सिंहासन बत्तीसी की पच्चीसवीं कहानी - त्रिनेत्री पुतली की कथा
एक के बाद एक करके लगभलग चौबीस पुतलियों ने राजा भोज को महाराज विक्रमादित्य की कहानी के जरिए चौबीस गुणों के बारे में बता दिया था जिसे जानकर वह बहुत हर्षित हुए। इसके बाद बारी थी पच्चीसवीं पुतली की जैसे ही राजा भोज सिंहासन की ओर बढ़े उन्हें पच्चसवीं पुतली ने रोक लिया और कहानी के माध्यम से महाराज विक्रमादित्य के एक और महान गुण के बारे में बताने लगीं।
महाराज वक्रमादित्य अपनी प्रजा को अपनी संतान के जैसा मानते थे और हर हाल में सुखी देखना चाहते थे। इस कारण वे भेष बदलकर अक्सर नगर में घुमते और प्रजा के दुखों को जानकर उसे नीति के अनुसार दूर करने की कोशिष करते थे। शायद यही कारण था की माहराज विक्रमादित्य की प्रजा सुखी और सम्पन्न थी।
उनकी प्रजा में एक ब्राह्मण और एक भाट का परिवार ऐसा भी थे, जो की बहुत गरीब था। लेकिन कभी भी उनने कोई शिकायत नहीं कि और जितना मिला उतने में संतोष करके रहते थे। वे और लोगों के जैसे राजा के पास कभी भी अपना दुखड़ा लेकर नहीं गए। उनका मानना था कि उन्हें भगवान जो जरूरत के हिसाब से पर्याप्त अन्न और धन दिया है।
धीरे धीरे समय बीत ता गया और अब ब्राह्मण और भाट दोनों की पुत्री की आयु विवाह योग्य हो गई थी। लेकिन उनके पास इतना धन नहीं था कि वे अपनी पुत्रियों का विवाह करवा सकें। क्योंंकि वे दिनभर में जितना भी धन अर्जन करते थे वह केवल उसी दिन के लिए ही पर्याप्त हो पाता था। दोनों के पत्नियों ने अपने पती के सामने पुत्रियों के विवाह की और अपर्याप्त धन की बात कही।
भाट ने कहा कि जब भगवान ने संतान दी है तो इसके भविष्य के बारे में भी वही कुछ करेगा। उधर ब्राह्मण ने कहा कि थोड़ा समय दो कुछ न कुछ हो जाएगा। लेकिन दोनों की स्थिति पहले के जैसी ही रही।
एक दिन भाट ने विचार किया कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला मैं दूसरे देश जाकर वहां से धन कमाकर लाऊंगा। इधर ब्राह्मण ने सोचा की वह जिन यजमानों के यहां पूजा पाठ करता है उनसे कुछ बात करके देखूंगा।
भाग ने दूसरे दिन ही गमन कर दिया और कई देशों में जाकर सेठ, राजा, मजाराजाओं को अपने नाटक और मजाकिया बातों से हंसा हंसा कर खूब खुश किया और बदले में उन्होंने भाट को बहुत सा धन उपहार के रूप में भेट दिया। जब पुत्री के विवाह योग्य धन इकट्ठा हो गया तब उसने अपरे राज्य की ओर प्रस्थान किया। लेकिन पता नहीं कैसे मार्ग में चारे लुटेरों को उसके धन की भनक लग गई और उसे लूट लिया।
वह निराश खाली हाथ घर आ गया और अपनी पत्नी से कहा कि मैंने पूरा प्रयास किया लेकिन शायद भागवान को यही मंजूर था। अब वो ही पुत्री के विवाह की व्यवस्था करेगा। तब दुख और गुस्से के आवेश में पत्नी के कहा कि तुम तो ऐसे बोल रहे हो कि जैसे भगवान राजा विक्रमादित्य को सपने में कहेगा हमारी मदद करने के लिए। भाट ने कहा क्या मालूम ऐसा ही हो। महाराज विक्रमादित्य ने भाट की बात सुन ली और हंसते हुए आगे बढ़ गए।
वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण ने भी अपने यजमानों से घुमाफिरा कर धन की बात की लेकिन किसी ने भी उसकी बात पर गौर नहीं किया और वह भी खाली हाथ अपने घर आ गया और अपनी पत्नी को सारा बात बता दी। तब पत्नी ने कहा कि अब भगवान कुछ नहीं करने वाले आप कल महाराज विक्रमादित्य के पास जाकर उनसे ही मदद की गुहार करो। तब ब्राह्मण ने कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा और कल ही महाराज विक्रमादित्य से मदद की प्रार्थना करूंगा।
दूसरे दिन सुबह सुबह ही महाराजा विक्रमादित्य ने दो सैनिकों को भेज कर ब्राह्मण और भाट को दरबार में बुला लिया। महाराज ने भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएं दीं और विवाह की शुभकामनाओं के साथ विदा किया। वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण को केवल दस हजार स्वर्ण मुद्राएं देकर ही विदा कर दिया।
तब महाराज से एक दरबारी ने पूछा कि महाराज आपने दोनों में भेद भाव क्यों किया। महाराज ने उसकीब बात सुनकर कहा कि भाट ऊंची जाती का न होकर भी भगवान पर भरोसा रखता था और मुझे उसने भगवान का प्रतिनिधि बनाया था। वहीं, ब्राह्मण को भगवान के ऊपर पूरा भरोसा नहीं और उसने भगवान के स्थान पर मुझपर भरोसा किया इसलिए मैंने उसकी इंसान के जैसे ही मदद की।
दरबारी ने महाराज की नीति पूर्वक की गई मदद की प्रसंशा की और अपने स्थान पर बैठ गया।
इतना कहकर पच्चीसवीं पुतली ने राजा भोज से कहा कि कहो राजन् क्या आपके अंदर भी महाराज विक्रमादित्य के जैसे ही नीति से दूसरों की मदद करने वाला गुण मौजूद है। यह सुनकर राजा भोज ने अपना सिर नीचे कर लिया और पच्चीसवीं पुतली भी अन्य पुतलियों के जैसे वहां से उड़ गई।
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