सिंहासन बत्तीसी की छब्बीसवीं कहानी - मृगनयनी पुतली की कथा
पच्चीवीं पुतली के द्वारा राज भोज महाराज विक्रमादित्य के गुणों को जानकर हर्षित हुए और उस स्थान से अपने महल की ओर रवाना हो गए। लेकिन अगल दिन फिर से उन्हें सिंहासन और महाराज विक्रमादित्य के गुणों का आकर्षण खींच लाया। जैसे ही राजा भोज सिंहासन की ओर बढ़े कि छब्बीसवीं पुतली मृगनयनी प्रकट हो गई। उसने राजा भोजा को रोकते हुए कहा कि ठहरो राजन् अगर आप इस सिंहासन पर बैठना चाहते हैं तो पहले मुझे यह बताईए कि क्या आपके अंदर वह गुण है जो महाराज विक्रमादित्य में था और जिसके बारे में मैं आपको बताने जा रही हूं। तब राजा भोज ने हाथ जोड़कर कहा कि देवी कृप्या उस गुण के बारे में मुझे बताईए। तब मृगनयनी पुतली ने महाराज विक्रमादित्य की छब्बीसवीं कथा कहना प्रारम्भ की।
महाराज विक्रमादित्य का मन जितना राजा काज और प्रजा की कुशलता में लगता है उससे कहीं ज्यादा वह पूजा पाठ और प्रभू भक्ति में तपस्वी के जैसे लीन रहते थे। वे इतनी कठोर तपस्या करते थे कि इंद्र देव का सिंहासन भी कांप जाता था।
एक दिन की बात है राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक इसके कुछ सैनिक एक आदमी को पकड़ कर लाए जो देखने में किसी भिखारी के जैसा लगता था लेकिन उसके पास से बहुत सारा धन प्राप्त हुआ था। किसी भिखारी जैसे व्यक्ति के पास इतना धन कैसे आया यह सोचकर ही उसे सैनिकों से जंगल से संदिग्ध अवस्था में गिरफ्तार किया था।
महाराज ने जब उस व्यक्ति से धन के बारे में पूछा तो उसने कहा कि वह एक सेठ के यहां पर कार्य करता है और सेठ के पत्नी के साथ उसके अनैतिक संबंध हैं उसने ही यह धन दिया था और कहा था कि जंगल में रुक कर मेरा इंतेजार करना मैं सेठ को मारकर जल्दी ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। राजा ने व्यक्ति की बात सुनकर सेठ के यहां अपने सैनिक भेजे। वहां पर सेठ की चिता पर बैठी हुए उसकी पत्नी कह रही थी कि रात में लुटेरों से उसका सारा धन लूट लिया है और उसके पति की हत्या कर दी है इसलिए वह सती हो जाएगी।
सैनिकों ने पूरा वृत्तांत महाराज विक्रमादित्य को सुना दिया तब महाराज स्वयं उस व्यक्ति के साथ सेठ के घर पहुंचे। वहां सेठानी से कहा कि हमें तुम्हारी सच्चाई का पता चल गया है तुम्हारा चरित्र अच्छा नहीं है अब तुम को राजा द्वारा दिया जाने वाला दण्ड भोगना पड़ेगा। यह सुनकर सेठानी डर गई और राजा से कहा कि आप क्या मेरा चरित्र देख रहे हैं पहले अपनी छोटी रानी का चरित्र तो देख लों।
इतना कह कर वह सेठी की चिता में कूद गई और जलकर राख हो गई। इस घटना के बादे से महाराज का मन विचलित रहने लगा और वह गुप्त तरीके से छोटी रानी पर नजर रखने लगा। एक रात छोटी रानी ने सोचा कि सभी सोरहे हैं और वह उठकर महल से थोड़ी दूरी पर एक साधु की कुटिया में चली गई। राजा भी उसके पीछे पीछे आ गया था और जैसे ही उनके कुटिया से झांक कर देखा तो दंग रह गया।
राजा को अपनी काली करतूत का पता चल गया था कि उसके कुटिया में रहने वाले व्यक्ति के साथ अनैतिक संबंध हैं। गुस्से में उसने रानी और व्यक्ति को मार दिया और स्वयं ने सारे राज्य का भार सैनिकों के ऊपर डालकर सन्यासियों के जैसे जीवन अपना लिए।
सबसे पहले वे एक समुद्र के तट पर गए और समुद्र देव की तपस्या प्रारम्भ कर दी। समुद्र देव से उनसे वरदान मांगने को कहा। तब राजा ने कहा कि वे समुद्र के तट पर कुटिया बनाकर तपस्या करना चाहते हैं कृप्या आर्शिवाद प्रदान करें। समुद्र देव ने उन्हें आर्शिवाद के साथ ही एक शंख दिया और कहा कि किसी भी दैविय मुसीबत आने पर यह शंख बजा दें, इससे मुसीबत दूर हो जाएगी। इतना कह कर समुद्र देवता गायब हो गए।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य एक कुटिया बनाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या के प्रभाव से स्वर्ग में इन्द्र देव का सिंहासन कंपायमान होने लगा। इन्द्र ने घबराकर अपने सेवकों को भेजकर कहा कि जहां पर विक्रमादित्य तपस्या कर रहा है उस स्थान को पानी में डुबा दो। सेवको ने ऐसा ही किया और विक्रमादित्य कुटिया सहित पानी में डूब गए, लेकन समुद्र देवता के आर्शिवाद से वह पानी कुछ ही देर में सूख गया।
यह देखकर इन्द्र चकित रह गया और फिर उसने सैनिकों को भेजकर वहां पर आंधी तूफान के जरिए विक्रमादित्य की तपस्या भंग करने का आदेश दिया। सेवको ने ऐसा ही किया लेकिन इस बार महाराज विक्रमादित्य से समुद्र देवता के द्वारा दिए गए शंख को बजाकर उस आपदा को भी दूर कर दिया और अपनी तपस्या में मग्न हो गए।
इन्द्र एक बार फिर से चकित रह गया और इस बार स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा तिलोत्तमा को तपस्या भंग करने के उद्देश्य से भेजा। तिलोत्तमा विक्रमादित्य की साधना में नृत्य रूप और वादन के जरिए विघ्न डालने की चेष्टा करने लगी। लेकिन फिर भी विक्रमादित्य की तपस्या पर्वत के जैसे अचल रही। थक कर तिलोत्तमा वापस स्वार्ग आ गई।
इन्द्र ने फिर से एक और युक्ति सोची। उसे पता था कि विक्रमादित्य बहुत बड़ा दानी है और अगर उससे कोई ब्राह्मण जो भी मांगता है वह उसे दे देता है। इस बार इन्द्र एक ब्राह्मण रूप बनाकर विक्रमादित्य के पास पहुंचा। उन्हें देखकर विक्रमादित्य ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि कहिए ब्राह्मण देवता मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं।
तब इन्द्र ने कहा कि मुझे दान चाहिए। विक्रमादित्य ने कहा कि जो भी मेरे पास और आप उसमें से जो मन हो वाे मांग लीजिए। तब इन्द्र ने कहा कि तुम अपनी तपस्या का सारा फल मुझे दान में दे दो। तक विक्रमादित्य से सहर्ष अपनी तपस्या का सारा फल उन्हें दान में दे दिया। इस बात से प्रसन्न हो कर इन्द्र अपने असली रूप में आ गया और विक्रमादित्य को आर्शिवाद दिया कि उनके राज्य में कभी भी अतिवृष्टी और सूखा नहीं रहेगा और उनकी प्रजा हमेशा ही खुशहाल रहेगी। इतना कहकर इन्द्र देव गायब हो जाते हैं और विक्रमादित्य भी मन की शांति पाकर अपने राज्य की ओर प्रस्थान करते हैं।
राजा विक्रमादित्य के दान की बात कह कर पुलती ने राजा भोज से कहा कि कहिए राजन क्या आपके अंदर भी एसी सामर्थ्य है कि आप अपना सब कुछ दान में दे दें? एक बार फिर राजा भोज निरुत्तर रह गए और पुतली अन्य पुतलियों के जैसे हवा में उड़ गई।
0 Comments:
एक टिप्पणी भेजें