ईश्वर के दर्शन का शिल्प || Ishwar ke darshan ke shilp

 प्रवचन करते हुए महात्मा जी कह रहे थे कि आज का प्राणी मोह-माया के जाल में इस प्रकार जकड़ गया है कि उसे आध्यात्मिक चिंतन के लिए अवकाश नहीं मिलता। प्रवचन समाप्त होते ही एक सज्जन ने प्रश्न किया, ‘आप ईश्वर संबंधी बातें लोगों को बताते रहते हैं लेकिन क्या आपने स्वयं कभी ईश्वर का दर्शन किया है?’ महात्मा जी बोले, ‘मैं तो प्रतिदिन ईश्वर के दर्शन करता हूं। तुम भी प्रयास करो तो तुम्हें भी दर्शन हो सकता है।’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं तो पिछले कई साल से पूजा कर रहा हूं मगर आज तक दर्शन नहीं हुए।’


महात्मा जी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘ईश्वर को प्राप्त करना एक पद्धति नहीं बल्कि एक शिल्प है।’ उस व्यक्ति ने जिज्ञासा प्रकट की, ‘आखिर पद्धति और शिल्प में क्या अंतर है?’ महात्मा जी ने समझाते हुए कहा, ‘मान लो तुम्हें कोई मकान या पुल बनवाना है तो उसके लिए तुम्हें किसी वास्तुकार से नक्शा बनवाना पड़ता है पर तुम उस नक्शे को देखकर मकान या पुल नहीं बनवा सकते क्योंकि वह नक्शा तु्म्हारी समझ के परे है। तुम फिर किसी अभियंता या राज मिस्त्री की शरण में जाते हो। वह नक्शे के आधार पर मकान या पुल बना देता है क्योंकि वह उस शिल्प को समझता है। नक्शा मात्र एक पद्धति है। ईश्वर के पास पहुंचने का रास्ता तो सभी लोग दिखाते हैं लेकिन शिल्प शायद ही कोई जानता है।’

 

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