Famous Ghazals of Akbar Allahabadi

 अकबर इलाहाबादी का जन्म इलाहाबाद से ग्यारह मील दूर बारा शहर में सैय्यद के एक परिवार में हुआ था, जो मूल रूप से फारस से सैनिकों के रूप में भारत आया था। उनके पिता, मौलवी तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ने एक नायब तहसीलदार के रूप में काम किया और उनकी माँ बिहार के गया जिले के जगदीशपुर गाँव के एक जमींदार परिवार से थीं।


अकबर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से घर पर ही प्राप्त की। 1855 में, उनकी मां इलाहाबाद चली गईं और मोहल्ला चौक में बस गईं। अकबर को 1856 में एक अंग्रेजी शिक्षा के लिए जमुना मिशन स्कूल में भर्ती कराया गया था, लेकिन उन्होंने 1859 में अपनी स्कूली शिक्षा छोड़ दी। हालाँकि, उन्होंने अंग्रेजी का अध्ययन जारी रखा और व्यापक रूप से पढ़ा।


स्कूल छोड़ने पर, अकबर रेलवे इंजीनियरिंग विभाग में क्लर्क के रूप में शामिल हो गए। सेवा में रहते हुए, उन्होंने एक वकील (बैरिस्टर) के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिए परीक्षा उत्तीर्ण की और बाद में एक तहसीलदार और एक मुंसिफ के रूप में काम किया, और अंततः सत्र अदालत के न्यायाधीश के रूप में काम किया। न्यायिक सेवाओं में उनके काम की स्मृति में, उन्हें खान बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया।


अकबर 1903 में सेवानिवृत्त हुए और इलाहाबाद में रहे। 9 सितंबर, 1921 को बुखार से उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें इलाहाबाद के हिम्मतगंज जिले में दफनाया गया।



💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚💚


वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे

वो फ़लक न रहा वो समाँ न रहा वो मकाँ न रहे वो मकीं न रहे


वो गुलों में गुलों की सी बू न रही वो अज़ीज़ों में लुत्फ़ की ख़ू न रही

वो हसीनों में रंग-ए-वफ़ा न रहा कहें और की क्या वो हमीं न रहे


न वो आन रही न उमंग रही न वो रिंदी ओ ज़ोह्द की जंग रही

सू-ए-क़िबला निगाहों के रुख़ न रहे और दैर पे नक़्श-ए-जबीं न रहे


न वो जाम रहे न वो मस्त रहे न फ़िदाई-ए-अहद-ए-अलस्त रहे

वो तरीक़ा-ए-कार-ए-जहाँ न रहा वो मशाग़िल-ए-रौनक़-ए-दीं न रहे


हमें लाख ज़माना लुभाए तो क्या नए रंग जो चर्ख़ दिखाए तो क्या

ये मुहाल है अहल-ए-वफ़ा कि लिए ग़म-ए-मिल्लत ओ उल्फ़त-ए-दीं न रहे


तेरे कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में दिल है मेरा अब उसे मैं समझता हूँ दाम-ए-बला

ये अजीब सितम है अजीब जफ़ा कि यहाँ न रहे तो कहीं न रहे


ये तुम्हारे ही दम से है बज़्म-ए-तरब अभी जाओ न तुम न करो ये ग़ज़ब

कोई बैठ के लुत्फ़ उठाएगा क्या कि जो रौनक़-ए-बज़्म तुम्हीं न रहे


जो थीं चश्म-ए-फ़लक की भी नूर-ए-नज़र वही जिन पे निसार थे शम्स ओ क़मर

सो अब ऐसी मिटी हैं वो अंजुमनें कि निशान भी उन के कहीं न रहे


वही सूरतें रह गईं पेश-ए-नज़र जो ज़माने को फेरें इधर से उधर

मगर ऐसे जमाल-ए-जहाँ-आरा जो थे रौनक़-ए-रू-ए-ज़मीं न रहे


ग़म ओ रंज में 'अकबर' अगर है घिरा तो समझ ले कि रंज को भी है फ़ना

किसी शय को नहीं है जहाँ में बक़ा वो ज़्यादा मलूल ओ हज़ीं न रहे


😍😍😍😍😍😍😍😜😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍🥰🥰


हाले दिल सुना नहीं सकता

लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता


इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज है बेहद

अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता


होशे-आरिफ़ की है यही पहचान

कि ख़ुदी में समा नहीं सकता


पोंछ सकता है हमनशीं आँसू

दाग़े-दिल को मिटा नहीं सकता


मुझको हैरत है इस कदर उस पर

इल्म उसका घटा नहीं सकता


🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰


शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे

वह थियेटर में थिरकते ही रहे


दफ़ बजाया ही किए मज़्मूंनिगार

वह कमेटी में मटकते ही रहे


सरकशों ने ताअते-हक़ छोड़ दी

अहले-सजदा सर पटकते ही रहे


जो गुबारे थे वह आख़िर गिर गए

जो सितारे थे चमकते ही रहे


🥰😘🥰😘🥰😗😇😛😍😗🥰😛😍🥰😜


मुझे भी दीजिए अख़बार का वरक़ कोई

मगर वह जिसमें दवाओं का इश्तेहार न हो


जो हैं शुमार में कौड़ी के तीन हैं इस वक़्त

यही है ख़ूब, किसी में मेरा शुमार न हो


गिला यह जब्र क्यों कर रहे हो ऐ 'अकबर'

सुकूत ही है मुनासिब जब अख़्तियार न हो


😍🥰😗😌😘😝🥰🥰🥰🥰😝😝😍😌😍😍😍😍


गाँधी तो हमारा भोला है, और शेख़ ने बदला चोला है

देखो तो ख़ुदा क्या करता है, साहब ने भी दफ़्तर खोला है


आनर की पहेली बूझी है, हर इक को तअल्ली सूझी है

जो चोकर था वह सूजी है, जो माशा था वह तोला है


यारों में रक़म अब कटती है, इस वक़्त हुकूमत बटती है

कम्पू से तो ज़ुल्मत हटती है, बे-नूर मोहल्ला-टोला है


🥰😍😘😍😘😍🥰😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍


कोई हँस रहा है कोई रो रहा है

कोई पा रहा है कोई खो रहा है


कोई ताक में है किसी को है गफ़लत

कोई जागता है कोई सो रहा है


कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई

कोई बीज उम्मीद के बो रहा है


इसी सोच में मैं तो रहता हूँ 'अकबर'

यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है


😍😍😍😍😍😍😍🥰🥰🥰🥰🥰🥰😍🥰😍😍😍😍


बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में

अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में


है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़

कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे


हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग

बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में


छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या

अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में


😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍


आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते

अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते


ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते

सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते


किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल

तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते


परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले

क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते


हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना

दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते


दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त

हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते


गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने

पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते


😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍


मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार

लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार


हंगामा ये वोट का फ़क़त है

मतलूब हरेक से दस्तख़त है


हर सिम्त मची हुई है हलचल

हर दर पे शोर है कि चल-चल


टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर

जिस पर देको, लदे हैं वोटर


शाही वो है या पयंबरी है

आखिर क्या शै ये मेंबरी है


नेटिव है नमूद ही का मुहताज

कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज


कहते जाते हैं, या इलाही

सोशल हालत की है तबाही


हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं

अगियार भी दिल में हंस रहे हैं


दरअसल न दीन है न दुनिया

पिंजरे में फुदक रही है मुनिया


स्कीम का झूलना वो झूलें

लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें


क़ौम के दिल में खोट है पैदा

अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा


क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया

इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया


भाई-भाई में हाथापाई

सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई


पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की

वोट की धुन में बन गए फिरकी


😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍


ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते

सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते


आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते

अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते


किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल

तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते


परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले

क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते


हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना

दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते


दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त

हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते


गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने

पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते


😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍


चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती

अख्बार में जो चाहिए वह छाप दीजिए




दावा बहुत बड़ा है रियाजी मे आपको


तूले शबे फिराक को तो नाप दीजिए




सुनते नहीं हैं शेख नई रोशनी की बात


इंजन कि उनके कान में अब भाप दीजिए




जिस बुत के दर पे गौर से अकबर ने कह दिया


जार ही मैं देने लाया हूँ जान आप दीजिए



😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍🥰😍😍😍😍




हस्ती के शज़र में जो यह चाहो कि चमक जाओ


कच्चे न रहो बल्कि किसी रंग मे पक जाओ




मैंने कहा कायल मै तसव्वुफ का नहीं हूँ


कहने लगे इस बज़्म मे जाओ तो थिरक जाओ




मैंने कहा कुछ खौफ कलेक्टर का नहीं है


कहने लगे आ जाएँ अभी वह तो दुबक जाओ




मैंने कहा वर्जिश कि कोई हद भी है आखिर


कहने लगे बस इसकी यही हद कि थक जाओ




मैंने कहा अफ्कार से पीछा नहीं छूटता


कहने लगे तुम जानिबे मयखाना लपक जाओ




मैंने कहा अकबर मे कोई रंग नहीं है


कहने लगे शेर उसके जो सुन लो तो फडक जाओ




😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍


बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक


बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक




हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही


तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक




मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर


मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक




तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में


यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक




अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में


सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियाँ कब तक




जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस


छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक




जनाबे हज़रते 'अकबर' हैं हामिए-पर्दा


मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक


😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍







आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे


आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे




शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं


झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे




रोज़े-रिन्दी है नसीबे-दीगराँ


शायरी की सिर्फ़ क़ूवत है मुझे




नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं


देस ही की याद है बस गत मुझे




दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल


मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे



😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍




दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से


आ गई है जाँ में जाँ आपके आ जाने से




तेरा कूचा न छूटेगा तेरे दीवाने से


उस को काबे से न मतलब है न बुतख़ाने से




शेख़ नाफ़ह्म हैं करते जो नहीं क़द्र उसकी


दिल फ़रिश्तों के मिले हैं तेरे दीवानों से




मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं


कारे-दुनिया न रुकेगा तेरे मर जाने से


कौन हमदर्द किसी का है जहाँ में 'अक़बर'


इक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से


😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍🥰😍




शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा


दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा




आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात


उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा




तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे


घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा




ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज


कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा




क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल


ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा



😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍😍



कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की


शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की




ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की


छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की




हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार की


देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की




ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन को


इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की




बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है


मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों ने गली में यार की




लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े


आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की

थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए


आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की




हाल-ए-'अकबर' देख कर बोले बुरी है दोस्ती


ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की



😜😍😜😍😍😍😍🥰😍🥰😍🥰🥰😍





कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है ।


यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है ।




इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,


हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।




ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा,


मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है ।




जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर,


अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है ।




हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया,


लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है ।

😍🥰😍😝😍🥰😍😝😍🥰😍🥰😍🥰😍





फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी


ये वफ़ा कैसी थी साहब ! ये मुरव्वत कैसी




दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात


रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी




जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना


इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी




है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा


आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी



हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे


आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी




कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता


क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी



😍🥰😍🥰😍🥰😍😝😍😝😍🥰😍🥰😍😍



जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है


अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ




मदद-ऐ-रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में


मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ




ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं


अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ




अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना


मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ


0 Comments:

एक टिप्पणी भेजें