डच साम्राज्य ने इंडोनेशिया पर हमला करके उसे अपने साम्राज्य में मिलाने की सोची। वहीं दूसरी ओर इंडोनेशिया के नवयुवकों ने भी तय कर लिया था कि मर मिटेंगे, लेकिन डचों को देश में नहीं आने देंगे। सेना में युवकों की भर्ती होने लगी। एक गुरिल्ला दल बना। दल की पहली टुकड़ी के लिए युवकों का चयन होने लगा।
इस पहली टुकड़ी में सुवर्ण मार्तदिनाथ नाम का युवक भी जाना चाहता था। राष्ट्र के लिए बलिदान हो जाने की ललक उसमें जबर्दस्त थी किंतु पहली टुकड़ी में उसे अवसर नहीं मिल पाया। उसके बड़े भाई को मौका मिला। तब मार्तदिनाथ ने अपने भाई से कहा- ‘भैया! यूं तो आप बड़े हैं लेकिन इस बार पहला अवसर मुझे दीजिए।’ इस पर बड़े भाई ने समझाया ‘मर मिटने के लिए तो सभी तैयार हैं। पहले क्या और बाद में क्या? सभी एक साथ मर मिटेंगे, तो उसका लाभ क्या होगा? मोमबत्ती का कण-कण जलता रहे, तो प्रकाश मिलता है।
एक साथ भभककर जलने से तो प्रकाश नहीं मिल सकता। मेरा नाम वापस नहीं हो सकता और तुम्हारी जिद देखकर कहीं नायक ने तुम्हें भी साथ भेज दिया तो अच्छा नहीं होगा। जोश ही नहीं, होश भी चाहिए। तुम होश में काम लो।’ मार्तदिनाथ नहीं माना और पहली टुकड़ी में ही गया। वीरता से लड़ा और जीवित लौट आया। दूसरी टुकड़ी में उसके बड़े भाई गए और लड़ते हुए मारे गए। मार्तदिनाथ दुखी हुआ कि प्राण विसर्जन भी न कर सका और बड़े भाई की आज्ञा का उल्लंघन भी किया। उनसे क्षमा भी न मांग सका।
सार यह कि स्वयं में आज्ञाकारिता का गुण पैदा करना चाहिए। इससे महान कार्य संपादित होते हैं अन्यथा व्यक्ति आजीवन अपराधबोध से ग्रस्त रहता है।
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