सिंहासन बत्तीसी की 28वीं कहानी - वैदेही पुतली की कथा
लगातार 27 पुतलियों से राजा विक्रमादित्य की महानता की कहानी सुनकर परेशान हो चुके राजा भोज ने एक बार फिर सिंहासन पर बैठने की कोशिश की। वह जैसे ही सिंहासन पर बैठने गए, तभी 28वीं पुतली वैदेही ने उन्हें रोका और राजा विक्रमादित्य की स्वर्ग यात्रा और इस दौरान उनके द्वारा किए गए पुण्य कार्यों का किस्सा बताना शुरू किया।
एक रात महाराज विक्रमादित्य अपने महल में सोए रहे थे। इस दौरान उन्होंने सपने में एक सोने का महल देखा। महल की सजावट व आसपास का नजारा बहुत ही खूबसूरत था। सपने में ही महल के बाहर उन्हें एक योगी दिखा जिसका चेहरा हूबहू उनके जैसा ही था। यह देखते ही अचानक उनकी नींद टूट गई। वह समझ गए कि वह एक सपना देख रहे थे, लेकिन जागने के बाद भी उन्हें पूरा सपना अच्छी तरह से याद था। उन्होंने अपने पंडितों व ज्योतिषियों को अपना सपना सुनाया और इसका मतलब जानने के लिए उनसे कहा।
सभी विद्वानों ने राजा विक्रमादित्य से कहा, “महाराज आपने सपने में स्वर्ग के दर्शन किए हैं और वह महल देवराज इंद्र का है। देवताओं ने शायद आपको सशरीर स्वर्ग आने का निमंत्रण दिया है।”
अपने विद्वानों की यह बात सुनकर विक्रमादित्य आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने पंडितों से पूछा, “स्वर्ग जाने का रास्ता कौन-सा है और इस यात्रा में किस-किस चीज की जरूरत पड़ सकती है।” काफी सोचने के बाद सभी विद्वानों ने उन्हें वह मार्ग बताया जहां से स्वर्ग में प्रवेश किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्हें यह भी कहा कि जो हमेशा भगवान को याद करता है और धर्म का पालन करता है, वही स्वर्ग जा सकता है।
इस पर राजा ने कहा कि काम करते हुए कभी न कभी उनसे अनजाने में कोई गलत काम जरूर हुआ होगा। साथ ही कई बार राज काज के कारण भगवान की पूजा करना भी छूट जाता है। इस पर सभी ने एकमत होकर कहा, “ महाराज, अगर आप इस काबिल नहीं होते, तो आपको स्वर्ग के दर्शन ही नहीं होते।”
सभी के कहने पर राजा विक्रमादित्य राजपुरोहित को अपने साथ लेकर स्वर्ग जाने के लिए निकल पड़ते हैं। अपने विद्वानों के कहे अनुसार उन्हें इस यात्रा के दौरान 2 पुण्यकर्म भी करने थे। यात्रा से पहले राजा ने अपना शाही भेष त्याग दिया था। वह आम लोगों की तरह कपड़े पहन कर यात्रा कर रहे थे। यात्रा के दौरान रात में वह एक नगर में आराम करने के लिए रुक गए। कुछ देर बाद उन्हें एक बुजुर्ग महिला रोती दिखी। वह काफी परेशान थी। राजा विक्रमादित्य ने उस बुजुर्ग महिला से रोने का कारण पूछा। बुजुर्ग महिला ने बताया, “मेरा इकलौता बेटा सुबह जंगल गया था, लेकिन अभी तक लौटा नहीं है। राजा विक्रमादित्य ने उससे पूछा, “आपका बेटा जंगल किस काम से गया है?” बुढ़िया ने बताया, “मेरा बेटा रोज सुबह जंगल से सूखी लकड़ियां लाता है और शहर में बेचता है। इसी से परिवार का गुजारा होता है।”
राजा ने बुढ़िया से कहा, “चिंता मत करो आपका बेटा आ जाएगा।” इस पर बूढ़ी औरत ने कहा, “जंगल बहुत घना है और वहां कई खतरनाक जानवर हैं। मुझे डर है कि कहीं किसी जानवर ने उसे अपना शिकार न बना लिया हो।” बुढ़िया ने आगे कहा, “शाम से मैं कई लोगों से विनती कर चुकी हूं, लेकिन कोई भी मदद नहीं कर रहा। मैं बूढ़ी हो चुकी हूं, इसलिए खुद जंगल जाकर उसे ढूंढ नहीं कर सकती।” यह सुनकर विक्रमादित्य ने कहा कि वह उनके बेटे को ढूंढकर लाएंगे।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य लड़के की खोज में जंगल चल दिए। जंगल में उन्हें एक नौजवान युवक कुल्हाड़ी लेकर पेड़ पर दुबका बैठा मिला और उस पेड़ के नीचे एक शेर घात लगाए बैठा दिखा। विक्रम ने कोई रास्ता निकालते हुए शेर को वहां से भगा दिया और उस युवक को अपने साथ लेकर बुढ़िया के पास लौट आए। बुढ़िया बेटे को देखकर बहुत खुश हुई और विक्रम को ढेरों आशीर्वाद मिले। इस तरह बुढ़िया को चिंतामुक्त करके राजा ने एक पुण्य का काम किया।
रात को आराम के बाद उन्होंने अगली सुबह फिर से अपनी यात्रा शुरू की। चलते-चलते वह समुद्र के किनारे पहुंच गए। वहां उन्होंने एक महिला को रोते हुए देखा। जब वह उसके पास गए, तो देखा कि समुद्र के किनारे पर एक जहाज खड़ा है और कुछ लोग उस पर सामान लाद रहे हैं। जब उन्होंने महिला से रोने का कारण पूछा, तो उसने बताया, “कुछ महीने पहले ही मेरी शादी हुई है और अब में गर्भवती हूं। मेरे पति इसी जहाज पर काम करते हैं और आज जहाज दूर किसी देश जा रहा है।”
यह सुनकर राजा विक्रम ने कहा, “इसमें परेशानी की क्या बात है, कुछ ही समय बाद तुम्हारा पति लौट आएगा।” इस पर उसने अपनी चिंता का कारण कुछ और बताया। उसने कहा, “कल मैंने सपने में सामान से लदे एक जहाज को समुद्र के बीच भयानक तूफान में घिरते देखा है। तूफान इतना तेज था कि जहाज टूटकर समुद्र में डूब गया और उस पर सवार सभी लोग मर गए।” उस महिला ने आगे कहा, “अगर यह सपना सच हुआ, तो मेरा क्या होगा और मेरे होने वाले बच्चे की देखभाल कैसे होगी।”
राजा विक्रमादित्य को यह बात सुनकर दया आ गई। उन्होंने समुद्र देवता द्वारा दिए गए शंख को महिला को दिया और कहा, “यह अपने पति को दो और उससे कहो कि जब भी तूफान या कोई अन्य प्राकृतिक आपदा आए, तो इस शंक को फूंक दे, इससे सारी मुसीबत खत्म हो जाएगी।”
उस औरत को विक्रमादित्य की बात पर विश्वास नहीं हुआ और वह शक की नजर से उन्हें देखने लगी। राजा विक्रमादित्य ने महिला की शंका को भांप लिया और तुरंत शंख में एक फूंक मारी, जिसके बाद देखते ही देखते वह जहाज और उस पर तैनात सभी लोग कोसों दूर चले गए। अब दूर-दूर तक सिर्फ समुद्र नजर आ रहा था। वह औरत और वहां खड़े अन्य लोग यह देखकर हैरान हुए। इसके बाद महाराज ने फिर से शंख फूंका, तो वह जहाज सभी कर्मचारियों सहित वापस आ गया। अब उस औरत को शंख की शक्ति पर विश्वास हो गया था। उसने राजा से वह शंख लेकर धन्यवाद कहा।
राजा विक्रमादित्य उस औरत को शंख देकर अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गए। कुछ देर चलने के बाद आकाश में काले बादल मंडराने लगे और बादल जोर-जोर से गरजने लगे। इसी बीच उन्हें एक सफेद घोड़ा वहां आता दिखा। जब वह घोड़ा उनके पास पहुंचा, तो एक आकाशवाणी हुई –
“हे महाराज विक्रमादित्य, इस धरती पर तुम्हारे जैसा पुण्यात्मा और कोई नहीं हुआ। स्वर्ग आने की इस यात्रा में तुमने दो पुण्य कार्य किए हैं। इसलिए, तुम्हें लेने के लिए एक घोड़ा भेजा जा रहा है, जो तुम्हें इंद्र के महल तक पहुंचा देगा।”
यह सुन विक्रमादित्य ने कहा, “मैं अपने राजपुरोहित के साथ स्वर्ग की यात्रा पर निकला हूं। इसलिए, स्वर्ग जाने के लिए उनके लिए भी व्यवस्था की जाए।”
यह सुनकर राजपुरोहित ने कहा, “राजन मुझे माफ करें। मेरी सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा नहीं है। अगर भगवान ने चाहा, तो मरने के बाद स्वर्ग आऊंगा और खुद को धन्य समझूंगा।” इसके बाद राजा विक्रमादित्य राजपुरोहित से विदा लेकर घोड़े पर बैठ गए। कुछ ही देर में घोड़ा आकाश में दौड़ने लगा। दौड़ते-दौड़ते इंद्रपुरी पहुंच गया। इंद्रपुरी पहुंचते ही राजा को वही सपनों वाला महल दिखा। चलते-चलते वह इंद्रसभा में पहुंच गए, जहां सभी देवता अपने-अपने स्थान पर बैठे थे। अपसराएं नृत्य कर रही थीं। इंद्र देव पत्नी के साथ सिंहासन पर बैठे थे। राजा विक्रमादित्य को सशरीर स्वर्ग में देखकर सभी हैरान हो गए।
इंद्र उन्हें देखकर सिंहासन से उठकर आए और उनका स्वागत किया। साथ ही राजा विक्रमादित्य को सिंहासन पर बैठने को कहा। राजा ने इंद्र से सिंहासन पर बैठने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह इस आसन के योग्य नहीं हैं। इंद्र, विक्रमादित्य की नम्रता और सरलता देखकर प्रसन्न हुए। इंद्र ने उनसे कहा, “सपने में आपने जिस योगी को देखा था वह आप खुद थे। आपने इतना पुण्य कमा लिया है कि इंद्र के महल में आपको स्थायी स्थान मिल गया है।” इसके बाद इंद्र ने राजा विक्रमादित्य को एक मुकुट उपहार में दिया। राजा विक्रमादित्य कुछ दिन इंद्रलोक में बिताने के बाद वह मुकुट लेकर अपने राज्य वापस आ गए।
यह कहानी सुनाने के बाद 28वीं पुतली वैदेही ने राजा भोज से कहा कि अगर तुम भी राजा विक्रमादित्य की तरह पुण्य करने वाले, सरल व विनम्र हो, तो ही इस सिंहासन पर बैठ सकते हो, वरना नहीं। इतना कहकर 28वीं पुतली वैदेही वहां से उड़ जाती है।
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