Best Ghazal of Ghulam Mohammad Kashir

गुलाम मुहम्मद कासिर ( 4 सितंबर 1944 - 20 फरवरी 1999) एक पाकिस्तानी उर्दू कवि थे। उन्हें उर्दू ग़ज़ल के बेहतरीन आधुनिक कवियों में से एक माना जाता है। अहमद नदीम कासमी वह थे जिन्होंने पहली बार उन्हें वर्ष 1977 में "फनून" नामक अपनी प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका में पेश किया था। गुलाम मुहम्मद कासिर उसी वर्ष "तसलसुल" नामक कविता के अपने पहले संग्रह के साथ आए और पूरे देश में गर्मजोशी से स्वीकृति प्राप्त की। उर्दू साहित्य के क्षेत्र में उनके बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें 2006-07 में पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रेसिडेंशियल प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस अवार्ड (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया है।
गुलाम मुहम्मद कासिर का जन्म 4 सितंबर 1944 को पहाड़पुर, डेरा इस्माइल खान,उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (एनडब्ल्यूएफपी) में हुआ था, जिसे अब खैबर पख्तूनख्वा केपीके,पाकिस्तान कहा जाता है। वह उर्दू के व्याख्याता के रूप में शिक्षा विभाग में शामिल हुए और पूरे प्रांत में विभिन्न कॉलेजों में सेवा दी। 20 फरवरी 1999 को उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें पेशावर केपीके, पाकिस्तान में दफनाया गया।



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आँख से बिछड़े काजल को तहरीर बनाने वाले

मुश्किल मे पड़ जाएँगे तस्वीर बनावे वाले


ये दीवाना-पन तो रहेगा दश्त के साथ सफर में

साए में सो जाएँगे जंजीर बनाने वाले


उस ने तो देखे अन-देखे ख्वाब सभी लौटाए

और थे शायद टूटी हूई ताबीर बनाने वाले


सोने की दीवार से आगे मेरे काम न आए

सच्चे जज्बे मिट्टी को इक्सीर बनाने वाले


जुज्व-ए-शेर नहीं है 'कासिर' जुज्व-ए-जाँ कर डाले

हम को जितने दर्द मिले थे 'मीर' बनाने वाले


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अकेला दिन है कोई और न तन्हा रात होती है

मैं जिस पल से गुजरता हूँ मोहब्बत साथ होती है


तेरी आवाज को इस शहर की लहर्रे तरसती हैं

गलत नंबर मिलता हूँ तो पहर्रो बात होती है


सर्रो पर खौफ-ए-रूसवाई की चादर तान लेते हैं

तुम्हारें वास्ते रंर्गो की जब बरसात होती है


कहीं चिड़ियाँ चहकती हैं कहीं कलियाँ चटकती हैं

मगर मेरे मकाँ से आसमाँ तक रात होती है


किसे आबाद समझूँ किस का शहर-आशोब लिक्खूँ मैं

जहाँ शहर्रो की यकसाँ सूरत-ए-हालात होती है


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बगैर उस के अब आराम भी नहीं आता

वो शख्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता


उसी की शक्ल मुझे चाँद में नजर आए

वो माह-रूख जो लब-ए-बाम भी नहीं आता


करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया ना-काम

मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता


बिठा दिया मुझे दरिया के उस किनारे पर

जिधर हुबाब तही-जाम भी नहीं आता


चुरा के ख्वाब वो आँखों को रहन रखता है

और उस के सर कोई इल्जाम भी नहीं आता


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बन में वीराँ थी नजर शहर मे दिल रोता है

जिंदगी से ये मेरा दूसरा समझौता है


लहलहाते हुए ख्वाबों से मेरी आँखों तक

रत-जगे काश्त न कर ले तो वो कब सोता है


जिस को इस फस्ल में होना है बराबर का शरीक

मेरे एहसास में तन्हाइयाँ क्यूँ बोता है


नाम लिख लिख के तेरा फूल बनाने वाला

आज फिर शबनमीं आँखों से वरक धोता है


तेरे बख्शे हुए इक गम का करिश्मा है कि अब

जो भी गम हो मेरे मेयार से कम होता है


सो गए शहर-ए-मोहब्बत के सभी दाग ओ चराग

एक साया पस-ए-दीवार अभी रोता है


ये भी इक रंग है शायद मेरी महरूमी का

कोई हँस दे तो मोहब्बत गुमाँ होता है


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गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है

इस शहर का हर रहने वाला क्यूँ दूसरे शहर में रहता है


इक ख्वाब-नुमा बे-दारी में जाते इुए उस को देखा था

एहसास की लहरों में अब तक हैरत का सफीना बहता है


फिर जिस्म के मंजर-नामे में सोए हुए रंग न जाग उट्ठें

इस खौफ से वो पोशाक नहीं बस ख्वाब बदलता रहता है


छे दिन तो बड़ी सच्चाई से साँसों ने पयास रसानी की

आराम का दिन है किस से कहें दिल आज जो सदमे सहता है


हर अहद ने जिंदा गजलों के कितने ही जहाँ आबाद किए

पर तुझे को देख के सोचता हूँ ड़क शेर अभी तक रहता है


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कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला

और डूबने वालों का जन्बा भी नहीं बदला


तस्वीर नहीं बदली शीशा भी नहीं बदला

नजरें भी सलामत हैं चेहरा भी नहीं बदला


है शौक-ए-सफर ऐसा इक उम्र से यारों ने

मंजिल भी नहीं पाई रस्ता भी नहीं बदला


बे-कार गया बन में सोना मेरा सदियों का

इस शहर में तो अब तक सिक्का भी नहीं बदला


बे-सम्त हवाओं ने हर लहर से साजिश की

ख्वाबों के जजीरे का नक्शा भी नहीं बदला


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जाम-ए-जम लाया है घर घर दुनिया के हालात

दिल की बातें हम तेरी तस्वीर से पूछते ह


दुनिया कब करवट बदलेगी कब जागेंगे शहर

कैसी बातें सोए हुए ज़मीर से पूछते हैं


हम से न पूछो किस जज्बे ने तुम्हें क्या ना-काम

बादशाह ऐसी बातें अपने वज़ीर से पूछते हैं


अहद से कौन मुकर जाएगा तारों को क्या इन्म

लिक्खी नहीं जो तू ने उस तहरीर से पूछते हैं


'कासिर' ने तो देखा है अब तक फाकों का रक्स

जौहरी ताकत क्या है जौहर-ए-'मीर' से पूछते हैं


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कुछ बे-तरतीब सितारों को पलकों ने किया तरूखीर तो क्या

वो शख्स नजर भर रूक न सका एहसास था दामन-गीर तो क्या


कुछ बनते मिटते दाएरे से इक शक्ल हजारों तस्वीरें

सब नक्श ओ निगार उरूज पे थे आँखें थीं ज़वाल-पज़ीर तो क्या


खुश हूँ की किसी की महफिल में अर्ज़ां थी मता-ए-बे-दारी

अब आँखें हैं बे-ख्वाब तोे क्या अब ख्वाब हैं बे-ताबीर तो क्या


ख्वाहिश के मुसफिर तो अब तक तारीकी-ए-जाँ में चलते हैं

इक दिल के निहाँ-खाने में कहीं जलती है शमा-ए-जमीर तो क्या


सहरा-ए-तमन्ना में जिस के जीने का जवाज ही झोंके हों

उस रेत के जर्रों ने मिल कर इक नाम किया तहरीर तो क्या


लिखता हूँ तो पोरों से दिल तक इक चाँदनी सी छा जाती है

'कासिर' वो हिलाल-ए-हर्फ कभी हो पाए न माह-ए-मुनीर तो क्या


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नजर नजर में अदा-ए-जमाल रखते थे

हम एक शख़्स का कितना खयाल रखते थे


जबीं पे आने देते थे इक शिकन भी कभी

अगरचे दिल में हजारों मलाल रखते थे


ख़ुशी उसी की हमेशा नजर में रहती थी

और अपनी कुव्वत-ए-गम भी बा-हाल रखते थे


बस इश्तियाक-ए-तकल्लुम में बारहा हम लोग

जवाब दिल में जबाँ पर सवाल रखते थे


उसी करते थे हम रोज ओ शब का अंदाजा

ज़मीं पे रह के वो सूरज की चाल रखते थे


जुनूँ का जाम मोहब्बत की मय ख़िरद का ख़ुमार

हमीं थे वो जो ये सारे कमाल रखते थे


छुपा के अपनी सिसकती सुलगती सोचों से

मोहब्बतों के उरूज ओ ज़वाल रखते थे


कुछ उन का हुस्न भी था मा-वरा मिसालंों से

कुछ अपना इश्क भी हम बे-मिसाल रखते थे


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पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना

और फिर पूरी काएनात बना


हुस्न ने ख़द कहा मुसव्विर से

पाँव पर मेरे कोई हाथ बना


प्यास की सल्तनत नहीं मिट्टी

लाख दजले बना फ़ुरात बना


ग़म का सूरज वो दे गया तुझ का

चाहे अब दिन बना की रात बना


शेर इक मश्ग़ला था 'कासिर' का

अब यही मक्सद-ए-हयात बना


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सब रंग ना-तमाम हों हल्का लिबास हो

शफ़्फ़ाफ़ पानियों पे कँवल का लिबास हो


अश्कों से बुन के मर्सिया पहना दिया गया

अब जिंदगी के तन पे ग़ज़ल का लिबास हो


हर एक आदमी को मिले खिलअत-ए-बशर

हर के झोंपड़ी पे महल का लिबास हो


सुन ले जो आने वाले ज़माने की आहटें

कैसे कहे की आज भी कल का लिबास हो


या रब किसी सदी के उफ़क़ पर ठहर न जाए

इक ऐसी सुबह जिस का धुंदलका लिबास हो


उजला रहेगा सिर्फ़ मोहब्बत के जिस्म पर

सदियों का पैरहन हो की पल का लिबास हो


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ख़ार-ए-चमन थे शबनम शबनम फूल भी सारे गीले थे

शाख़ से टूट के गिरने वाले पत्ते फिर भी पीले थे


सर्द हवाओं से तो थे साहिल के रेत के याराने

लू के थपेड़े सहने वाले सहराओं के टीले थे


ताबिंदा तारों का तोहफा सुब्ह की खिदमत में पहुँचा

रात ने चाँद की नजर किए जो तारे कम चमकीले थे


सारे सपेरे वीरानों में घूम रहे हैं बीन लिए

आबादी में रहने वाले साँप बड़े ज़हरीले थे


त यूँ ही नाराज़ हुए हो वरना मय-खाने का पता

हम ने हर उस शस़्स से पूछा जिस के नैन नशीले थे


कौन ग़ुलाम मोहम्मद 'कासिर' बे-चारे से करता बात

ये चालाकों की बस्ती थी और हजरत शर्मीले थे


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सोए हुए जज्बों को जगाना ही नहीं था

ऐ दिल वो मोहब्बत का ज़माना ही नहीं था


महके थे चराग़ और दहक उट्ठी थीं कलियाँ

गो सब को ख़बर थी उसे आना ही नहीं था


दीवारा पे वादों की अमरबेल चढ़ा दी

रूख़्सत के लिए और बहाना ही नहीं था


उड़ती हुई चिंगारियाँ सोने नहीं देतीं

रूठे हुए इस ख़त को जलाना ही नहीं था


नींदें भी नजर बंद हैं ताबीर भी क़ैदी

ज़िंदाँ में कोई ख़्वाब सुनाना ही नहीं था


पानी तो है कम नक़्ल-ए-मकानी है ज़्यादा

ये शहर सराबों में बसाना ही नहीं था


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वो बे-दिली में कभी हाथ छोड़ देते हैं

तो हम भी सैर-ए-समावात छोड़ देते हैं


जब उन के गिर्द कहानी तवाफ करने लगे

तो दरमियाँ से कोई बात छोड़ देते हैं


दुआ करेंगे मगर उस मकाम से आगे

तमाम लफ़्ज़ जहाँ साथ छोड़ देते हैं


दिए हों इतने की ख़्वाबों को रास्ता न मिले

तो शहर अपनी रितायात छोड़ देते हैं


हर एक शाख़् पे जब साँप का गुमाँ गुज़रे

फ़क़ीर कश्फ़ आ करामात छोड़ देते हैं


जमाल अपने नज़्ज़ारों में गया ऐ दिल

सो उस की मेज़ पे सौगात छोड़ देते हैं


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याद अश्कों में बहा दी हम ने

आ कि हर बात भुला दी हम ने


गुलशन-ए-दिल से गुज़रने के लिए

ग़म को रफ़्तार-ए-सबा दी हम ने


अब उसी आग में जलते हैं जिसे

अपने दामन से हवा दी हम ने


दिन अँधेरों की तलब में गुज़रा

रात को शम्मा जला दी हम ने


रह-गुज़र बजती है पायल की तरह

किस की आहट को सदा दी हम ने


क़स्र-ए-मआनी के मकीं थे फिर भी

तय न की लफ़्ज़ की वादी हम ने


ग़म की तशरीह बहुत मुश्किल थी

अपनी तस्वीर दिखा दी हम ने

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