Famous Ghazal of Manoj Nagarkar

नमस्कार दोस्तों आप सभी का स्वागत है हमारे पेज "Shayari " में , यहाँ पर हमने आप सभी के लिए मनोज नागरकर  के गज़लों                      के  बहुत ही अच्छे कलेक्शन किए है । आशा करते है  की आप सभी को यह ग़ज़ल पसंद आएँगी । धन्यवाद!!!!



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लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है


उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी

तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है


तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है

कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है


चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है

कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है


हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है

मसायल से घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है


बड़ा गहरा तअल्लुक़ है सियासत से तबाही का

कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है.


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हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते

बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते


हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं

सगी है या कि सौतेली है माँ बच्चे समझते हैं


हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह

मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह


सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे 'राना'

रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते


सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं

हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं


मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है

कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है


मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू

मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना


भेजे गए फ़रिश्ते हमारे बचाव को

जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े


लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती

बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती


तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर

फ़र्श पर सोता हुआ बेटा बहुत अच्छा लगा


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रुख़सती होते ही मां-बाप का घर भूल गयी।

भाई के चेहरों को बहनों की नज़र भूल गयी।


घर को जाती हुई हर राहगुज़र भूल गयी,

मैं वो चिडि़या हूं कि जो अपना शज़र भूल गयी।


मैं तो भारत में मोहब्बत के लिए आयी थी,

कौन कहता है हुकूमत के लिए आयी थी।


नफ़रतों ने मेरे चेहरे का उजाला छीना,

जो मेरे पास था वो चाहने वाला छीना।


सर से बच्चों के मेरे बाप का साया छीना,

मुझसे गिरजा भी लिया, मुझसे शिवाला छीना।


अब ये तक़दीर तो बदली भी नहीं जा सकती,

मैं वो बेवा हूं जो इटली भी नहीं जा सकती।


आग नफ़रत की भला मुझको जलाने से रही,

छोड़कर सबको मुसीबत में तो जाने से रही,


ये सियासत मुझे इस घर से भगाने से रही।

उठके इस मिट्टी से, ये मिट्टी भी तो जाने से रही।


सब मेरे बाग के बुलबुल की तरह लगते हैं,

सारे बच्चे मुझे राहुल की तरह लगते हैं।


अपने घर में ये बहुत देर कहाँ रहती है,

घर वही होता है औरत जहाँ रहती है।


कब किसी घर में सियासत की दुकाँ रहती है,

मेरे दरवाज़े पर लिख दो यहाँ मां रहती है।


हीरे-मोती के मकानों में नहीं जाती है,

मां कभी छोड़कर बच्चों को कहाँ जाती है?


हर दुःखी दिल से मुहब्बत है बहू का जिम्मा,

हर बड़े-बूढ़े से मोहब्बत है बहू का जिम्मा


अपने मंदिर में इबादत है बहू का जिम्मा।

मैं जिस देश आयी थी वही याद रहा,


हो के बेवा भी मुझे अपना पति याद रहा।

मेरे चेहरे की शराफ़त में यहाँ की मिट्टी,


मेरे आंखों की लज़ाजत में यहाँ की मिट्टी।

टूटी-फूटी सी इक औरत में यहाँ की मिट्टी।


कोख में रखके ये मिट्टी इसे धनवान किया,

मैंन प्रियंका और राहुल को भी इंसान किया।


सिख हैं,हिन्दू हैं मुलसमान हैं, ईसाई भी हैं,

ये पड़ोसी भी हमारे हैं, यही भाई भी हैं।


यही पछुवा की हवा भी है, यही पुरवाई भी है,

यहाँ का पानी भी है, पानी पर जमीं काई भी है।


भाई-बहनों से किसी को कभी डर लगता है,

सच बताओ कभी अपनों से भी डर लगता है।


हर इक बहन मुझे अपनी बहन समझती है,

हर इक फूल को तितली चमन समझती है।


हमारे दुःख को ये ख़ाके-वतन समझती है।

मैं आबरु हूँ तुम्हारी, तुम ऐतबार करो,

मुझे बहू नहीं बेटी समझ के प्यार करो।


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जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है

मगर ऐ आंसुओं! तुमने बहुत रुसवा कराया है


चमक यूं ही नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर

अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है


बड़ी मुद्दत पे खायी हैं खुशी से गालियाँ हमने

बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुंह मीठा कराया है


बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी न मेरी आरजू लेकिन

जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है


कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना

किसी ने घर से चलते वक्त ये वादा कराया है


खुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को सियासत से

ये वो औरत है जिसने उम्र भर पेशा कराया है


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इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये

आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिये


आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं

आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिये


ऐरे गैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों

आपको औरत नहीं अखबार होना चाहिये


जिंदगी कब तलक दर दर फिरायेगी हमें

टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिये


अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे

इश्क के हिस्से में भी इतवार होना चाहिये


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सहरा-पसंद हो के सिमटने लगा हूँ मैं

अँदर से लग रहा हूँ कि बँटने लगा हूँ मैं


क्या फिर किसी सफ़र पे निकलना है अब मुझे

दीवारो-दर से क्यों ये लिपटने लगा हूँ मैं


आते हैं जैसे- जैसे बिछड़ने के दिन करीब

लगता है जैसे रेल से कटने लगा हूँ मैं


क्या मुझमें एहतेजाज की ताक़त नहीं रही

पीछे की सिम्त किस लिए हटने लगा हूँ मैं


फिर सारी उम्र चाँद ने रक्खा मेरा ख़याल

एक रोज़ कह दिया था कि घटने लगा हूँ मैं


उसने भी ऐतबार की चादर समेट ली

शायद ज़बान दे के पलटने लगा हूँ मैं


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आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया

मैंने दिये को आँधी की मर्ज़ी पे रख दिया


आओ तुम्हें दिखाते हैं अंजामे-ज़िंदगी

सिक्का ये कह के रेल की पटरी पे रख दिया


फिर भी न दूर हो सकी आँखों से बेवगी

मेंहदी ने सारा ख़ून हथेली पे रख दिया


दुनिया क्या ख़बर इसे कहते हैं शायरी

मैंने शकर के दाने को चींटी पे रख दिया


अंदर की टूट -फूट छिपाने के वास्ते

जलते हुए चराग़ को खिड़की पे रख दिया


घर की ज़रूरतों के लिए अपनी उम्र को

बच्चे ने कारख़ाने की चिमनी पे रख दिया


पिछला निशान जलने का मौजूद था तो फिर

क्यों हमने हाथ जलते अँगीठी पे रख दिया


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इतनी तवील उम्र को जल्दी से काटना

जैसे दवा की पन्नी को कैंची से काटना


छत्ते से छेड़छाड़ की आदत मुझे भी है

सीखा है मैंने शहद की मक्खी से काटना


इन्सान क़त्ल करने के जैसा तो ये भी है

अच्छे-भले शजर को कुल्हाड़ी से काटना


पानी का जाल बुनता है दरिया तो फिर बुने

तैराक जानता है हथेली से काटना


रहता है दिन में रात के होने का इंतज़ार

फिर रात को दवाओं की गोली से काटना


ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको

हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना


मुमकिन है मैं दिखाई पड़ूँ एक दिन तुम्हें

यादों का जाल ऊन की तीली से काटना


इक उम्र तक बज़ुर्गों के पैरों मे बैठकर

पत्थर को मैंने सीखा है पानी से काटना


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पैरों में मिरे दीद-ए-तर बांधे हुए हैं

ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बांधे हुए हैं


हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा

लगता है कोई मेरी नज़र बांधे हुए हैं


बिछड़ेंगे तो मर जायेंगे हम दोनों बिछड़ कर

इक डोर में हमको यही डर बांधे हुए हैं


परवाज़ की ताक़त भी नहीं बाक़ी है लेकिन

सय्याद अभी तक मिरे पर बांधे हुए हैं


आँखें तो उसे घर से निकलने नहीं देतीं

आंसू हैं कि सामाने-सफ़र बांधे हुए हैं


हम हैं कि कभी ज़ब्त का दामन नहीं छोड़ा

दिल है कि धड़कने पर कमर बंधे हुए है


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रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं

हंसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं


इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं

पत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं


बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है

रहते-रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं


सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये, लेकिन इतना ध्यान रहे

सबसे हंसकर मिलने वाले, रुसवा भी हो जाते हैं


अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में

कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं


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जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है

माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है


रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ

रोज़ उंगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है


दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं

सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है


रात भर जागते रहने का सिला है शायद

तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है


एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा

सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है


ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए

कूचा - ए - रेशमो -किमख़्वाब में आ जाती है


दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें

सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है


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मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं

तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं


कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है

कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं


नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में

पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं


अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी

वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं


किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी

किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं


पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से

निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं


जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है

वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं


यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद

हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं


हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है

हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं


हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है

अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं


सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे

दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं


हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं

अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं


गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब

इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं


हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की

किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं


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कई घरों को निगलने के बाद आती है

मदद भी शहर के जलने के बाद आती है


न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में

वही जो दूध उबलने के बाद आती है


नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है

मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है


वो नींद जो तेरी पलकों के ख़्वाब बुनती है

यहाँ तो धूप निकलने के बाद आती है


ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें हैं

कलन्दरी यहाँ पलने के बाद आती है


गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है

ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है


शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है

खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है


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बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है

न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है


यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे

यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है


चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है

मगर वो शख़्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है


बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?

कुएँ में छुप के क्यों आख़िर ये नेकी बैठ जाती है ?


नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है

समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है


सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती

जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है


वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से

सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है


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हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है

इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है


मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो

इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है


ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है

ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है


ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह

दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है


फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में

उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है


बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया

टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है


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हर एक आवाज़ अब उर्दू को फ़रियादी बताती है

यह पगली फिर भी अब तक ख़ुद को शहज़ादी बताती है


कई बातें मुहब्त सबको बुनियादी बताती है

जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है


जहाँ पिछले कई बरसों से काले नाग रहते हैं

वहाँ एक घोंसला चिड़ियों का था दादी बताती है


अभी तक यह इलाक़ा है रवादारी के क़ब्ज़े में

अभी फ़रक़ापरस्ती कम है आबादी बताती है


यहाँ वीरानियों की एक मुद्दत से हुकूमत है

यहाँ से नफ़रतें गुज़री है बरबादी बताती है


लहू कैसे बहाया जाय यह लीडर बताते हैं

लहू का ज़ायक़ा कैसा है यह खादी बताती है


ग़ुलामी ने अभी तक मुल्क का पीछा नहीं छोड़ा

हमें फिर क़ैद होना है ये आज़ादी बताती है


ग़रीबी क्यों हमारे शहर से बाहर नहीं जाती

अमीर-ए-शहर के घर की हर इक शादी बताती है


मैं उन आँखों के मयख़ाने में थोड़ी देर बैठा था

मुझे दुनिया नशे का आज तक आदी बताती है


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मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ

माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ


कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर

ऎसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ


सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें

तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊँ


चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन

क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ


बेसब्र इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं

शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊँ


शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती

मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊँ


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थकी-मांदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं

न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियाँ आराम करती हैं


सुलाकर अपने बच्चे को यही हर माँ समझती है

कि उसकी गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं


किसी दिन ऎ समुन्दर झांक मेरे दिल के सहरा में

न जाने कितनी ही तहदारियाँ आराम करती हैं


अभी तक दिल में रोशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू

अभी इस राख में चिन्गारियाँ आराम करती हैं


कहां रंगों की आमेज़िश की ज़हमत आप करते हैं

लहू से खेलिये पिचकारियाँ आराम करती हैं


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नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


मुलाक़ातों पे हँसते, बोलते हैं, मुस्कराते हैं

तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात-दिन दोनों

मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल ने

वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


मेरा दुश्मन मुझे तकता है, मैं दुश्मन को तकता हूँ

कि हायल राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है

मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं


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गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं

अभी मस्ज़िद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं


अभी रोशन हैं चाहत के दीये हम सबकी आँखों में

बुझाने के लिये पागल हवाएँ रोज़ आती हैं


कोई मरता नहीं है, हाँ मगर सब टूट जाते हैं

हमारे शहर में ऎसी वबाएँ रोज़ आती हैं


अभी दुनिया की चाहत ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा

अभी मुझको बुलाने दाश्ताएँ रोज़ आती हैं


ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डाला

मगर उम्मीद की ठंडी हवाएँ रोज़ आती हैं


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