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आँसू, सपने, दर्द, उदासी
सब आँखों की प्यास बुझायें
रोज़ पिलाता है तू छक कर,
भर-भर कर प्याले पर प्याला
वाह प्रभु तेरी मधुशाला!
एक सुखद भावी जीवन की
ज़ंजीरों में हम जकड़े हैं,
एक वृत्त में घूम रहे हैं,
नित चल कर भी वहीं खड़े हैं!
हमसे पहले ले जाता है
सब कुछ लम्बे हाथों वाला!
नहीं टूटता, तोड़ रहे वे
अंधकार चट्टानों जैसा,
जिनकी आँखों का आँसू भी
दिखता है मुस्कानों जैसा!
सिर्फ़ लुटेरों के हिस्से में
आया बोतल भरा उजाला!
बंजर उम्मीदें सपनों में
ले आती रेतीले बादल,
कोई अंकुर नहीं फूटता
पाता है विस्तार मरुस्थल!
भरे हुओं को भर डाला, पर
प्यासों को दे दिया निकाला!
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चींखों के अस्थिर तल पर
स्थिर ठहरा है सन्नाटा
कितना गहरा है सन्नाटा!
मैंने हर आक्रोश पिया है
बिना प्यास के पानी जैसा,
घेर रहा है मुझे कुहासा
बीती हुई कहानी जैसा!
मैं अपने को खोज रहा हँू
मुझ पर पहरा है सन्नाटा!
हर मौसम आता है जैसे
कोई शरणागत आता हो,
रोज़ हवा के होठों से यों
लगता, क़ातिल मुस्काता हो!
क्रमशः आँखें खोल रहा है,
बहुत सुनहरा है सन्नाटा!
सूख चुकी अमृत की बूँदें
प्यास बुझाने वाले जल में,
क्षुब्ध चेतना खोजे तृप्ति
सागर के खारे आँचल में!
ऊँघ रहा है तट पर पसरा,
शायद बहरा है सन्नाटा!
कुछ पल को लगता है मानों
जीवन की सच्चाई पा ली,
जैसे सपने की धन-दौलत
जगने पर हो जाये खाली
आजीवन मन के खंडहर पर
ध्वज-सा फहरा है सन्नाटा
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किन्हीं क्षणों में कोई काँटा
हो जाता है जब संन्यासी
सावधान! षड्यंत्र संयासी!
झेलें दुःख की मार निरंतर,
रोज़ व्यवस्था की नदियों में
बहता भ्रष्टाचार निरंतर,
सच्चाई के वृक्ष खड़े हैं
तट पर जड़ें जमाये प्यासी!
रोज़ ग़रीबी मुस्काती है,
भूख पेट की अंतड़ियों में
स्वयं घोंसला बन जाती है,
न भर थका हुआ इक पंछी
रात-रात भर चुगे उदासी!
हम कैसे युग के निर्माता!
चाहे आँसू हों या चीखें
हम पर असर नहीं हो पाता,
हम भीतर से सूख चुके हैं
धरती गीली नहीं ज़रा-सी!
रोज़-रोज़ आपस के झगड़े
कोई सिर की जगह रख गया
क्रूर इरादों वाले जबड़े
दो आँखों की जगह भटकते
अभिषापित सपने वनवासी!
तृप्त नहीं, हम हैं प्यासों में
हम किरणों के पदचापों की
झूठी आहट एहसासों में
जीवित रख कर,गहन तिमिर में
साँसें लेने के अभ्यासी!
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आओ, अपने भद्र मुखौटे
अपने नाखूनों से छीलें
कुछ पल एहसासों के जी लें
जिन फूलों के तन से खुशबू
बहती थी, अब लहु टपकता!
मौसम शिशुवत् रोज़ सुबकता
तन पर रोज़ झपटती चीलें!
हम ख़ुद को लिखते जाते हैं
लेकिन नहीं देखते पढ़ कर,
रोज़ सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ कर
शब्दों की बालें कंदीलें!
अब मैं सपने नहीं देखता,
सच का झूठ पकड़ लेता हूँ
ख़ुद पर रोज़ अकड़ लेता हूँ,
छाती ठुकी देख कर कीलें
श्रद्धा अपना इष्ट खोजती
रोज़ कुहासे में खो जाती,
प्यास और तेज़ हो जाती
देता कुंठित दर्द दलीलें
रोज़ हमारे भीतर उगते
जाने कैसे-कैसे जंगल
हम मरते छुप-छुप कर प्रतिपल,
क्यो नहीं एक बार विष पी लें
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नहीं भूलते फूल
गंध अपनी फैलाना,
नहीं भूलती नदी
निरंतर बहते जाना,
नहीं भूलता सूरज
रोज़ सवेरे उगना,
नहीं भूलता पानी
सबकी प्यास बुझाना!
जाने हम इंसान
भूल जाते हैं कैसे
इंसानों के बीच
बने रहना इंसान!
सोच-सोच कर मैं
अक्सर होता हैरान!
सोच-सोच कर मैं अक्सर होता हैरान!
नहीं लौटते
बचपन और जवानी जैसे,
नहीं लौटता वक़्त
नदी का पानी जैसे,
नहीं लौटते शब्द
जीभ से फिसल गये जो,
नहीं लौटती यादें
बहुत पुरानी जैसे!
हम जाने क्यों
आदिम युग को
लौट रहे हैं,
स्थापित करने को
निज बर्बर पहचान!
सोच-सोच कर मैं
अक्सर होता हैरान!
सोच-सोच कर मैं अक्सर होता हैरान!
😘🙂😍😇🥰🙂😘😚😗😙😘🙂😊😘
रोज़ सवेरा शुरू होता है
प्रतिपल गहराती दहशत से
रोज़ एक आतंकित चिड़िया
उड़ने का विश्वास खोजती
रोज़ हमारे विश्वासों की
हत्या कर जाता हत्यारा
रोज़ लहु बरसा जाता है
उन्मादी मौसम आवारा
टप-टप धूप टपकती जैसे
बच्चों की आँखों से आँसू
रोज़ उजालों के चिथड़ों में
नई सुबह उल्लास खोजती
रोज़ हमारे एहसासों में
पैने पंजे गड़ जाते हैं
नये दौर में रोज़ हमारे
दुष्ट हौसले बढ़ जाते हैं!
रोज़ एक सपना आँखों से
बाहर आ कर दिन बन जाता
रोज़ उदासी अपने भीतर
जीने का एहसास खोजती
अँगारों पर बैठी तितली
रोज़ आग कितना पीती है
रोज़ हवा में फैली ख़ुशबू
छलनी हो कर भी जीती है
रोज़ प्यास से मरता मौसम,
रोज़ प्यास ख़ुशबू हो जाती
रोज़ शरारत करता पानी,
नदिया अपनी प्यास खोजती
मैं जो भी दूँगा वह सब कुछ
लौटा देगा समय एक दिन
थोड़ा-थोड़ा रोज़ जलूँ तो
सूरज होगा उदय एक दिन
रोज़ सफ़र कम हो जाता है,
रोज़ रास्ते बढ़ जाते हैं
रोज़ थकावट-आशावादी
मंज़िल अपने पास खोजती
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जैसे रूई धुनें जुलाहे,
श्रमिक अँधेरों को धुनते हैं
किरणों की चादर बुनते हैं!
एक उम्र के जितनी लम्बी
दुर्घटना बन कर जीते हैं।
सब कुछ पा कर भी रीते हैं।
पंछी बन कर तिनका-तिनका
निज अस्तित्व-बोध चुनते हैं।
अपने सपनों की राहों में
सदियों से बस खड़े हुए हैं
बुत जैसे यों गड़े हुए हैं,
मानों कोई मील का पत्थर!
इतिहासों से यह सुनते हैं!
गहन तिमिर में सज़ा काटते
किसी उजाले के अपराधी,
भुगत रहे हैं निज बरबादी
स्वयं एक दिन विस्फोटित हो
कीट-पतंगों-सा भुनते हैं
🥰😗🥰😗🥰😇😙😗🙃😘🙂🥰🙂😘😘🙂
उठाने के लिए नुक़्सान तू तैयार कितना है
तेरा झुकना बताता है कि तू ख़ुद्दार कितना है
मुकम्मल हो भी सकता हूँ अगर तू फ़ैसला कर ले
मैं जितना हूँ मेरा होना तुझे दरकार कितना है
बहुत मुश्किल में हूँ ख़्वाबों का दरिया पार कैसे हो
न जाने रास्ता आगे भी दरिया पार कितना है
फ़क़त दौलत नज़र-भर प्यार की महफ़ूज़ रखते हैं
तराज़ू पर नहीं हम तोलते कि प्यार कितना है
तू ख़ुद को बेच कर ख़ुद की ख़रीदारी में है माहिर
तुझे मालूम है हक़ में तेरे बाज़ार कितना है
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उदासी के दरख़्तों पर हवा पत्तों पे ठहरी थी
मगर इक रोशनी बच्चों की मुस्कानों पे ठहरी थी
हमें मझधार में फिर से बहा कर ले गया दरिया
हमारे घर की पुख़्ता नींव सैलाबों पे ठहरी थी
ज़रा से ज़लज़ले से टिक नहीं पाये ज़मीं पर हम
हमारी शख़्सियत कमज़़ोर दीवारों पे ठहरी थी
यहाँ ख़ामोशियों ने शोर को बहरा बना डाला
हमारी ज़िन्दगी किन तल्ख़ आवाज़ों पे ठहरी थी
छलक कर चंद बूँदें आ गिरीं ख़्वाबों के दरिया से
कोई तस्वीर भीगी-सी मेरी पलकों पे ठहरी थी
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किसी गुज़रे हुए इक वक़्त का ठहरा हुआ लम्हा
मुझे आवाज़ देता है मेरा खोया हुआ लम्हा
समेटे जा रहा था कब से मैं बिखरी हुई चीज़ें
उड़ा कर ले गया मुझको हवा होता हुआ लम्हा
किनारों की हदें ही तोड़ दीं दरिया के पानी ने
वो मैं ही हूँ उसी सैलाब में बहता हुआ लम्हा
मेरी आँखों की कोरों से निकल कर ख़्वाब में डूबा
सुबक कर सो गया बिस्तर पे इक रक्खा हुआ लम्हा
ख़यालो! छोड़ दो पीछा अकेलेपन की ख़्वाहिश है
मैं जीना चाहता हूँ ख़ुद में इक डूबा हुआ लम्हा
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न जाने क्यों वो दरिया छोड़ कर उस पार जाता है
सराबों की तरफ़ प्यासा हज़ारों बार जाता है
हुई मुश्किल सियासत अब तेरी आगोश में आकर
बचाता हूँ अगर ईमान, कारोबार जाता है
यूँ लगता है मेरे बच्चे बडे़ होने लगे शायद
मेरा ग़ुस्सा असर करता नहीं, बेकार जाता है
यहाँ झुक कर जो निकला है उसी का है सलामत सर
यहाँ से सर उठा कर तो फ़क़त ख़ुद्दार जाता है
इसे मासूमियत या फिर कहूँ चालाकियाँ उसकी
जिता देता है वो मुझको मगर ख़ुद हार जाता है
मेरी कमज़ोरियां उसके लिए ताक़त हुईं साबित
मुझे अपनी अदाओं से वो ज़ालिम मार जाता है
🙂🥰🙂🥰😇🥰🙂🥰🙂😛🙂🥰🙃😘🙂😘🙂
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