Famous Ghazal of Mohammad Rafi

मोहम्मद रफ़ी (24 दिसंबर 1924 - 31 जुलाई 1980) एक भारतीय फ़िल्म पार्श्व गायक थे।उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे महान और सबसे प्रभावशाली गायकों में से एक माना जाता है। रफी अपनी बहुमुखी प्रतिभा और आवाज की सीमा के लिए उल्लेखनीय थे| उनके गीतों में तेज पेप्पी नंबर से लेकर देशभक्ति के गाने, सैड नंबर से लेकर बेहद रोमांटिक गाने, कव्वालियों से लेकर ग़ज़ल और भजन से लेकर शास्त्रीय गीतों तक शामिल थे। वह फिल्म में स्क्रीन पर गाने को लिप-सिंक करने वाले अभिनेता के व्यक्तित्व और शैली में अपनी आवाज को ढालने की क्षमता के लिए जाने जाते थे।उन्हें चार फिल्मफेयर पुरस्कार और एक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। 1967 में, उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 2001 में, रफ़ी को हीरो होंडा और स्टारडस्ट पत्रिका द्वारा "मिलेनियम के सर्वश्रेष्ठ गायक" के खिताब से सम्मानित किया गया था। 2013 में, CNN-IBN के सर्वेक्षण में रफ़ी को हिंदी सिनेमा की महानतम आवाज़ के लिए वोट दिया गया था।

उन्होंने एक हजार से अधिक हिंदी फिल्मों के लिए गाने रिकॉर्ड किए और कई भारतीय  भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में भी गाने गाए, हालांकि मुख्य रूप से उर्दू और पंजाबी में, जिस पर उनकी मजबूत पकड़ थी। उन्होंने कई भाषाओं में 7,405 गाने रिकॉर्ड किए। उन्होंने कई भारतीय भाषाओं - कोंकणी, असमिया, भोजपुरी, उड़िया, पंजाबी, बंगाली, मराठी, सिंधी, कन्नड़, गुजराती, तमिल, तेलुगु, मगही, मैथिली आदि में गाया। भारतीय भाषाओं के अलावा, उन्होंने कई विदेशी भाषाओं में भी गाने गाए। , अंग्रेजी, फ़ारसी या फ़ारसी, अरबी, सिंहल, क्रियोल और डच सहित।



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नसीम है तेरे कूचे में और सबा भी है

हमारी ख़ाक से देखो तो कुछ रहा भी है


तेरा ग़ुरूर मेरा इज्ज़त कुजा ज़ालिम

हर एक बात की आख़िर कुछ इंतिहा भी है


जले है शम्मा से परवाना और मैं तुझ से

कहीं है मेहर भी जग में कहीं वफ़ा भी है


ख़याल अपने में गो हूँ तराना-संजाँ मस्त

कराहने के दिलों को कभी सुना भी है


ज़बान-ए-शिकवा सिवा अब ज़माने में हैहात

कोई किसू से बहम दीगर आशना भी है


सितम रवा है असीरों पे इस क़दर सय्याद

चमन चमन कहीं बुलबुल की अब नवा भी है


समझ के रखियो क़दम ख़ार-ए-दश्म पर मजनूँ

कि इस नवाह में 'सौदा' बरहना-पा भी है


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नासेह को जेब सीने से फु़र्सत कभू न हो

दिल यार से फटे तो किसी से रफ़ू न हो


इस दिल को दे के लूँ दो जहाँ ये कभू न हो

सौदा तो होवे तब ये कि जब उस में तू न हो


आईना-ए-वजूद अदम में अगर तेरा

वो दरमियाँ न हो तो कहीं हम को रू न हो


झगड़ा तो हुस्न ओ इश्क़ का चुकता है पल के बीच

गर महकमे में क़ाज़ी के तू रू-ब-रू न हो


क़तरे की खुल गई है गिरह वरना ऐ नसीम

शोर-ए-दिमाग़ मुर्ग़-ए-चमन गुल की बू न हो


गुज़रे सो गुज़रे अहल-ए-ज़मीं ऊपर ऐ फ़लक

आइंदा याँ तलक तो कोई ख़ूब-रू न हो


दिल ले के तुझ से बर्क़ के शोले को दीजिए

पर है ये डर कि उस की भी ऐसी ही ख़ू न हो


गुल की न तुख़्म मुर्ग़-ए-चमन कर सके तलाश

हम ख़ाम-फ़ितरतों से तेरी जुस्तुजू न हो


'सौदा' बदल के क़ाफ़िया तू इस ग़ज़ल को कह

ऐ बे-अदब तू दर्द से बस दू-ब-दू न हो


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मक़दूर नहीं उस की तजल्ली के बयाँ का

जूँ शम्मा सरापा हो अगर सर्फ़ ज़बाँ का


पर्दे को तअय्युन के दर-ए-दिल से उठा दे

खुलता है अभी पल में तिलिस्मात जहाँ का


टुक देख सनम-ख़ाना-ए-इश्क़ आन के ऐ शैख़

जूँ शम्मा-ए-हरम रंग झलकता है बुताँ का


इस गुलशन-ए-हस्ती में अजब दीद है लेकिन

जब चश्म खुली गुल की तो मौसम है ख़िज़ाँ का


दिखलाइए ले जा के तुझे मिस्र का बाज़ार

लेकिन नहीं ख़्वाहाँ कोई वाँ जिंस-ए-गिराँ का


हस्ती से अदम तक नफ़स-ए-चंद की है राह

दुनिया से गुज़रना सफ़र ऐसा है कहाँ का


'सौदा' जो कभू गोश से हिम्मत के सुने तो

मज़मून यही है जरस-ए-दिल की फ़ुगाँ का


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जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे

तब मैं ने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे


दो दिन में हम तो रीझे ऐ वाए हाल उन का

गुज़रे हैं जिन के दिल को याँ माह ओ साल बाँधे


तार-ए-निगाह में उस के क्यूँकर फँसे न ये दिल

आँखों ने जिस के लाखों वहशी ग़ज़ाल बाँधे


जो कुछ रंग उस का सो है नज़र में अपनी

गो जामा ज़र्द पहने या चेरा लाल बाँधे


तेरे ही सामने कुछ बहके है मेरा नाला

वरना निशाने हम ने मारे हैं बाल बाँधे


बोसे की तो है ख़्वाहिश पर कहिए क्यूँके उस से

जिस का मिज़ाज लब पर हर्फ़-ए-सवाल बाँधे


मारोगे किस को जी से किस पर कमर कसी है

फिरते हो क्यूँ प्यारे तलवार ढाल बाँधे


दो-चार शेर आगे उस के पढ़े तो बोला

मज़मूँ ये तू ने अपने क्या हस्ब-ए-हाल बाँधे


'सौदा' जो उन ने बाँधा ज़ुल्फों में दिल सज़ा है

शेरों में उस के तू ने क्यूँ ख़त्त-ओ-ख़ाल बाँधे


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हिंदू हैं बुत-परस्त मुसलमाँ ख़ुदा-परस्त

पूजूँ मैं उस किसी को जो हो आशना-परस्त


इस दौर में गई है मुरव्वत की आँख फूट

मादूम है जहान से चश्म-ए-हया-परस्त


देखा है जब से रंग-ए-कफ़क तेरे पाँव में

आतिश को छोड़ गब्र हुए हैं हिना-परस्त


चाहे कि अक्स-ए-दोस्त रहे तुझ में जलवा-गर

आईना-दार दिल को रख अपने सफ़ा-परस्त


आवारगी से ख़ुश हूँ मैं इतना कि बाद-ए-मर्ग

हर ज़र्रा मेरी ख़ाक का होगा हवा-परस्त


ख़ाक-ए-फ़ना को ताकि परस्तिश तू कर सके

जूँ ख़िज्र-ए-मस्त खाइयो आब-ए-बक़ा-परस्त


'सौदा' से शख़्स के तईं आज़ुर्दा कीजिए

ऐ ख़ुद-परस्त हैफ़ नहीं तू हवा-परस्त


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हर संग में शरार है तेरे ज़हूर का

मूसा नहीं कि सैर करूँ कोह-ए-तूर का


पढ़िए दुरूद हुस्न-ए-सबीह-ओ-मलीह पर

जलवा हर एक पर है मोहम्मद के नूर का


तोडूँ ये आइना कि हम-आग़ोश-ए-अक्स है

होवे न मुज को पास जो तेरे हुज़ुर का


बे-कस कोई मरे तो जले उस पे दिल मेरा

गोया है ये चराग़ ग़रीबाँ की गोर का


हम तो क़फ़स में आन के ख़ामोश हो रहे

ऐ हम-सफ़ीर फ़ाएदा ना-हक़ के शोर का


साक़ी से कह कि है शब-ए-महताब जलवा-गर

दे बस्मा-पोश हो के तू साग़र बिलोर का


'सौदा' कभी न मानियो वाइज़ की गुफ़्तुगू

आवाज़-ए-दुहुल है ख़ुश-आइंद दूर का


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गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी

ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी


क्या ज़िद है मेरे साथ ख़ुदा जाने वगरना

काफ़ी है तसल्ली को मेरी एक नज़र भी


ऐ अब्र क़सम है तुझे रोने की हमारे

तुझ चश्म से टपका है कभू लख़्त-ए-जिगर भी


ऐ नाला सद अफ़सोस जवाँ मरने पे तेरे

पाया न तनिक देखने तीं रू-ए-असर भी


किस हस्ती-ए-मौहूम पे नाज़ाँ है तू ऐ यार

कुछ अपने शब ओ रोज़ की है तुज को ख़बर भी


तन्हा तेरे मातम में नहीं शाम-ए-सियह-पोश

रहता है सदा चाक गिरेबान-ए-सहर भी


'सौदा' तेरी फ़रीयाद से आँखों में कटी रात

आई है सहर होने को टुक तू कहीं मर भी


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गर तुझ में है वफ़ा तो जफ़ा-कार कौन है

दिल-दार तू हुआ तो दिल-आज़ार कौन है


नालाँ हूँ मुद्दतों से तेरे साए के तले

पूछा न ये कभू पस-ए-दीवार कौन है


हर शब शराब-ख़्वार हर इक दिन सियाह है

आशुफ़्ता ज़ुल्फ़ ओ लटपटी दस्तार कौन है


हर आन देखता हूँ मैं अपने सनम को शैख़

तेरे ख़ुदा का तालिब-ए-दीदार कौन है


'सौदा' को जुर्म-ए-इश्क़ से करते हैं आज क़त्ल

पहचानता है तू ये गुनह-गार कौन है


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दिल-दार उस को ख़्वाह दिल-आज़ार कुछ कहो

सुनता नहीं किसू की मेरा यार कुछ कहो


ग़म्ज़ा अदा निगाह तबस्सुम है दिल को मोल

तुम भी अगर हो उस के ख़रीदार कुछ कहो


शीरीं ने कोह-कन से मंगाई थी जू-ए-शीर

गर इम्तिहाँ है उस से भी दुश्वार कुछ कहो


हर आन आ मुझी को सताते हो नासेहो

समझा के तुम उसे भी तो यक-बार कुछ कहो


ऐ साकिनान-ए-कुंज-ए-कफ़स सुब्ह को सबा

सुनते हैं जाएगी सू-ए-गुलज़ार कुछ कहो


आलम की गुफ़्तुगू से तो आती है बू-ए-ख़ूँ

बंदा है इक निगह का गुनह-गार कुछ कहो


'सौदा' मुवाफ़क़त का सबब जानता है यार

समझे मुख़ालिफ़ उस को कुछ अग़्यार कुछ कहो


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बे-चैन जो रखती हैं तुम्हें चाह किसू की

शायद कि हुई कार-गर अब आह किसू की


उस चश्म का ग़म्ज़ा जो करे क़त्ल-ए-दो-आलम

गोशे को निगह के नहीं परवाह किसू की


ज़ुल्फ़ों की सियाही में कुछ इक दाम थे अपने

क़िस्मत कि हुई रात वो तनख़्वाह किसू की


क्या मसरफ़-ए-बेजा से फ़लक को है सरोकार

वो शय किसू को दे जो हो दिल-ख़्वाह किसू की


दुनिया से गुज़रना ही अजब कुछ है कि जिस में

कोई न कभू रोक सके राह किसू की


छीने से ग़म-ए-इश्क़ शकेबाई ओ आराम

ऐ दिल ये पड़ी लुटती है बुंगाह किसू की


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बरहमन बुत-कदे के शैख़ बैतुल्लाह के सदक़े

कहें हैं जिस को 'सौदा' वो दिल-ए-आगाह के सदक़े


जता दें जिस जगह हम क़द्र अपनी ना-तवानी की

अगर कोहसार वाँ होवे तो जावे काह के सदक़े


न दे तकलीफ़ जलने की किसू के दिल को मेरे पर

असर से दूर रहती हैं मैं अपनी आह के सदक़े


अजाइब शुग़्ल में थे रात तुम ऐ शैख़ रहमत है

मैं इस रीश-ए-बुलंद और दामन-ए-कोताह के सदक़े


नहीं बे-वजह कूचे से तेरे उठना बगूले का

हमारी ख़ाक भी जाती है तेरी राह के सदक़े


कभू वो शब भी ऐ परवाना हक़ बाहम दिखावेगा

तू बल बल शम्मा पर जावे मैं हूँ उस माह के सदक़े


दिखाती है तुझे किस तरह 'सौदा' की नज़रों में

जो हो इंसाफ़ तो जावे तू उस की चाह के सदक़े


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अपने का है गुनाह बे-गाने ने क्या किया

इस दिल को क्या कहूँ कि दिवाने ने क्या किया


याँ तक सताना मुज को कि रो रो कहे तू हाए

यारो न तुम सुना के फ़ुलाने ने क्या किया


पर्दा तो राज़-ए-इश्क़ से ऐ यार उठ चुका

बे-सूद हम से मुँह के छुपाने ने क्या किया


आँखों की रह-बरी ने कहूँ क्या कि दिल के साथ

कूचे की उस के राह बताने ने क्या किया


काम आई कोह-कन की मशक़्क़त न इश्क़ में

पत्थर से जू-ए-शीर के लाने ने क्या किया


टुक दर तक अपने आ मेरे नासेह का हाल देख

मैं तो दिवाना था पे सियाने ने क्या किया


चाहूँ मैं किस तरह ये ज़माने की दोस्ती

औरों से दोस्त हो के ज़माने ने क्या किया


कहता था मैं गले का तेरे हो पड़ूँगा हार

देखा न गुल को सर पे चढ़ाने ने क्या किया


'सौदा' है बे-तरह का नशा जाम-ए-इश्क़ में

देखा कि उस को मुँह के लगाने ने क्या किया


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ऐ आह तेरी क़द्र असर ने तो न जानी

गो तुज को लक़ब हम ने दिया अर्श-मकानी


यक ख़ल्क़ की नज़रों में सुबुक हो गया लेकिन

करता हूँ मैं अब तक तेरी ख़ातिर पे गिरानी


टुक दीदा-ए-तहक़ीक़ से तू देख ज़ुलेख़ा

हर चाह में आता है नज़र युसूफ़-ए-सानी


मामूर है जिस रोज़ से वीराना-ए-दुनिया

हर जिंस के इंसाँ की ये माटी गई छानी


इस वामिक़-ए-नौ का है समझ चाक गिरेबाँ

करती है जो रख़्ना कोई दीवार पुरानी


बुलबुल ही सिसकती न थी कुछ बाग़ में तुझ बिन

शबनम गुलों के मुँह में चुवाती रही पानी


है गोश-ज़दा ख़ल्क़ मेरा क़िस्सा-ए-जाँ-काह

जब से कि न समझे था तू चिड़िया की कहानी


जूँ शम्मा तुझे शर्म है ज़ुन्नार की ऐ शैख़

माला न जपूँ रात को बे-अश्क़-फ़शानी


जिस सम्त नज़र मौज़-ए-सराब आवे तो ये जान

होवेगी किसी ज़ुल्फ़-ए-चलीपा की निशानी


क्या क्या मिले लैला-मनशाँ ख़ाक में 'सौदा'

गो अपने भी महबूब की देखी न जवानी


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यूँ देख मेरे दीदा-ए-पुर-आब की गर्दिश

दरिया में हो जिस तरह से गिर्दाब की गर्दिश


मरता हूँ तेरे वास्ते रोता हूँ ज़िबस यार

है सैल मेरी चश्म में गिर्दाब की गर्दिश


फिर जाती हैं इस तरह से इक पल में वो अंखियाँ

जूँ बज़्म में हो जाम-ए-मय-ए-नाब की गर्दिश


अज़-बस के है आँखों में ख़ुमार उस घड़ी साक़ी

मय माँगे है तुझ से जो हर अहबाब की गर्दिश


गो ख़ाक हुआ तो भी फिरा बन के बगूला

हो कर न गई आशिक़-ए-बेताब की गर्दिश


जिंस-ए-खिरद-ओ-सब्र बिन इस दिल को हो क्या चैन

मुफ़लिस को बुरी होती है अस्बाब की गर्दिश


दिल ज़ुल्फ़-ओ-रूख़-ए-यार में 'सौदा' न फिरे क्यूँ

ख़ुश आए है उस को शब-ए-महताब की गर्दिश


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या रब कहीं से गर्मी-ए-बाज़ार भेज दे

दिल बेचता हूँ कोई ख़रीदार भेज दे,


अपनी बिसात में तो यही दिल है मेरी जाँ

लेता नहीं तो क्या करूँ ऐ यार भेज दे


दावा जो बरशिगाल को आँखों से है मेरी

ऐसा कोई जो अब्र-ए-गुहर-बार भेज दे


देते हैं अक़्द-ए-हुस्न में आशिक़ उरूस-ए-जाँ

आता नहीं जो आप तो तलवार भेज दे


'सौदा' से ग़म-गुसार का था दिल ये तीं लिया

उस के इवज़ भला कोई ग़म-ख़्वार भेज दे


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