Famous Ghazal of Shamim Abbas

नमस्कार  दोस्तों ,आशा करतें हैं की आप सभी सकुशल होंगे ,आज हमने आप सभी के लिए Shamim Abbas के कुछ बहुत ही अच्छे ग़ज़लों का collections किया हैं ,आशा करते हैं की आप सभी को ये ग़ज़लें पसंद आएंगी । धन्यावाद!!



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बड़ी सर्द रात थी कल मगर बड़ी आँच थी बड़ा ताव था

सभी तापते रहे रात भर तिरा ज़िक्र क्या था अलाव था


वो ज़बाँ पे ताले पड़े हुए वो सभी के दीदे फटे हुए

बहा ले गया जो तमाम को मिरी गुफ़्तुगू का बहाओ था


कभी मय-कदा कभी बुत-कदा कभी काबा तो कभी ख़ानक़ाह

ये तिरी तलब का जुनून था मुझ कब किसी से लगाओ था


चलो माना सब को तिरी तलब चलो माना सारे हैं जाँ ब-लब

पे तिरे मरज़ में यूँ मुब्तिला कहीं हम सा कोई बताओ था


ये मुबाहिसे ये मुनाज़रे ये फ़साद-ए-ख़ल्क़ ये इंतिशार

जिसे दीन कहते हैं दीन-दार मिरी रूह पर वही घाव था


मुझे क्या जुनून था क्या पता जो जहाँ को रौंदता यूँ फिरा

कहीं टिक के मैं ने जो दम लिया तिरी ज़ात ही वो पड़ाव था


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इक्का दुक्का शाज़-ओ-नादिर बाक़ी हैं

अपनी आँखें जिन चेहरों की आदी हैं


हम बौलाए उन को ढूँढा करते हैं

सारे शहर की गलियाँ हम पर हँसती हैं


जब तक बहला पाव ख़ुद को बहला लो

आख़िर आख़िर सारे खिलौने मिट्टी हैं


कहने को हर एक से कह सुन लेते हैं

सिर्फ़ दिखावा है ये बातें फ़र्ज़ीं हैं


लुत्फ़ सिवा था तुझ से बातें करने का

कितनी बातें नोक-ए-ज़बाँ पे ठहरी हैं


तू इक बहता दरिया चौड़े चकले पाट

और भी हैं लेकिन नाले बरसाती हैं


सारे कमरे ख़ाली घर सन्नाटा है

बस कुछ यादें हैं जो ताक़ पे रक्खी हैं


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किसी का तीर किसीकी कमाँ को ठीक नहीं

तुम्हारे मुँह में किसी की ज़बाँ हो ठीक नहीं


जो ख़ाक होना मुक़द्दर है अपना रंग है ख़ूब

तमाम उम्र धुआँ ही धुआँ हो ठीक नहीं


तू मिल सका भी तो क्या और न मिल सका भी तू क्या

ख़याल-ए-सूद मलाल-ए-ज़ियाँ हो ठीक नहीं


घनेरी रात घना दश्त घोर तन्हाई

कहीं पे कोई ख़याल-ए-अमाँ हो ठीक नही


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नज़र समेटें बटोर कर इंतिज़ार रख दें

जो उस पे था अब तलक हमें ए'तिबार रख दें


बस एक ख़्वाहिश मदार थी अपनी ज़िंदगी का

किसी के हाथामें में अपना दार-ओ-मदार रख दें


तुझे जकड़ ले कभी सलीक़ा यही नहीं है

है जी में सब नोच कर निगाहों के तार रख दें


बड़ी ही नरमी से उस की आँखें मुसिर हुई थीं

हम उस के दामन में अपना सारा ग़ुबार रख दें


कभी मिरी ज़िद जो ले मुझ ही को ले के दम ले

फिर उस के आगे ज़माने भर को हज़ार रख दें


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शाकी बद-ज़न आज़ुर्दा है मुझ से मेरे भाई यार

जाने किस जा भूल आया हूँ रख कर मैं गोयाई यार


ख़ामोशी के सहरा चुटकी में आवाज़ों के जंगल

कितनी बस्ती उजड़ी हम से कितनी हम ने बसाई यार


देखो ना-उम्मीदी को ऐसे ठेंगा दिखलाते हैं

अक्सर अपने घर की कुंडी ख़ुद हम ने खटकाई यार


तन्हाई में अब भी कोई बालों को सहलाता है

हाथ पकड़ना चाहें तो ठट्ठा मारे पुरवाई यार


आज उसे फिर देखा जिस को पहरों देखा करते थे

अब कुछ वो भी मांद पड़ा है कुछ अपनी बीनाई यार


अच्छी बस्ती अच्छा घर अच्छे बच्चे अच्छे हालात

जिस के देखो साथ लगी है इक ख़्वाहिश आबाई यार


मअ'नी की धज्जी बिखरी और लफ़्ज़ों के ताने बाने

रात तख़य्युल ने मस्ती में की हँगाम-आराई यार


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शहर में आ ही गए हैं तो गुज़ारा कर लें

अब बहर-हाल हर इक शय को गवारा कर लें


ढूँढते ही रहे घर में कोई खिड़की न मिली

हम ने चाहा जो कभी उन का नज़ारा कर लें


अपनी तन्हाई का एहसास अधूरा है अभी

आईना तोड़ दें साए से किनारा कर लें


अपने जलते हुए एहसास में तपते तपते

मोम बन जाएँ या अपने को शरारा कर लें


ज़िंदगी तुम से इबारत है मेरी जाँ लेकिन

फिर भी हसरत है यही ज़िक्र तुम्हारा कर लें


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तू क्या जाने तेरी बाबत क्या क्या सोचा करते हैं

आँखें मूँदे रहते हें और तुझ को सोचा करते हैं


दूर तलक लहरें बनती हैं फैलती हैं खो जाती हैं

दिल के बासी ज़हन की झील में कंकर फेंका करते हैं


एक घना सा पेड़ था बरसों पहले जिस को काट दिया

शाम ढले कुछ पंछी हैं अब भी मंडलाया करते हैं


अक्सर यूँ होता है हवाएँ ठट्ठा मार के हँसती हैं

और खिड़की दरवाज़े अपना सीना पीटा करते हैं


तू ने बसाई है जो बस्ती उस की बातें तू ही जान

याँ तो बच्चे अब भी अम्माँ अब्बा खेला करते हैं


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उम्र गुज़र जाती है क़िस्से रह जाते हैं

पिछली रात बिछड़े साथी याद आते हैं


लोगों ने बतलाया है हम अब अक्सर

बातें करते करते कहीं खो जाते हैं


कोई ऐसे वक़्त में हम से बिछड़ा है

शाम ढले जब पंछी घर लौट आते हैं


अपनी ही आवाज़ सुनाई देती है

वर्ना तो सन्नाटे ही सन्नाटे हैं


दिल का एक ठिकाना है पर मिरा क्या

शाम जहाँ होती है वहीं पड़ जाते हैं


कुछ दिन हस्ब-ए-मंशा भी जी लेने दे

देख तिरी ठुड्डी में हाथ लगाते हैं


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उसे न मिलने की सोचा है यूँ सज़ा देंगे

हर एक जिस्म पे चेहरा वही लगा देंगे


हमारे शहर में शक्लें हैं बे-शुमार मगर

तिरे ही नाम से हर एक को सदा देंगे


हम आफ़्ताब को ठंडा न कर सके ऐ ज़मीं

अब अपने साए की चादर तुझे ओढ़ा देंगे


भुलाए बैठे हैं जिस को हम एक मुद्दत से

गर उस ने पुछ लिया तो जवाब क्या देंगे


बदन समेत अगर वो कभी जो आ जाए

बदन को उस के बदन अपना बा-ख़ुदा देंगे


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वो एक शख़्स मिरे पास जो रहा भी नहीं

वो ख़ुद को दूर कभी मुझ से कर सका भी नहीं


निगाह जिस की मिरी सम्त आज तक न उठी

मिरे सिवा वो किसी शय को देखता भी नहीं


मिरे ख़ुतूत तो झल्ला के फाड़ देता है

अजीब बात है पुर्ज़ों को फेंकता भी नहीं


तमाम वक़्त है वो महव-ए-गुफ़्तुगू मुझ से

ये कान जिस की सदाओं से आश्ना भी नहीं


हमारे सीने में छुप जाए डर के दुनिया से

वो जिस के लम्स ने अब तक हमें छुआ भी नहीं


जिधर भी देखूँ वही वो दिखाई देता है

मज़े की बात तो ये है कि वो ख़ुदा भी नहीं


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