वास्तविक नाम : अब्दुस्सलाम
जन्म :20 अप्रैल 1918 | होशियारपुर, पंजाब
मृत्यु :18 मार्च 2007
अब्दुस्सलाम पंजाब के कवियों की लंबी श्रृंखला के कवि थे।उनका जन्म 20 अप्रैल 1918 को पश्चिमी पंजाब के होशियारपुर में हुआ था। विभाजन के बाद, वह पाकिस्तान चले गए और रावलपिंडी के नागरिक बन गए। उनका कलम नाम अख्तर था। आलमत, आइना या चिराग, बरग-ए-सब्ज़, समत नुमा, शहरे हर्फ, खैरुल बशर, खातेमुल मुर्सलीन उनके लेखन के संग्रह हैं। मुजतबा और खिरुलबशर को 1998 और 2000 में दूसरे और तीसरे पुरस्कार के लिए चुना गया था। पाकिस्तान सरकार के तमगा-ए-इम्तियाज को साहित्य जगत में उनके योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया गया था। 18 मार्च 2007 को रावलपिंडी में उनका निधन हो गया।
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आँधी में चराग़ जल रहे हैं
क्या लोग हवा में पल रहे हैं
ऐ जलती रूतो गवाह रहना
हम नंगे पाँव चल रहे हैं
कोहसारों पे बर्फ़ जब से पिघली
दरिया तेवर बदल रहे हैं
मिट्टी में अभी नमी बहुत है
पैमाने हुनूज़ ढल रहे हैं
कह दे कोई जा के ताएरों से
च्यूँटी के भी पर निकल रहे हैं
कुछ अब के है धूप में भी तेज़ी
कुछ हम भी शरर उगल रहे हैं
पानी पे ज़रा सँभल के चलना
हस्ती के क़दम फिसल रहे हैं
कह दे ये कोई मुसाफिरों से
शाम आई है साए ढल रहे हैं
गर्दिश में नहीं ज़मीं ही 'अख़्तर'
हम भी दबे पाँव चल रहे
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हम अक्सर तीरगी में अपने पीछे छुप गए हैं
मगर जब रास्तों में चाँद उभरा चल पड़े हैं
ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक
हमें देखो कि अपने आप को ओढ़े हुए हैं
मिरा बिस्तर किसी फ़ुट-पाथ पर जा कर लगा दो
मिरे बच्चे अभी से मुझ से तरका माँगते हैं
बुलंद आवाज़ दे कर देख लो कोई तो होगा
जो गलियाँ सो गई हैं तो परिंदे जागते हैं
कोई तफ़्सील हम से पूछना हो पूछ लीजे
कि हम भी आईने के सामने बरसों रहे हैं
अभी ऐ दास्ताँ-गो-दास्ताँ कहता चला जा
अभी हम जागते हैं जुम्बिश-ए-लब देखते हैं
हवा अपने ही झोंकों का तआक़ुब कर रही है
कि उड़ते पत्ते फिर आँखों से ओझल हो रहे हैं
हमें भी इस कहानी का कोई किरदार समझो
कि जिस में लब पे मोहरें हैं दरीचे बोलते हैं
इधर से पानियों का रेला कब का जा चुका है
मगर बच्चे दरख़्तों से अभी चिमटे हुए हैं
मुझे तो चलते रहना है किसी जानिब भी जाऊँ
कि 'अख़्तर' मेरे क़दमों में अभी तक रास्ते हैं
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जो मुझ को देख के कल रात रो पड़ा था बहुत
वो मेरा चख भी न था फिर भी आश्ना था बहुत
मैं अब भी रात गए उस की गूँज सुनता हूँ
वो हर्फ़ कम था बहुत कम मगर सदा था बहुत
ज़मीं के सीने में सूरज कहाँ से उतरे हैं
फ़लक पे दूर कोई बैठा सोचता था बहुत
मुझे जो देखा तो काग़ज़ को पुर्ज़े पुर्ज़े किया
वो अपनी शक्ल के ख़ाके बना रहा था बहुत
मैं अपने हाथ से निकला तो फिर कहीं न मिला
ज़माना मेरे तआक़ुब में भी गया था बहुत
शिकस्त-ओ-रेख़्त बदन की अब अपने बस में नहीं
उसे बताऊँ कि वो रम्ज़-आशना था बहुत
बिसात उस ने उलट दी न जाने सोच के क्या
अभी तो लोगों में जीने का हौसला था बहुत
अजब शरीक-ए-सफ़र था कि जब पड़ाव किया
वो मेरे पास न ठहरा मगर रूका था बहुत
सेहर के चाक-ए-गरेबाँ को देखने के लिए
वो शख़्स सुब्ह तलक शब को जागता था बहुत
वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी न था
कि सच ही बोलता था जब भी बोलता था बहुत
हवा के लम्स से चेहरे पे फूल खिलते थे
वो चाँदनी सा बदन मौजा-ए-सबा था बहुत
पस-ए-दरीचा दो आँखें चमकती रहती थीं
कि उस को नींद में चलने का आरिज़ा था बहुत
कहानियों की फ़ज़ा भी उसे थी रास 'अख़्तर'
हक़ीक़तों से भी ओहदा-बरा हुआ था बहुत
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ख़्वाब-महल में कौन सर-ए-शाम आ कर पत्थर मारता है
रोज़ इक ताज़ा काँच का बर्तन हाथ से गिर कर टूटता है
मकड़ी ने दरवाज़े पे जाले दूर तलक बुन रक्खे हैं
फिर भी कोई गुज़रे दिनों की ओट से अंदर झाँकता हैं
शोर सा उठता रहता है दीवारें बोलती रहती हैं
शाम अभी तक आ नहीं पाती कोई खिलौने तोड़ता है
अव्वल-ए-शब की लोरी भी कब काम किसी के आती है
दिल वो बच्चा अपनी सदा पर कच्ची नींद से जागता है
अंदर बाहर की आवाज़ें इक नुक़्ते पर सिमटी हैं
होता है गलियों में वावेला मेरा लहू जब बोलता है
मेरी साँसों की लर्ज़िश मंज़र का हिस्सा बनती है
देखता हूँ मैं खिड़की से जब शाख़ पे पत्ता काँपता है
मेरे सिरहाने कोई बैठा ढारस देता रहता है
नब्ज़ पे हाथ भी रखता है टूटे धागे भी जोड़ता है
बादल उठे या कि न उठे बारिश भी हो या कि न हो
मैं जब भीगने लगता हूँ वो सर पर छतरी तानता है
वक़्त गुज़रने के हम-राह बहुत कुछ सीखा 'अख़्तर' ने
नंगे बदन को किरनों के पैराहन से अब ढाँपता है
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ख़्वाहिशें इतनी बढ़ीं इंसान आधा रह गया
ख़्वाब जो देखा नहीं वो अभी अधूरा रह गया
मैं तोउस के साथ ही घर से निकल कर आ गया
और पीछे एक दस्तक एक साए रह गया
उस को तो पैराहनों से कोई दिलचस्पी न थी
दुख तो ये है रफ़्ता रफ़्ता मैं भी नंगा रह गया
रंग तस्वीरों का उतरा तो कहीं ठहरा नहीं
अब के वो बारिश हुई हर नक़्श फीका रह गया
उम्र भर मंज़र-निगारी ख़ून मे उतरी रही
फिर भी आँखों के मुक़ाबिल एक दरिया रह गया
रौनक़ें जितनी थीं दहलीज़ों से बाहर आ गईं
शाम ही से घर का दरवाज़ा खुला क्या रह गया
अब के शहर-ए-ज़िंदगी में सानेहा ऐसा हुआ
मैं सदादेता उसे वो मुझ को तकता रह गया
तितलियों के पर किताबों में कहीं गुम हो गए
मुट्ठियों के आईने में एक चेहरा रह गया
रेल की गाड़ी चली तो इक मुसाफ़िर ने कहा
देखा वो कोई स्टेशन पे बैठा रह गया
मैं न कहता था कि उजलत इस क़दर अच्छी नहीं
एक पट खिड़की का आ कर देख लो वा रह गया
लोग अपनी किर्चियाँ चुन चुन के आगे बढ़ गए
मैं मगर सामान इकट्ठा करता तन्हा रह गया
आज तक मौज-ए-हवा तो लौट कर आई नहीं
क्या किसी उजड़े नगर में दीप जलता रह गया
उँगलियों के नक़्श गुल-दानों पे आते हैं नज़र
आओ देखें अपने अंदर और क्या क्या रह गया
धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए
इक हमारा जिस्म था अख़्तर जो कच्चा रह गया
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किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था
ज़मीं थी पहलू में सूरज इक कोस पर रहा था
हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं
मैं अपनी मिट्टी से फूल बन कर उभर रहा था
अजीब सरगोशियों का आलम था अंजुमन में
मैं सुन रहा था ज़माना तन्क़ीद कर रहा था
वो कैसी छत थी जो मुझ को आवाज़ दे रही थी
वो क्या नगर था जहाँ मैं चुप-चाप उतर रहा था
मैं देखता था कि उँगलियों में दिए की लौ है
मैं जागता था कि रंग ख़्वाबों में भर रहा था
ये बात अलग है कि मैं ने झाँका नहीं गली में
ये सच है कोई सदाएँ देता गुज़र रहा था
ये चंद बे-हर्फ़-ओ-सौत ख़ाके मिरा असासा
मैं जिन को ग़ज़लों का नाम दे कर सँवर रहा था
ज़माना शबनम के भेस में आया और दुआ दी
मैं ज़र्द-रूत में जब अपनी बाहों में मर रहा था
मुझे किसी से नक़ब-ज़नी का ख़तर नहीं था
मुझे 'अख़्तर' अपने ही जस्द-ए-ख़ाकी से डर रहा था
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क्या पूछते हो मुझ से कि मैं किस नगर का था
जलता हुआ चराग़ मिरी रह-गुज़र का था
हम जब सफ़र पे निकले थे तारों की छाँव थी
फिर अपे हम-रिकाब उजाला सहर का था
साहिल की गीली रेत ने बख़्शा था पैरहन
जैसे समुंदरों का सफ़र चश्म-ए-तर का था
चेहरे पे उड़ती गर्द थी बालों में राख थी
शायद वो हम-सफ़र मिरे उजड़े नगर का था
क्या चीख़ती हवाओं से अहवाल पूछता
साया ही यादगार मिरे हम-सफ़र का था
यकसानियत थी कितनी हमारे वजूद में
अपना जो हाल था वही आलम भँवर का था
वौ कौन था जो ले के मुझे घर से चल पड़ा
सूरत ख़िजर की थी न वो चेहरा खिज़र का था
दहलीज़ पार कर न सके और लौट आए
शायद मुसाफ़िरों को ख़तर बाम-ओ-दर का था
कच्चे मकाने जितने थे बारिश में बह गए
वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था
मैं इस गली में कैसे गुज़रता झुका के सर
आख़िर को ये मुआमला भी संग-ओ-सर का था
लोगों ने ख़ुद ही काट दिए रास्तों का पेड़
'अख़्तर' बदलती रूत में ये हासिल नज़र का था
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मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए
क्या सफ़र था मेरे सारे ख़्वाब घर में रह गए
अब कोई तस्वीर भी अपनी जगह क़ाएम नहीं
अब हवा के रंग ही मेरी नज़र में रह गए
जितने मंज़र थे मिरे हम-राह घर तक आए हैं
और पस-ए-मंज़र सवाद-ए-रह-गुज़र में रह गए
अपने क़दमों के निशाँ भी बंद कमरों में रहे
ताक़चो पर भी दिए ख़ाली नगर में रह गए
कर गई है नाम से ग़ाफ़िल हमें अपनी शनाख़्त
सिर्फ़ आवाज़ों के साए ही ख़बर में रह गए
ना-ख़ुदाओं ने पलट कर जाने क्यूँ देखा नहीं
कश्तियों के तो कई तख़्ते भँवर में रह गए
कैसी कैसी आहटें अल्फ़ाज़ का पैकर बनीं
कैसे कैसे अक्स मेरी चश्म-ए-तर में रह गए
हाथ की सारी लकीरें पाँव के तलवों में थीं
और मेरे हम-सफ़र गर्द-ए-सफ़र में रह गए
क्यू हुजूम-ए-रंग 'अख़्तर' क्या फ़रोग-ए-बू-ए-गुल
मौसमों के ज़ाइक़े बूढ़े शजर में रह गए
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मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया
सूरज की रौशनी ने बड़ा काम कर दिया
हाथों पे मेरे अपने लहू का निशान था
लोगों ने उस के क़त्ल का इल्ज़ाम धर दिया
गंदुम का बीज पानी की छागल और इक चराग़
जब मैं चला तो उस ने ये ज़ाद-ए-सफ़र दिया
जागा तो माहताब की कुंजी सिरहाने थी
मैं ख़्वाब में था जब मुझे रौशन नगर दिया
उस को तो उस शहर ने कुछ भी दिया नहीं
और उस ने फिर भी शहर को तोहफ़े में सर दिया
मेरा बदन तो रद्द-ए-अमल में ख़मोश था
मेरी ज़बाँ ने ज़ाइक़ा-ए-ख़ुश्क-ओ-तर दिया
वो हर्फ़-आश्ना है मुझे ये गुमाँ न था
उस ने तो सब को नक़्श-ब-दीवार कर दिया
यूँ भी तो उस ने हौसला-अफ़ज़ाई की मिरी
हर्फ़-ए-सुख़न के साथ ही ज़ख़्म-ए-हुनर दिया
अख़्तर यही नहीं कि मुझे बाल-ओ-पर मिले
उस ने तो उम्र भर मुझे एहसास पर दिया
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थी तितलियों के तआक़ुब में ज़िंदगी मेरी
वो शहर क्या हुआ जिस की थी हर गली मेरी
मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
न जाने फिर कहाँ आवाज़ खो गई मेरी
ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात
अधूर बात में भी रह गई कमी मेरी
हवा-ए-कोह-ए-निदा इक ज़रा ठहर कि अभी
ज़माना ग़ौर से सुनता है अन-कही मेरी
मैं इतने ज़ोर से चीख़ा चटख़ गया है बदन
फिर इस के बाद किसी ने नहीं सुनी मेरी
ये दरमियाँ का ख़ला ही मिरा नहीं वर्ना
ये आसमान भी मेरा ज़मीन भी मेरी
किस ख़बर कि गुहर कैसे हाथ आते हैं
समुंदरों से भी गहरी है ख़ामशी मेरी
कोई तो आए मेरे पास दो घड़ी बैठे
कि करगई मुझे तन्हा ख़ुद-आगही मेरी
कभी कभी तो ज़माना रहा निगाहों में
कभी कभी नज़र आई न शक्ल भी मेरी
मुझे ख़बर है कहाँ हूँ मैं कौन हूँ 'अख़्तर'
कि मेरे नाम से सूरत गिरी हुई मेरी
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