नमस्कार दोस्तों ,आशा करतें हैं की आप सभी सकुशल होंगे ,आज हम आप सभी के लिए Ravishankar Shrivastav के कुछ बहुत ही अच्छे Gahzals के collections किए हैं ,आशा करते हैं की आप सभी को ये ग़ज़ल पसंद आएंगी । धन्यावाद!!
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मेरे लिए तो नहीं, गुनगुनी धूप है
फिर किस लिए गुनगुनी धूप है
चाय के कप, बूट पॉलिश के ब्रश
कहीं और निकलती गुनगुनी धूप है
फटे पल्लू में पुँछे कैसे पसीना
और पसरती हुई गुनगुनी धूप है
एसी और हीटर के इस दौर में
शर्म खा गई वो गुनगुनी धूप है
शहर की अट्टालिकाओं में रवि
कबसे गुम चुकी गुनगुनी धूप है
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लौट के क्यों वसंत आया लगता है
वही फिक्र ले वसंत आया लगता है
इस जमीं का पतझड़ गया ही नहीं
कोई ख्वाब में वसंत आया लगता है
भोंपू, भाषण, रैलियाँ, आम सभाएँ
वो पाँच साला वसंत आया लगता है
नयी हवा नहीं न नए कायदे हुए
ये बे फ़जूल वसंत आया लगता है
मंदिर मस्जिद हिंदू मुस्लिम फसाद
वक्त बे-वक्त वसंत आया लगता है
ठंड से न भूख से मौत की खबर थी
क्या सचमुच वसंत आया लगता है
ज़र्द पत्ते छाएँ हैं गुलों के मौसम में
इलाही, नया वसंत आया लगता है
बुझे चेहरों की शमा फिर जली रवि,
ये बे-मौसम वसंत आया लगता है
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एमपी, एमएलए बनाओ तो कोई बात बने
मंत्री, महोदय पुकारो तो कोई बात बने
चोर लुटेरा न पुकारो मुझे मेरे वोटरों
मुझे चुन के दिखाओ तो कोई बात बने
औरों के भाषण पिए जा रहे हो कबसे
थोड़ा मुझको भी सुनलो तो कोई बात बने
जमाने से दूसरों को वोट फेंकने वालो
अबकी मुझको जिताओ तो कोई बात बने
कुर्सी के लिए सूख के खार हो गए
कोई पद प्रतिष्ठा दिलाओ तो कोई बात बने
पार्टी पब्लिक को फिर कौन पूछे रवि
हमें चुन के बिठाओ तो कोई बात बने
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प्रिये, है ये प्रेम, नहीं है झगड़ा
आओ यूँ सुलझाएँ अपना रगड़ा
जिंदगानी के चंद चार क्षणों में
ऊपर नीचे होते रहना है पलड़ा
करम धरम तो दिखेंगे सबको
चाहे जित्ता डालो उस पे कपड़ा
जब खत्म होगी सुखद होगी
यूँ पीड़ा को रखा हुआ है पकड़ा
जिया है जिंदगी को बहुत रवि
मौत कैसी है ये असली पचड़ा
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कुछ करुँ या न करुँ कि सरकार मेरी है
मैं देता नहीं जवाब कि सरकार मेरी है
अपने बन्धुओं में ही किया है वितरण
है खरा समाजवाद कि सरकार मेरी है
मांगता रहा हूँ वोट छांट बीन तो क्या
मैं पूर्ण सेकुलरवादी कि सरकार मेरी है
रहे मेरी ही सरकार या मेरे कुनबों की
मैंने किए हैं जतन कि सरकार मेरी है
मुल्क की सोचेगा तो रवि कैसे कहेगा
मैं ही तो हूँ सरकार कि सरकार मेरी है
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खुद पर नहीं अपना मालिकाना हक है
जताने चले जग में मालिकाना हक है
लोग कहते हैं ये मुल्क है तेरा अपना
बेघर तेरा बेहतरीन मालिकाना हक है
यहाँ खूब झगड़ लिए राम रहीम ईसा
वहाँ नहीं किसी का मालिकाना हक है
दिलों में दूरियाँ तब से और बढ़ गईँ
जब से प्रकट किया मालिकाना हक है
ले फिरे है अपनी रूह बाज़ारों में रवि
मोटे असामी का ही मालिकाना हक है
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सभी को चाहिए अनुभाग मलाईदार
कुर्सी टूटी फूटी हो पर हो मलाईदार
अब तो जीवन के बदल गए सब फंडे
कपड़ा चाहे फटा हो खाइए मलाईदार
अपना खाना भले हज़म नहीं होता हो
दूसरी थाली सब को लगती मलाईदार
जारी है सात पुश्तों के मोक्ष का प्रयास
कभी तो मिलेगा कोई विभाग मलाईदार
जब संत बना रवि तो चीज़ें हुईं उलटी
भूखे को भगाते अब स्वागत मलाईदार
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नहीं कयास कहाँ कहाँ हैं मिलावटें
मुस्कराहटों में मिलती हैं मिलावटें
उनकी हकीकतों का हो क्या गुमाँ
चाल में उनने भर ली हैं मिलावटें
कोई और शख़्स था वो मेरा दोस्त
ढूंढे से भी नहीं मिलती हैं मिलावटें
अपना भ्रम अब टूटे तो किस तरह
असल की पहचान बनी हैं मिलावटें
आसान हो गया है रवि का जीवन
अब अपनाई उसने भी हैं मिलावटें
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बढ़ती जा रही हैं मुश्किलों पे मुश्किल
इस दौर में बेदाग बने रहना मुश्किल
तमाम परिभाषाएँ बदल गईं इन दिनों
दाग को अब दाग कहना है मुश्किल
गर्व अभिमान की ही तो बातें हैं दाग
जाने क्यों कबीर को हुई थी मुश्किल
दागों को मिटा सकते हैं बड़े दागों से
दाग मिटाना अब कोई नहीं मुश्किल
रवि ने जब लगाए खुद अपने पे दाग
जीना सरल हुआ उसका बड़ा मुश्किल
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अंतत: बन ही गया वो बेशरम
नाम कमाने लगा है वो बेशरम
सिंहासन पर बैठ कर त्याग के
सब को प्रवचन देता वो बेशरम
पाँच वर्षों में ढेरों तब्दीलियों के
सब्ज बाग़ दिखाता वो बेशरम
अरसे से टूटा नहीं अमन चैन
किस खयाल में है वो बेशरम
फटे कपड़े पहन रखे हैं रवि ने
नए फैशन में बना वो बेशरम
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फिर किस लिए ये क़ानून हैं
शायद मेरे लिए ही क़ानून हैं
बने हैं सरे राह मंदिर मस्जिद
जहां चलने के भी क़ानून हैं
खुदा के बन्दों ने छीनी वाणी
बोलने न बोलने के क़ानून हैं
मंज़िल की आस फ़ज़ूल है यहाँ
हर कदम क़ानून ही क़ानून हैं
कैद में है रवि, दोषी स्वतंत्र हैं
कैसा ये देश है कैसे क़ानून हैं
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सब सुनाने में लगे हैं अपनी अपनी ग़ज़ल
क्यों कोई सुनता नहीं मेरी अपनी ग़ज़ल
रंग रंग़ीली दुनिया में कोई ये बताए हमें
रंग सियाह में क्यों पुती है अपनी ग़ज़ल
छिल जाएंगी उँगलियाँ और फूट जाएंगे माथे
इस बेदर्द दुनिया में मत कह अपनी ग़ज़ल
मज़ाहिया नज़्मों का ये दौर नया है यारो
कोई पूछता नहीं आँसुओं भरी अपनी ग़ज़ल
जो मालूम है लोग ठठ्ठा करेंगे ही हर हाल
मूर्ख रवि फ़िर भी कहता है अपनी ग़ज़ल
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मैं अपनी आस्थाएँ लिए रह गया
जंग ज़ारी थी मैं बैठा रह गया
आवरण तोड़ना तो था पर क्यों
लोग चल दिए मैं पीछे रह गया
करना था बहुत कुछ नया नया
भीड़ में मैं भी सोचता रह गया
ख़ुदा ने तो दी थी बुद्धि बख़ूब
क्यों औरों की टीपता रह गया
इस तक़नीकी ज़माने में रवि
पुराणपंथी बना देखो रह गया
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इस भारत का क्या हाल हो रहा ज़रा देखिए
नेता अफ़सर माला माल हो रहा ज़रा देखिए
दक्षिण सूखा, पश्चिम सूखा पूरब की क्या बात
उत्तर बाढ़ से बुरा हाल हो रहा ज़रा देखिए
जिसने सीटी बजाई, व्यवस्था की बातें की
होना क्या है, वह काल हो रहा ज़रा देखिए
कुरसी के खेल में तोड़ डाले सब नियम
ये देश तो मकड़ जाल हो रहा ज़रा देखिए
प्रगति, विकास के नारे, समाज़वाद साम्यवाद
ऐसा पाखंड सालों साल हो रहा ज़रा देखिए
सभी लगे हैं झोली अपनी जैसे भी भरने में
मूर्ख अकेला रवि लाल हो रहा ज़रा देखिए
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देश और समाज को देखूं क्या मज़ाक है
दो वक्त़ की रोटी नहीं ये कोई मज़ाक है
हौसले ले के तो पैदा हुआ था बहुत मगर
खड़े होने को जगह नहीं कैसा मज़ाक है
तमन्ना तो रही थी तुलसी कब़ीर बनने की
दाऊद, राजन जमाने का भीषण मज़ाक है
शाम से भूखे और सुबह आपका ये दावा
लाओगे कुल्हड़ में तूफ़ान बढ़िया मज़ाक है
असम, बिहार में बाढ़ और दिल्ली में गरमी
कभी तो बदले सिलसिला अच्छा मज़ाक है
देखे है रवि अपने भविष्य के सुनहरे सपने
लगता है किया किसी ने तुच्छ मज़ाक है
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ज़ुर्म तेरी सज़ा मेरी क्या यह न्याय है
दशकों बाद मिले तो क्या यह न्याय है
तहरीर आपकी और फ़ैसला भी आपका
सुना तो रहे हो पर क्या यह न्याय है
तूने अपने लिए गढ़ ली राह गुलों की
काँटों पर हम चलें क्या यह न्याय है
सुनी थीं उनकी तमाम तहरीरें दलीलें
फ़ैसले पे सब हँसे क्या यह न्याय है
मत डूबो रवि अपनी जीत के जश्न में
सब कहते फ़िर रहे क्या यह न्याय है
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ये उम्र और तारे तोड़ लाने की ख्वाहिशें
व्यवस्था ऐसी और परिवर्तन की ख्वाहिशें
आदिम सोच की जंजीरों में जकड़े लोग
और जमाने के साथ दौड़ने की ख्वाहिशें
तंगहाल घरों के लिए कोई विचार है नहीं
कमाल की हैं स्वर्णिम संसार की ख्वाहिशें
कठिन दौर है ये नून तेल और लकड़ी का
भूलना होगा अपनी मुहब्बतों की ख्वाहिशें
जला देंगे तुझे भी दंगों में एक दिन रवि
फ़िर पालता क्यूँ है भाई-चारे की ख्वाहिशें
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लहरें गिनने में सुनी संभावनाएँ हैं
ख़ून के रिश्तों ढूंढी संभावनाएँ हैं
जब से छोड़ा है ईमान का दामन
मिलीं संभावनाएँ ही संभावनाएँ हैं
माँ तेरे दूध में भी अब तेरे बच्चे
तलाश लेते ढेर सी संभावनाएँ हैं
मेरी हयात का ये नया रंग कैसा
कैसे तो दिन कैसी संभावनाएँ हैं
अब कोई और ठिकाना देख रवि
चुक गई यहाँ सारी संभावनाएँ हैं
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अपने अपने हिस्से काट लीजिए
अपनों को पहले जरा छाँट लीजिए
हाथ में आया है सरकारी ख़जाना
दोस्तों में आराम से बाँट लीजिए
प्याले भ्रष्टाचार के मीठे हैं बहुत
पीजिए साथ व दूरियाँ पाट लीजिए
सभी ने देखी हैं अपनी संभावनाएँ
फिर आप भी क्यों न बाँट लीजिए
सार ये बचा है रवि कि देश को
काट सको जितना काट लीजिए
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