Famous Ghazal of Iqbaal

सुनाऊँ तुम्हे बात एक रात की,

कि वो रात अन्धेरी थी बरसात की,

चमकने से जुगनु के था इक समा,

हवा में उडें जैसे चिनगारियाँ।


पड़ी एक बच्चे की उस पर नज़र,

पकड़ ही लिया एक को दौड़ कर।


चमकदार कीडा जो भाया उसे,

तो टोपी में झटपट छुपाया उसे।


तो ग़मग़ीन क़ैदी ने की इल्तेज़ा,

'ओ नन्हे शिकारी, मुझे कर रिहा।


ख़ुदा के लिए छोड़ दे, छोड़ दे,

मेरे क़ैद के जाल को तोड दे।


करूंगा न आज़ाद उस वक़्त तक,

कि देखूँ न दिन में तेरी मैं चमक।


चमक मेरी दिन में न पाओगे तुम,

उजाले में वो तो हो जाएगी गुम।


न अल्हडपने से बनो पायमाल -

समझ कर चलो- आदमी की सी चाल।


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लब पे' आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी,

ज़िन्दगी शमा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी ।


दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाए

हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए ।


हो मेरे दम से यूँ ही वतन की ज़ीनत,

जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत ।


ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब !

इल्म की शमा से हो मुझ को मुहब्बत या रब !


हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना,

दर्दमंदों से, ज़ईफ़ों से मुहब्बत करना ।


मेरे अल्लाह, बुराई से बचाना मुझ को,

नेक जो राह हो, उस रह पे' चलाना मुझ को ।


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ख़ुदा से हुस्न ने इक रोज़ ये सवाल किया

जहाँ में क्यों ना मुझे तुने लाज़वाल किया।


मिला जवाब के तस्वीरख़ाना है दुनिया

शबे-दराज़ अदम का फसाना है दुनिया।


है रंगे-तगय्युर से जब नमूद इसकी

वही हसीन है हक़ीकत ज़वाल है इसकी।


कहीं क़रीब था, ये गुफ्तगू क़मर ने सुनी

फ़लक पे आम हुवी, अख्तरे-सहर ने सुनी।


सहर ने तारे से सुनकर सुनायी शबनम को

फ़लक की बात बता दी ज़मीं के महरम को।


भर आये फूलके आँसू पयामे-शबनम से

कली का नन्हा-सा दिल खून हो गया ग़म से।


चमन से रोता हुवा मौसमे-बहार गया

शबाब सैर को आया था सोग़वार गया।


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तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मकाम से गुज़र

मिस्र-ओ-हिजाज़ से गुज़र, पारेस-ओ-शाम से गुज़र


जिस का अमाल है बे-गरज़, उस की जज़ा कुछ और है

हूर-ओ-ख़याम से गुज़र, बादा-ओ-जाम से गुज़र


गर्चे है दिलकुशा बहोत हुस्न-ए-फ़िरन्ग की बहार

तायरेक बुलंद बाल दाना-ओ-दाम से गुज़र


कोह शिग़ाफ़ तेरी ज़रब तुझसे कुशाद शर्क़-ओ-ग़रब

तेज़े-हिलाहल की तरह ऐश-ओ-नयाम से गुज़र


तेरा इमाम बे-हुज़ूर, तेरी नमाज़ बे-सुरूर

ऐसी नमज़ से गुज़र, ऐसे इमाम से गुज़र


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तेरे इश्क़ की इन्तहा चाहता हूँ

मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ


सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी

कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ


ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को

कि मैं आप का सामना चाहता हूँ


कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल

चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ


भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी

बड़ा बे-अदब हूँ, सज़ा चाहता हूँ


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ख़िर्द के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं

तेरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं


हर मुक़ाम से आगे मुक़ाम है तेरा

हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं


रंगों में गर्दिश-ए-ख़ूँ है अगर तो क्या हासिल

हयात सोज़-ए-जिगर के सिवा कुछ और नहीं


उरूस-ए-लाला मुनासिब नहीं है मुझसे हिजाब

कि मैं नसीम-ए-सहर के सिवा कुछ और नहीं


जिसे क़ साद समझते हैं ताजरन-ए-फ़िरन्ग

वो शय मता-ए-हुनर के सिवा कुछ और नहीं


गिराँबहा है तो हिफ़्ज़-ए-ख़ुदी से है वरना

गौहर में आब-ए-गौहर के सिवा कुछ और नहीं


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उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो

ख़ाक-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो


गरमाओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से

कुन्जिश्क-ए-फिरोमाया को शाहीं से लड़ा दो


सुल्तानी-ए-जमहूर का आता है ज़माना

जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आये मिटा दो


जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी

उस ख़ेत के हर ख़ोशा-ए-गुन्दम को जला दो


क्यों ख़ालिक़-ओ-मख़लूक़ में हायल रहें पर्दे

पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से हटा दो


मैं नाख़ुश-ओ-बेज़ार हूँ मरमर के सिलों से

मेरे लिये मिट्टी का हरम और बना दो


तहज़ीब-ए-नवीं कारगह-ए-शीशागराँ है

आदाब-ए-जुनूँ शायर-ए-मश्रिक़ को सिखा दो


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असर करे न करे सुन तो ले मेरी फ़रियाद

नहीं है दाद का तालिब ये बंद-ए-आज़ाद


ये मुश्त-ए-ख़ाक ये सरसर ये वुसअत-ए-अफ़लाक

करम है या के सितम तेरी लज़्ज़त-ए-ईजाद


ठहर सका न हवा-ए-चमन में ख़ेम-ए-गुल

यही है फ़स्ल-ए-बहारी यही है बाद-ए-मुराद


क़ुसूर-वार ग़रीब-उद-दयार हूँ लेकिन

तेरा ख़राबा फ़रिश्ते न कर सके आबाद


मेरी जफ़ा-तलबी को दुआएँ देता है

वो दश्त-ए-सादा वो तेरा जहान-ए-बे-बुनियाद


ख़तर-पसंद तबीअत को साज़-गार नहीं

वो गुलसिताँ के जहाँ घात में न हो सय्याद


मक़ाम-ए-शौक़ तेरे क़ुदसियों के बस का नहीं

उन्हीं का काम है ये जिन के हौसले हैं ज़ियाद


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अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा

मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यूँ हो जहाँ तेरा है या मेरा


अगर हँगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली

ख़ता किस की है या रब ला-मकाँ तेरा है या मेरा


उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर

मुझे मालूम क्या वो राज़-दाँ तेरा है या मेरा


मोहम्मद भी तेरा जिब्रील भी क़ुरआन भी तेरा

मगर ये हर्फ़-ए-शीरीं तरजुमा तेरा है या मेरा


इसी कौकब की ताबानी से है तेरा जहाँ रौशन

ज़वाल-ए-आदम-ए-ख़ाकी ज़ियाँ तेरा है या मेरा


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आम मशरिक़ के मुसलमानों का दिल मगरिब में जा अटका है

वहाँ कुंतर सब बिल्लोरी है, यहाँ एक पुराना मटका है


इस दौर में सब मिट जायेंगे, हाँ बाक़ी वो रह जायेगा

जो क़ायम अपनी राह पे है, और पक्का अपनी हट का हे


अए शैख़-ओ-ब्रह्मन सुनते हो क्या अह्ल-ए-बसीरत कहते हैं

गर्दों ने कितनी बुलंदी से उन क़ौमों को दे पटका है


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नहीं मिन्नत-कश-ए-ताब-ए-शनीदन दास्ताँ मेरी

ख़ामोशी गुफ़्तगू है, बेज़ुबानी है ज़बाँ मेरी


ये दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी है कैसी तेरी महफ़िल में

यहाँ तो बात करने को तरस्ती है ज़बाँ मेरी


उठाये कुछ वरक़ लाला ने कुछ नरगिस ने कुछ गुल ने

चमन में हर तरफ़ बिखरी हुई है दास्ताँ मेरी


उड़ा ली कुमरियों ने तूतियों ने अंदलीबों ने

चमन वालों ने मिल कर लूट ली तर्ज़-ए-फ़ुगाँ मेरी


टपक ऐ शम आँसू बन के परवाने की आँखों से

सरापा दर्द हूँ हसरत भरी है दास्ताँ मेरी


इलाही फिर मज़ा क्या है यहाँ दुनिया में रहने का

हयात-ए-जाविदाँ मेरी न मर्ग-ए-नागहाँ मेरी


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मोहब्बत क जुनूँ बाक़ी नहीं है

मुसलमानों में ख़ून बाक़ी नहीं है


सफ़ें कज, दिल परेशन, सज्दा बेज़ूक

के जज़बा-ए-अंद्रून बाक़ी नहीं है


रगों में लहू बाक़ी नहीं है

वो दिल, वो आवाज़ बाक़ी नहीं है


नमाज़-ओ-रोज़ा-ओ-क़ुर्बानी-ओ-हज

ये सब बाक़ी है तू बाक़ी नहीं है


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जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही

खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही


'अत्तार' हो 'रूमी' हो 'राज़ी' हो 'ग़ज़ाली' हो

कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-सहर-गाही


नौमीद न हो इन से ऐ रह-बर-ए-फ़रज़ाना

कम-कोश तो हैं लेकिन बे-ज़ौक़ नहीं राही


ऐ ताएर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी

जिस रिज़्क़ से आती हो परवाज़ में कोताही


दारा ओ सिकंदर से वो मर्द-ए-फ़क़ीर औला

हो जिसकी फ़क़ीरी में बू-ए-असदूल-लाही


आईन-ए-जवां मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी

अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही


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उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो

ख़ाक-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो


गर्माओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से

कुन्जिश्क-ए-फिरोमाया को शाहीं से लड़ा दो


सुल्तानी-ए-जमहूर का आता है ज़माना

जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आये मिटा दो


जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी

उस ख़ेत के हर ख़ोशा-ए-गुन्दम को जला दो


क्यों ख़ालिक़-ओ-मख़लूक़ में हायल रहें पर्दे

पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से हटा दो


मैं नाख़ुश-ओ-बेज़ार हूँ मरमर के सिलों से

मेरे लिये मिट्टी का हरम और बना दो


तहज़ीब-ए-नवीं कारगह-ए-शीशागराँ है

आदाब-ए-जुनूँ शायर-ए-मशरिक़ को सिखा दो


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ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं

तेरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं


हर इक मुक़ाम से आगे मुक़ाम है तेरा

हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं


रंगो में गर्दिश-ए-ख़ूँ है अगर तो क्या हासिल

हयात सोज़-ए-जिगर के सिवा कुछ और नहीं


उरूस-ए-लाला मुनासिब नहीं है मुझसे हिजाब

कि मैं नसीम-ए-सहर के सिवा कुछ और नहीं


जिसे क़साद समझते हैं ताजरन-ए-फ़िरन्ग

वो शय मता-ए-हुनर के सिवा कुछ् और नहीं


गिराँबहा है तो हिफ़्ज़-ए-ख़ुदी से है वरना

गौहर में आब-ए-गौहर के सिवा कुछ और नहीं


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परीशाँ होके मेरी खाक आखिर दिल न बन जाये

जो मुश्किल अब हे या रब फिर वही मुश्किल न बन जाये


न करदें मुझको मज़बूरे नवा फिरदौस में हूरें

मेरा सोज़े दरूं फिर गर्मीए महेफिल न बन जाये


कभी छोडी हूई मज़िलभी याद आती है राही को

खटक सी है जो सीने में गमें मंज़िल न बन जाये


कहीं इस आलमें बे रंगो बूमें भी तलब मेरी

वही अफसाना दुन्याए महमिल न बन जाये


अरूज़े आदमे खाकी से अनजुम सहमे जातें है

कि ये टूटा हुआ तारा महे कामिल न बन जा


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आता है याद मुझको गुज़रा हुआ ज़माना

वो बाग़ की बहारें, वो सब का चह-चहाना


आज़ादियाँ कहाँ वो, अब अपने घोसले की

अपनी ख़ुशी से आना अपनी ख़ुशी से जाना


लगती हो चोट दिल पर, आता है याद जिस दम

शबनम के आँसुओं पर कलियों का मुस्कुराना


वो प्यारी-प्यारी सूरत, वो कामिनी-सी मूरत

आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना


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अजब वाइज़ की दीन-दारी है या रब

अदावत है इसे सारे जहाँ से


कोई अब तक न ये समझा कि इंसाँ

कहाँ जाता है आता है कहाँ से


वहीं से रात को ज़ुल्मत मिली है

चमक तारों ने पाई है जहाँ से


हम अपनी दर्दमंदी का फ़साना

सुना करते हैं अपने राज़दाँ से


बड़ी बारीक हैं वाइज़ की चालें

लरज़ जाता है आवाज़-ए-अज़ाँ से


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गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बू न बेगानावार देख

है देखने की चीज़ इसे बार बार देख


आया है तो जहाँ में मिसाल-ए-शरर देख

दम दे नजये हस्ती-ए-नापायेदार देख


माना के तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं

तू मेरा शौक़ देख मेरा इंतज़ार देख


खोली हैं ज़ौक़-ए-दीद ने आँखें तेरी तो फिर

हर रहगुज़र में नक़्श-ए-कफ़-ए-पाय-ए-यार देख


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गेसू-ए- ताबदार को और भी ताबदार कर

होश-ओ-ख़िराद शिकर कर क़ल्ब-ओ-नज़र शिकर कर


तू है महीत-ए-बेकराँ मैं ज़रा सी आबजू

या मुझे हम-किनार कर या मुझे बे-किनार कर


मैं हूँ सदफ़ तो तेरे हाथ मेरे गौहर की आबरू

मैं हूँ ख़ज़फ़ तो तू मुझे गौहर-ए-शाहवार कर


नग़्मा-ए-नौबहार अगर मेरे नसीब में न हो

इस दम ए नीम सोज़ को ताइराक-ए-बहार कर


इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में

या तू ख़ुद आशकार हो या मुझ को आशकार कर


बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्योँ

कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मेरा इन्तज़ार कर


रोज़-ए-हिसाब जब पेश हो मेरा दफ़्तर-ए-अमल

आप भी शर्मसार हो, मुझ को भी शर्मसार कर


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