक बूँद



मैंने देखा

एक बूँद सहसा

उछली सागर के झाग से;

रंग गई क्षणभर,

ढलते सूरज की आग से।

मुझ को दीख गया:

सूने विराट् के सम्‍मुख

हर आलोक-छुआ अपनापन

है उन्‍मोचन

नश्‍वरता के दाग से!





 दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब



दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।


तब ललाट की कुंचित अलकों-

तेरे ढरकीले आँचल को,

तेरे पावन-चरण कमल को,

छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।


मैं तो केवल तेरे पथ से

उड़ती रज की ढेरी भर के,

चूम-चूम कर संचय कर के

रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।


पागल झंझा के प्रहार सा,

सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,

सब कुछ ही यह चला जाएगा-

इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब!


दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।


दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931






 प्रतीक्षा-गीत



हर किसी के भीतर

एक गीत सोता है

जो इसी का प्रतीक्षमान होता है

कि कोई उसे छू कर जगा दे

जमी परतें पिघला दे

और एक धार बहा दे।


पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत

प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत

जिसे मैने बार बार जाग कर गाया है

जब-जब तुम ने मुझे जगाया है।


उसी को तो आज भी गाता हूँ

क्यों कि चौंक- चौंक कर रोज़

तुम्हें नया पहचानता हूँ-

यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ।







वसीयत



मेरी छाती पर

हवाएं लिख जाती हैं

महीन रेखाओं में

अपनी वसीयत

और फिर हवाओं के झोंकों ही

वसीयतनामा उड़ाकर

कहीं और ले जाते हैं।


बहकी हवाओ!

वसीयत करने से पहले

हल्‍फ उठाना पड़ता है

कि वसीयत करने वाले के

होश-हवाश दुरूस्‍त हैं:

और तुम्‍हें इसके लिए

गवाह कौन मिलेगा

मेरे ही सिवा?


क्‍या मेरी गवाही

तुम्‍हारी वसीयत से ज्‍यादा

टिकाऊ होगी?





मैं वह धनु हूँ



मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने

में प्रत्यंचा टूट गई है।

स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि

दिग्दिगन्त में फूट गई है--

प्रलय-स्वर है वह, या है बस

मेरी लज्जाजनक पराजय,

या कि सफलता! कौन कहेगा

क्या उस में है विधि का आशय!

क्या मेरे कर्मों का संचय

मुझ को चिन्ता छूट गई है--

मैं बस जानूँ, मैं धनु हूँ, जिस

की प्रत्यंचा टूट गई है!


लाहौर, 15 जून, 1935






 पानी बरसा



ओ पिया, पानी बरसा!

घास हरी हुलसानी

मानिक के झूमर-सी झूमी मधुमालती

झर पड़े जीते पीत अमलतास

चातकी की वेदना बिरानी।

बादलों का हाशिया है आस-पास

बीच लिखी पाँत काली बिजली की

कूँजों के डार-- कि असाढ़ की निशानी!

ओ पिया, पानी!

मेरा हिया हरसा।

खड़-खड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात।

देखने को आँखें, घेरने को बाँहें,

पुरानी कहानी!

ओठ को ओठ, वक्ष को वक्ष--

ओ पिया, पानी!

मेरा जिया तरसा।

ओ पिया, पानी बरसा।


जालन्धर, 2 जुलाई, 1945






पराजय है याद



भोर बेला--नदी तट की घंटियों का नाद।

चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद।

नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान---

मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।


काशी, 14 नवम्बर, 1946






दूर्वांचल



पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में

डगर चढ़ती उमंगों-सी।

बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।

विहग-शिशु मौन नीड़ों में।


मैं ने आँख भर देखा।

दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।

(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)

क्षितिज ने पलक-सी खोली,


तमक कर दामिनी बोली-

'अरे यायावर! रहेगा याद?'


माफ्लङ् (शिलङ्), 22 सितम्बर, 1947






 कतकी पूनो



छिटक रही है चांदनी,

मदमाती, उन्मादिनी,

कलगी-मौर सजाव ले

कास हुए हैं बावले,

पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती--

सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती!


कुहरा झीना और महीन,

झर-झर पड़े अकास नीम;

उजली-लालिम मालती

गन्ध के डोरे डालती;

मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की--

तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की!


इलाहाबाद-लखनऊ (रेल में), 30 नवम्बर, 1947







 क्वाँर की बयार



इतराया यह और ज्वार का

क्वाँर की बयार चली,

शशि गगन पार हँसे न हँसे--

शेफ़ाली आँसू ढार चली!

नभ में रवहीन दीन--

बगुलों की डार चली;

मन की सब अनकही रही--

पर मैं बात हार चली!


इलाहाबाद, अक्टूबर, 1948


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