जल प्रवाहों ने आपस में बांटे अपने दुख व सुख || Jal prawahon ne aapas mein baante apne dukh aur sukh

 कदीशा की घाटी में, जिसमें होकर एक वेगवती नदी बहती थी, दो छोटे-छोटे जल प्रवाह आ मिले और परस्पर बातचीत करने लगे। एक जल प्रवाह ने पूछा- मेरे मित्र! तुम्हारा कैसे आना हुआ, रास्ता ठीक था न? दूसरे ने उत्तर दिया- रास्ते की न पूछो बड़ा ही बीहड़ था।


पनचक्की का चक्र टूट गया था और उसका संचालक, जो मेरी धारा को अपने पौधों व वृक्षों की ओर ले जाता था, चल बसा। उसके जाने से मैं तो अकेला ही रह गया। बड़ी मुश्किल से यहां तक आया हूं। बहुत संघर्ष करके, धूप में अपने निकम्मेपन को सूर्य-स्नान कराने वालों की गंदगी को साथ लिए मैं सरक आया हूं, किंतु मेरे बंधु! तुम्हारा पथ कैसा था? पहले ने उत्तर देते हुए कहा- मेरा पथ तुमसे भिन्न था।


मैं तो पहाड़ी से उतरकर सुगंधित पुष्पों और लचीली बेलों के मध्य से होकर आ रहा हूं। स्त्री-पुरुष मेरे जल का पान करते थे। किनारे पर बैठकर छोटे-छोटे बच्चे अपने गुलाबी पैरों को पानी में चलाते थे। मेरे चारों ओर उल्लास और मधुर संगीत का वातावरण था। उसी समय नदी ने ऊंचे स्वर में कहा- चले आओ, चले आओ! हम सब समुद्र की ओर जा रहे हैं। अब अधिक वार्तालाप न करो और मुझमें मिल जाओ। हम सब समुद्र से मिलने जा रहे हैं। चले आओ, अपनी यात्रा के सारे सुख-दुख विस्मृत हो जाएंगे, जब हम अपनी समुद्र माता से मिलेंगे।


इस प्रतीकात्मक कथा का गूढ़ार्थ यह है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा का परमात्मा से मिलन अनिवार्य है, जो परम सुख है। अत: जीवन में सुख या दुख जो भी मिलें, उन्हें ईश्वर का प्रसाद मानकर ग्रहण कर लें। ऐसा करने पर हमारा अंत समय दिव्य आत्मिक शांति से ओतप्रोत रहता है।

 

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