प्रोफेसर मुजफ्फर हनफी उर्दू के जाने-माने कवि, लेखक और आलोचक हैं। पिछले पांच दशकों के दौरान उन्होंने आधुनिक कविता, लघु कथाएँ, व्यंग्य, आलोचना, शोध, बाल साहित्यऔर अनुवाद पर बहुमूल्य साहित्य का निर्माण किया है। प्रोफेसर हनफी ने खुद को उर्दू कविता और साहित्य के लिए समर्पित कर दिया है और 80 पुस्तकों का निर्माण किया है। मुजफ्फर हनफी का जन्म 1 अप्रैल 1936 को भारत में खंडवा (मध्य प्रदेश) में हुआ था लेकिन उनका जन्म स्थान यूपी में हसवा फतेहपुर है। उन्होंने भोपाल के अलीगढ़ और बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय से बीए, एमए, एलएलबी और पीएच.डी किया है।
प्रोफेसर हनफी ने 14 साल की उम्र में कविता लिखना शुरू कर दिया था। तब से वे लगातार बिना किसी रुकावट के लिख रहे हैं। पिछले पचास वर्षों में उन्होंने 1700 से अधिक ग़ज़लें कही हैं और अपनी अनूठी आधुनिक शैली को बनाए रखा है और उनकी कविताएँ दुनिया भर में विभिन्न उर्दू पत्रिकाओं में व्यापक रूप से प्रकाशित हुई हैं। वह नियमित रूप से पूरे भारत के साथ-साथ देश के बाहर भी कविता कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। उन्हें अक्सर भारत के विभिन्न राज्यों में सेमिनार और मुशायरों की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया है। विश्वविद्यालय उनके ज्ञान और विशेषज्ञता को महत्व देते हैं और उन्हें पीएचडी छात्रों के साथ-साथ चयन पैनल में विवा लेने के लिए आमंत्रित करते हैं। उनके मार्गदर्शन और देखरेख में कई छात्रों ने P.H.D पूरा किया है। उन्होंने अपने क्रेडिट में 200 से अधिक लघु कथाएँ और 500 से अधिक लेख भी लिखे हैं। 1959 में उन्होंने भारत में पहली आधुनिक उर्दू साहित्य मासिक पत्रिका नई चिराग (आधुनिक उर्दू) प्रकाशित की, जिसमें से अठारह मुद्दों को वरिष्ठ लेखकों द्वारा सराहा गया। इस पत्रिका द्वारा कई जदीद / आधुनिक कवियों और लेखकों को पेश किया गया। शबखुन 4 साल बाद शुरू हुआ फिर नए चिराग। मुजफ्फर हनफी की पहली किताब पनई की जुबान' को भारत में आधुनिक काव्य पुस्तक का अग्रदूत माना जाता है
प्रोफेसर हनफी ने अपने करियर की शुरुआत मध्य प्रदेश के वन विभाग से की थी। वह 1974 में दिल्ली आए और सहायक उत्पादन अधिकारी के रूप में NCERT (राष्ट्रीय शिक्षा और प्रशिक्षण परिषद) में शामिल हो गए। वह 1976 में जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली में लेक्चरर बने। 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें आमंत्रित किया और इकबाल चेयर प्रोफेसर नामक एक प्रतिष्ठित पद की पेशकश की। इकबाल कुर्सी 1977 में कोलकाता विश्वविद्यालय में स्थापित की गई थी और पहली बार फैज अहमद फैज को पेश की गई थी। वह इसमें शामिल होने के इच्छुक थे लेकिन नियुक्ति में कुछ देरी के कारण वे लोटस के मुख्य संपादक बन गए और बेरूत चले गए। इकबाल की कुर्सी कम से कम 12 साल से खाली थी और प्रोफेसर मुजफ्फर हनफी को इस पद पर पहली बार 1989 में नियुक्त किया गया था। वह 2001 में इकबाल चेयर प्रोफेसर से सेवानिवृत्त हुए थे और वापस दिल्ली चले गए थे। जहां उन्होंने खुद को कविता और साहित्य के लिए समर्पित कर दिया है।
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फिर बर्फ़ की चोटी से उगी आग मिरे भाई
ज़ंजीर हिलाती है हवा जाग मिरे भाई
फ़िरदौस की तख़लीक में उलझे हैं मिरे हाथ
लिपटा है मिरे जिस्म से इक नाग मिरे भाई
पर्छाइयाँ दम साधे हुए रेंग रही थीं
गिरते हुए पत्तों ने कहा भाग मिरे भाई
फ़ुर्सत ही किसे है सुने प्यार के नग़्मात
तूने भी कहाँ छेड़ दिया राग मिरे भाई
आ और क़रीब और क़रीब और क़रीब आ
बाक़ी न रहे और कोई लाग मिरे भाई
कहते हैं दरे -तौबा अभी बन्द नहीं है
इस बात पे बोतल से ड़े काग मिरे भाई
कल तक तो 'मुज़फ़्फ़र' ने ग़ज़ल ओढ़ रखी थी
अब कौन संभालेगा ये खटराग मिरे भाई
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डुबो कर ख़ून में लफ़्ज़ों को अंगारे बनाता हूँ
फिर अंगारों को दहका कर ग़ज़लपारे बनाता हूँ
मिरे हाथों के छाले फूल बन जाते हैं क़ाग़ज़ पर
मिरी आँखों से पूछो रात भर तारे बनाता हूँ
जिधर मिट्टी उड़ा दूँ आफ़्ताबे-ताज़ा पैदा हो
अभी बच्चों में हूँ साबुन के ग़ुब्बारे बनाता हूँ
ज़मीं पर ही रफ़ू का ढेर सारा काम बाक़ी है
ख़लाओम से न कह देना कि सय्यारे बनाता हूँ
ज़माना मुझसे बरहम है मिरा सर इस लिए ख़म है
कि मंदिर के कलश मस्जिद के मीनारे बनाता हूँ
मिरे बच्चे खड़े हैं, बाल्टी लेकर क़तारों में
कुँए तालाब नहरें और फ़व्वारे बनाता हूँ
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कौन हमारा सर काटेगा
अपना ही ख़ंजर काटेगा
आवारा बादल बिन बरसे
झीलों के चक्कर काटेगा
लंबे काले पंखों वाली
जुगनू तेरे पर काटेगा
सोच के नेकी करता है वो
बदले में सत्तर काटेगा
बोने वाले भूल रहे हैं
फ़स्लें तो लश्कर काटेगा
ऊपर वाला ऊँचे सर को
अंदर ही अंदर काटेगा
कुछ भी हो दिल्ली के कूचे
तुझ बिन मुझको घर काटेगा
आबे-रवाँ है और 'मुज़फ़्फ़र'
पानी से पत्थर काटेगा
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यह चमक ज़ख़्मे-सर से आई है
या तिरे संगे-दर से आई है
रंग जितने हैं उस गली के हैं
सारी ख़ुशबू उधर से आई है
साँस लेने दो कुछ हवा को भी
थकी हारी सफ़र से आई है
देना होगा ख़िराज ज़ुल्मत को
रौशनी सब के घर से आई है
नींद को लौट कर नहीं जाना
रूठकर चश्मे-तर से आई है
आपको क्या खबर कि शे'रों में
सादगी किस हुनर से आई है
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लायक़े-दीद वो नज़ारा था
लाख नेज़े थे सर हमारा था
बादबाँ से उलझ गया लंगर
और दो हाथ पर किनारा था
अब नमक़ तक नहीं है ज़ख़्मों पर
दोस्तों से बड़ा सहारा था
शुक्रिया रेशमी दिलासे का
तीर तो आपने भी मारा था
दोस्तो! बात दस्तरस की थी
एक जुगनू था इक सितारा था
आज आँधी-सी क्यों बदन में है?
ग़ालिबन आपने पुकारा था
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जब दरवाज़ा वा होगा
घर भी कोहे-निदा होगा
हम होंगे दरिया होगा
जो होना होगा होगा
कल पर कैसे तज दें आज
घाटे का सौदा होगा
रेत में सर तो गाड़ दिए
लेकिन इससे क्या होगा
नीचे दलदल ऊपर आग
अब तो कुछ करना होगा
हम भी खिंचकर मिलते हैं
वो भी क्या कहता होगा
प्यासे करते हैं बदनाम
बादल तो बरसा होगा
अंगारे खा सच मत बोल
वर्ना मुँह काला होगा
ख़ून के गाहक धीर धरें
और अभी सस्ता होगा
सोच 'मुज़फ़्फ़र' अगला शे'र
शायद वो अच्छा होगा
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वो गुलदस्तों में अशआर लगाता है
और यहाँ लहजे पर धार लगाता है
ग़रक़ाबौं नैं देखा दरया का इन्साफ
ज़िंदा मुर्दा सब को पार लगाता है
कौन ज़माने को समझाए चलने दो
चलने वाले ही को आर लगाता है
कहलाते हैं दुनिया भर में ज़ले अल्लाह
झाता उन पर खिदमत गार लगता है
खुश्बू क़ैद नहीं रहै सकती गुलशन में
देखें वो कितनी दीवार लगाता है
माज़ी से ता हाल मुज़फ्फर ज़ालिम ही
ताज पहनता है दरबार लगाता है
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मज़े से गिन सितारे छत न हो तो
समंदर क्या अगर वुसअत न हो तो
कहा ठंडी हवा ने कैक्टस से
इधर भी आइयो ज़ह्मत न हो तो
तुम्हें भी आ गया ख़ैरात करना
कोई फ़ितना सही आफ़त न हो तो
बहारों में नहीं उठते बग़ूले
जुनूँ क्या कीजिए वहशत न हो तो
कभी सोचा कि हम किस हाल में हैं
कोई शे'र आपकी बाबत न हो तो
हमारा आसमाँ भी छीन लेते
मगर वो क्या करें क़ुदरत न हो तो
'मुज़फ़्फ़र' दर्दे-सर है शाइरी भी
किसी हमदर्द की हाज़त न हो तो
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दरिया उथले पानी में क्या करते हैं
तिनके इस तुग़ियानी में क्या करते हैं
पत्थर हैं तो शीश महल पर जायें ना
घाव मिरी पेशानी पर क्या करते हैं
तंगी में वो सजदे करते रहते थे
देखें तनआसानी में क्या करते हैं
रहने दें वीराने को वीराना ही
दीवाने नादानी में क्या करते है
सब से अच्छे लगते हैं अपनी कुर्सी पर
चांद सितारे पानी में क्या करते हैं
खिलते हैं वो हैरानी में दुनिया है
फूल यहाँ वीरानी में क्या करते हैं
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रेत आँखों में इतनी है कि रो भी नहीं सकता
रोने का असर आप पे हो भी नहीं सकता
ये कह के सितमगर मेरे काट दिए पाँव
काँटे तेरी राहों में तो बो भी नही सकता
सीने में लगी आग अता करता है दिन भी
बारूद भरी रात में सो भी नहीं सकता
बहती रहे गंगा मिरा ईमान यही है
जो हाथ नहीं हैं उन्हें धो भी नहीं सकता
जलने की क़सम खाई है मिट्टी के दिये ने
ते़ज़ आँधी का मफ़हूम वो हो भी नहीं सकता
धरती को पसीने की ये बूँदें ही बहुत हैं
खेतों में सितारे कोई बो भी नहीं सकता
पेचीदा हैं इस दौर में मज़मून ग़ज़ल के
मोती-से कोई 'मीर' पिरो भी नहीं सकता
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