नमस्कार दोस्तों ,आशा करतें हैं की आप सभी सकुशल होंगे ,आज हम आप सभी के लिए Om Prakash Yati के कुछ बहुत ही अच्छे ghazal के collections किए हैं ,आशा करते हैं की आप सभी को ये ग़ज़ल पसंद आएंगी । धन्यावाद!!
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कितने टूटे, कितनों का मन हार गया
रोटी के आगे हर दर्शन हार गया
ढूँढ रहा है रद्दी में क़िस्मत अपनी
खेल-खिलौनों वाला बचपन हार गया
ये है जज़्बाती रिश्तों का देश, यहाँ
विरहन के आँसू से सावन हार गया
मन को ही सुंदर करने की कोशिश कर
अब तू रोज़ बदल कर दर्पन हार गया
ताक़त के सँग नेक इरादे भी रखना
वर्ना ऐसा क्या था रावन हार गया
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छिपे हैं मन में जो भगवान से वो पाप डरते हैं
डराता वो नहीं है लोग अपने आप डरते हैं
यहाँ अब आधुनिक संगीत का ये हाल है यारो
बहुत उस्ताद भी भरते हुए आलाप डरते हैं
कहीं बैठा हुआ हो भय हमारे मन के अन्दर तो
सुनाई मित्र की भी दे अगर पदचाप, डरते हैं
निकल जाती है अक्सर चीख जब डरते हैं सपनों में
हक़ीक़त में तो ये होता है हम चुपचाप डरते हैं
नतीजा देखिये उम्मीद के बढते दबावों का
उधर सन्तान डरती है इधर माँ-बाप डरते हैं
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छीन लेगी नेकियाँ ईमान को ले जाएगी
भूख दौलत की कहाँ इंसान को ले जाएगी
आधुनिकता की हवा अब तेज़ आँधी बन गई
सोचता हूँ किस तरफ़ संतान को ले जाएगी
शहर की आहट हमें सड़कें दिखाएगी नई
फिर हमारे खेत को, खलिहान को ले जाएगी
बेचकर गुर्दे, असीमित धन कमाने की हवस
किस जगह इस दूसरे भगवान को ले जाएगी
सिन्धु हो, सुरसा हो, कुछ हो किन्तु इच्छाशक्ति तो
हैं जहाँ सीता वहाँ हनुमान को ले जाएगी
गाँव की बोली तुझे शर्मिंदगी देने लगी
ये बनावट ही तेरी पहचान को ले जाएगी
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बुरे की हार हो जाती है अच्छा जीत जाता है
मगर इस दौर में देखा है पैसा जीत जाता है
बड़ों के कहकहे ग़ायब, बड़ों की मुस्कराहट गुम
हँसी की बात आती है तो बच्चा जीत जाता है
यहाँ पर टूटते देखे हैं हमने दर्प शाहों के
फ़क़ीरी हो अगर मन में तो कासा जीत जाता है
खड़ी हो फ़ौज चाहे सामने काले अंधेरों की
मगर उससे तो इक दीपक अकेला जीत जाता है
हमेशा जीत निश्चित तो नहीं है तेज़ धावक की
रवानी हो जो जीवन में तो कछुवा जीत जाता है
ये भोजन के लिए दौड़ी वो जीवन के लिए दौड़ा
तभी इस दौड़ में बिल्ली से चूहा जीत जाता है
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हँसी को और खुशियों को हमारे साथ रहने दो
अभी कुछ देर सपनों को हमारे साथ रहने दो
तुम्हें फ़ुरसत नहीं तो जाओ बेटा,आज ही जाओ
मगर कुछ रोज़ बच्चों को हमारे साथ रहने दो
हरा सब कुछ नहीं है इस धरा पर, हम दिखा देंगे
ज़रा सावन के अन्धों को हमारे साथ रहने दो
ये जंगल कट गए तो किसके साए में गुज़र होगी
हमेशा इन बुज़ुर्गों को हमारे साथ रहने दो
ग़ज़ल में, गीत में, मुक्तक में ढल जाएँगे ये इक दिन
भटकते फिरते शब्दों को हमारे साथ रहने दो
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अँधेरे जब ज़रा-सी रौशनी से भाग जाते हैं
तो फिर क्यों लोग डरकर ज़िन्दगी से भाग जाते हैं
हमें मालूम है फिर भी नहीं हम खिलखिला पाते
बहुत से रोग तो केवल हँसी से भाग जाते हैं
निभाने हैं गृहस्थी के कठिन दायित्व हमको ही
मगर कुछ लोग इस रस्साकशी से भाग जाते हैं
यहाँ इक रोज़ हड्डी रीढ़ की हो जाएगी ग़ायब
चलो ऐसा करें इस नौकरी से भाग जाते हैं
लिखा था बालपन का सुख यशोदा-नन्द के हिस्से
तभी तो कृष्ण काली कोठरी से भाग जाते हैं
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आदमी क्या, रह नहीं पाए सम्हल के देवता
रूपसी के जाल में उलझे फिसल के देवता
बाढ़ की लाते तबाही तो कभी सूखा विकट
किसलिए नाराज़ रहते हैं ये जल के देवता
भीड़ भक्तों की खड़ी है देर से दरबार में
देखिए आते हैं अब कब तक निकल के देवता
की चढ़ावे में कमी तो दण्ड पाओगे ज़रूर
माफ़ करते ही नहीं हैं आजकल के देवता
लोग उनके पाँव छूते हैं सुना है आज भी
वो बने थे 'सीरियल' में चार पल के देवता
भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता
है अगर विश्वास तो फिर डर कहीं लगता नहीं
हर क़दम पर हैं हमारे साथ बल के देवता
है अगर किरदार में कुछ बात तो फिर आएंगे
कल तुम्हारे पास अपने आप चल के देवता
शाइरी सँवरेगी अपनी हम पढ़ें उनको अगर
हैं पड़े इतिहास में कितने ग़ज़ल के देवता
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इक नई कशमकश से गुज़रते रहे
रोज़ जीते रहे रोज़ मरते रहे
हमने जब भी कही बात सच्ची कही
इसलिए हम हमेशा अखरते रहे
कुछ न कुछ सीखने का ही मौक़ा मिला
हम सदा ठोकरों से सँवरते रहे
रूप की कल्पनाओं में दुनिया रही
खुशबुओं की तरह तुम बिखरते रहे
ज़िन्दगी की परेशानियों से यती
लोग टूटा किये, हम निखरते रहे
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खेत सारे छिन गए घर - बार छोटा रह गया
गाँव मेरा शहर का बस इक मुहल्ला रह गया
सावधानी है बहुत ,खुलकर कोई मिलता नहीं
आदमी पर आदमी का ये भरोसा रह गया
प्रेम ने तोड़ीं हमेशा जाति मज़हब की हदें
पर ज़माना आज तक इनमें ही उलझा रह गया
बेशक़ीमत चीज़ तो गहराइयों में थी छिपी
डर गया जो,वो किनारे पर ही बैठा रह गया
जिससे अपनी ख़ुद की रखवाली भी हो सकती नहीं
घर की रखवाली की ख़ातिर वो ही बूढ़ा रह गया
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नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला
कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला
ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया और जेब से सिक्का नहीं निकला
सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला
जहाँ पर ज़िन्दगी की यू कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
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दिल में सौ दर्द पाले बहन -बेटियाँ
घर में बाँटें उजाले बहन -बेटियाँ
कामना एक मन में सहेजे हुए
जा रही हैं शिवाले बहन - बेटियाँ
ऐसी बातें कि पूरे सफर चुप रहीं
शर्म की शाल डाले बहन - बेटियाँ
हो रहीं शादियों के बहाने बहुत
भेड़ियों के हवाले बहन - बेटियाँ
गाँव -घर की निगाहों के दो रूप हैं
को कैसे संभाले बहन - बेटियाँ
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बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है
पखेरू फुर्र हो जाता है पिंजरा छूट जाता है
कभी मुश्किल से मुश्किल काम हो जाते हैं चुटकी में
कभी आसान कामों में पसीना छूट जाता है
छिपाकर दोस्तों से अपनी कमज़ोरी को मत रखिए
बहुत दिन तक नहीं टिकता मुलम्मा छूट जाता है
भले ही बेटियों का हक़ है उसके कोने-कोने पर
मगर दस्तूर है बाबुल का अँगना छूट जाता है
भरे परिवार का मेला लगाया है यहाँ जिसने
वही जब शाम होती है तो तन्हा छूट जाता है
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दुख तो गाँव - मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी
पर जिनगी की भट्ठी में खुद जरते आए बाबूजी
कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फीस समय से भरते आए बाबूजी
बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी
रोज़ वसूली कोई न कोई, खाद कभी तो बीज कभी
इज़्ज़त की कुर्की से हरदम डरते आए बाबूजी
हाथ न आया कोई नतीजा, झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट - कचहरी करते आए बाबूजी
नाती-पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी
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मन में मेरे उत्सव जैसा हो जाता है
तुमसे मिलकर खुद से मिलना हो जाता है
चिड़िया, तितली, फूल, सितारे, जुगनू सब हैं
लेकिन इनको देखे अर्सा हो जाता है
दिन छिपने तक तो रहता है आना-जाना
फिर गावों का रस्ता सूना हो जाता है
भीड़ बहुत ज़्यादा दिखती है यूँ देखो तो
लेकिन जब चल दो तो रस्ता हो जाता है
जब आते हैं घर में मेरे माँ-बाबूजी
मेरा मन फिर से इक बच्चा हो जाता है
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अब के ऐसा दौर बना है
हर ग़म काबिले-गौर बना है
उसके कल की पूछ मुझे, जो
आज तेरा सिरमौर बना है
फिर से चाँद को रोटी कहकर
आँगन में दो कौर बना है
बंद न कर दिल के दरवाजे
ये हम सब का ठौर बना है
इस्कूलों में आये जवानी
बचपन का ये तौर बना है
तेरी-मेरी बात छिड़ी तो
फिर किस्सा कुछ और बना है
झगड़ा है कैसा आखिर, जब
दिल्ली-सा लाहौर बना है
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