Famous Rahat Indori Ghazal

 राहत कुरैशी, जिन्हें बाद में राहत इंदौरी के नाम से जाना गया, का जन्म 1 जनवरी 1950 को 

इंदौर में रफतुल्लाह कुरैशी (एक कपड़ा मिल मजदूर) और उनकी पत्नी मकबूल उन निसा 

बेगम के यहाँ हुआ था। वह उनकी चौथी संतान थे। राहत इंदौरी ने अपनी स्कूली शिक्षा नूतन

 स्कूल इंदौर से की, जहाँ से उन्होंने अपनी उच्च माध्यमिक पढ़ाई पूरी की। उन्होंने 1973

 में इस्लामिया करीमिया कॉलेज, इंदौर  से स्नातक की पढ़ाई पूरी की और स्वर्ण पदक के

 साथ बरकतउल्ला विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में एमए किया है। (भोपाल, मध्य प्रदेश) 1975

 में। राहत को 1985 में मध्य प्रदेश के भोज विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी से

 सम्मानित किया गया था, जिसका शीर्षक था उर्दू मैं मुशायरा।


इंदौरी ने मुशायरा और कवि सम्मेलन में 40-45 साल तक प्रदर्शन किया। उन्होंने कविता पाठ

 करने के लिए व्यापक रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यात्रा की। उन्होंने भारत के लगभग सभी

 जिलों में काव्य संगोष्ठियों में भाग लिया और कई बार अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, 

सिंगापुर, मॉरीशस, सऊदी अरब, यूएई, कुवैत, कतर, बहरीन, ओमान, पाकिस्तान, बांग्लादेश,

 नेपाल आदि की यात्रा की।


उन्होंने 10 अगस्त 2020 को भारत में COVID-19 महामारी के दौरान COVID-19 के लिए 

सकारात्मक परीक्षण किया और उन्हें इंदौर, मध्य प्रदेश के अरबिंदो अस्पताल में भर्ती कराया

 गया। 11 अगस्त 2020 को कार्डियक अरेस्ट से उनका निधन हो गया।





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सफ़र की हद है वहाँ तक कि कुछ निशान रहे|

चले चलो के जहाँ तक ये आसमान रहे|


ये क्या उठाये क़दम और आ गई मन्ज़िल,

मज़ा तो जब है के पैरों में कुछ थकान रहे|


वो शख़्स मुझ को कोई जालसाज़ लगता है,

तुम उस को दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे|


मुझे ज़मीं की गहराईयों ने दाब लिया,

मैं चाहता था मेरे सर पे आसमान रहे|


अब अपने बीच मरासिम नहीं अदावत है,

मगर ये बात हमारे ही दर्मियान रहे|


मगर सितारों की फसलें उगा सका न कोई,

मेरी ज़मीन पे कितने ही आसमान रहे|


वो एक सवाल है फिर उस का सामना होगा,

दुआ करो कि सलामत मेरी ज़बान रहे|


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उसकी कत्थई आँखों में हैं जंतर-मंतर सब

चाक़ू-वाक़ू, छुरियाँ-वुरियाँ, ख़ंजर-वंजर सब


जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं

चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब


मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है

फीके पड़ गए कपड़े-वपड़े, ज़ेवर-वेवर सब


आखिर मै किस दिन डूबूँगा फ़िक्रें करते है

कश्ती-वश्ती, दरिया-वरिया लंगर-वंगर सब


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समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है

जहाज़ खुद नहीं चलते खुदा चलाता है


ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आये

वो हम नहीं हैं, जिन्हें रास्ता चलाता है


वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाजों में

मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है


ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं

उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है


हम अपने बूढे चिरागों पे खूब इतराए

और उसको भूल गए जो हवा चलाता है


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अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है

ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है


लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में

यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है


मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन

हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है


हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है

हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है


जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे

किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है


सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में

किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है


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अँधेरे चारों तरफ़ सायं-सायं करने लगे

चिराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे


तरक़्क़ी कर गए बीमारियों के सौदागर

ये सब मरीज़ हैं जो अब दवाएँ करने लगे


लहूलोहान पड़ा था ज़मीं पे इक सूरज

परिन्दे अपने परों से हवाएँ करने लगे


ज़मीं पे आ गए आँखों से टूट कर आँसू

बुरी ख़बर है फ़रिश्ते ख़ताएँ करने लगे


झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले

वो धूप है कि शजर इलतिजाएँ करने लगे


अजीब रंग था मजलिस का, ख़ूब महफ़िल थी

सफ़ेद पोश उठे काएँ-काएँ करने लगे


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लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं

इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं


मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ

रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं


नींद से मेरा ताल्लुक़ ही नहीं बरसों से

ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं


मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए

और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं


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कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं

रात के साथ गई  बात मुझे होश नहीं


मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ

थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं


आँसुओं और शराबों में गुजारी है हयात

मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं


जाने क्या टूटा है पैमाना कि दिल है मेरा

बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं


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पुराने शहरों के मंज़र निकलने लगते हैं

ज़मीं जहाँ भी खुले घर निकलने लगते हैं


मैं खोलता हूँ सदफ़ मोतियों के चक्कर में

मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते हैं


हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मंज़र

सितारे धूप पहनकर निकलने लगते हैं


बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला

क़रीबी दोस्त भी बचकर निकलने लगते हैं


बुलन्दियों का तसव्वुर भी ख़ूब होता है

कभी कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं


अगर ख़्याल भी आए कि तुझको ख़त लिक्खूँ

तो घोंसलों से कबूतर निकलने लगते हैं


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धूप बहुत है मौसम जल-थल भेजो न

बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न


मोल्सरी की शाख़ों पर भी दिये जलें

शाख़ों का केसरया आँचल भेजो न


नन्ही मुन्नी सब चेहकारें कहाँ गईं

मोरों के पैरों की पायल भेजो न


बस्ती बस्ती दहशत किसने बो दी है

गलियों बाज़ारों की हलचल भेजो न


सारे मौसम एक उमस के आदी हैं

छाँव की ख़ुश्बू, धूप का संदल भेजो न


मैं बस्ती में आख़िर किस से बात करूँ

मेरे जैसा कोई पागल भेजो न


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उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो

खर्च करने से पहले कमाया करो


ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे

बारिशों में पतंगें उड़ाया करो


दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर

नीम की पत्तियों को चबाया करो


शाम के बाद जब तुम सहर देख लो

कुछ फ़क़ीरों को खाना खिलाया करो


अपने सीने में दो गज़ ज़मीं बाँधकर

आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो


चाँद सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ

ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो


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जो मंसबो के पुजारी पहन के आते हैं।

कुलाह तौक से भारी पहन के आते है।


अमीर शहर तेरे जैसी क़ीमती पोशाक

मेरी गली में भिखारी पहन के आते हैं।


यही अकीक़ थे शाहों के ताज की जीनत

जो उँगलियों में मदारी पहन के आते हैं।


इबादतों की हिफाज़त भी उनके जिम्मे हैं।

जो मस्जिदों में सफारी पहन के आते हैं।


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हवा खुद अब के हवा के खिलाफ है, जानी

दिए जलाओ के मैदान साफ़ है, जानी


हमे चमकती हुई सर्दियों का खौफ नहीं

हमारे पास पुराना लिहाफ है, जानी


वफ़ा का नाम यहाँ हो चूका बहुत बदनाम

मैं बेवफा हूँ मुझे ऐतराफ है, जानी


है अपने रिश्तों की बुनियाद जिन शरायत पर

वहीँ से तेरा मेरा इख्तिलाफ है, जानी


वो मेरी पीठ में खंज़र उतार सकता है

के जंग में तो सभी कुछ मुआफ है, जानी


मैं जाहिलों में भी लहजा बदल नहीं सकता

मेरी असास यही शीन-काफ है, जानी


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सुला चुकी थी ये दुनिया थपक थपक के मुझे

जगा दिया तेरी पाज़ेब ने खनक के मुझे


कोई बताये के मैं इसका क्या इलाज करूँ

परेशां करता है ये दिल धड़क धड़क के मुझे


ताल्लुकात में कैसे दरार पड़ती है

दिखा दिया किसी कमज़र्फ ने छलक के मुझे


हमें खुद अपने सितारे तलाशने होंगे

ये एक जुगनू ने समझा दिया चमक के मुझे


बहुत सी नज़रें हमारी तरफ हैं महफ़िल में

इशारा कर दिया उसने ज़रा सरक के मुझे


मैं देर रात गए जब भी घर पहुँचता हूँ

वो देखती है बहुत छान के फटक के मुझे


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सर पर बोझ अँधियारों का है मौला खैर

और सफ़र कोहसारों का है मौला खैर


दुशमन से तो टक्कर ली है सौ-सौ बार

सामना अबके यारों का है मौला खैर


इस दुनिया में तेरे बाद मेरे सर पर

साया रिश्तेदारों का है मौला खैर


दुनिया से बाहर भी निकलकर देख चुके

सब कुछ दुनियादारों का है मौला खैर


और क़यामत मेरे चराग़ों पर टूटी

झगड़ा चाँद-सितारों का है मौला खैर


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वफ़ा को आज़माना चाहिए था, हमारा दिल दुखाना चाहिए था

आना न आना मेरी मर्ज़ी है, तुमको तो बुलाना चाहिए था


हमारी ख्वाहिश एक घर की थी, उसे सारा ज़माना चाहिए था

मेरी आँखें कहाँ नाम हुई थीं, समुन्दर को बहाना चाहिए था


जहाँ पर पंहुचना मैं चाहता हूँ, वहां पे पंहुच जाना चाहिए था

हमारा ज़ख्म पुराना बहुत है, चरागर भी पुराना चाहिए था


मुझसे पहले वो किसी और की थी, मगर कुछ शायराना चाहिए था

चलो माना ये छोटी बात है, पर तुम्हें सब कुछ बताना चाहिए था


तेरा भी शहर में कोई नहीं था, मुझे भी एक ठिकाना चाहिए था

कि किस को किस तरह से भूलते हैं, तुम्हें मुझको सिखाना चाहिए था


ऐसा लगता है लहू में हमको, कलम को भी डुबाना चाहिए था

अब मेरे साथ रह के तंज़ ना कर, तुझे जाना था जाना चाहिए था


क्या बस मैंने ही की है बेवफाई,जो भी सच है बताना चाहिए था

मेरी बर्बादी पे वो चाहता है, मुझे भी मुस्कुराना चाहिए था


बस एक तू ही मेरे साथ में है, तुझे भी रूठ जाना चाहिए था

हमारे पास जो ये फन है मियां, हमें इस से कमाना चाहिए था


अब ये ताज किस काम का है, हमें सर को बचाना चाहिए था

उसी को याद रखा उम्र भर कि, जिसको भूल जाना चाहिए था


मुझसे बात भी करनी थी, उसको गले से भी लगाना चाहिए था

उसने प्यार से बुलाया था, हमें मर के भी आना चाहिए था


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रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता हैं

चाँद पागल हैं अंधेरे में निकल पड़ता हैं


मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नहीं कट सकता

कोई फव्वारा नही हूँ जो उबल पड़ता हैं


कल वहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर

अपने रास्ते में जो वीरान महल पड़ता हैं


ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक हैं मगर दिल अक्सर

नाम सुनता हैं तुम्हारा तो उछल पड़ता हैं


उसकी याद आई हैं साँसों ज़रा धीरे चलो

धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता हैं


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ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था

मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था


तेरे सलूक तेरी आगही की उम्र दराज़

मेरे अज़ीज़ मेरा ज़ख़्म भरने वाला था


बुलंदियों का नशा टूट कर बिखरने लगा

मेरा जहाज़ ज़मीन पर उतरने वाला था


मेरा नसीब मेरे हाथ काट गए वर्ना

मैं तेरी माँग में सिंदूर भरने वाला था


मेरे चिराग मेरी शब मेरी मुंडेरें हैं

मैं कब शरीर हवाओं से डरने वाला था


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मोम के पास कभी आग को लाकर देखूँ

सोचता हूँ के तुझे हाथ लगा कर देखूँ


कभी चुपके से चला आऊँ तेरी खिलवत में

और तुझे तेरी निगाहों से बचा कर देखूँ


मैने देखा है ज़माने को शराबें पी कर

दम निकल जाये अगर होश में आकर देखूँ


दिल का मंदिर बड़ा वीरान नज़र आता है

सोचता हूँ तेरी तस्वीर लगा कर देखूँ


तेरे बारे में सुना ये है के तू सूरज है

मैं ज़रा देर तेरे साये में आ कर देखूँ


याद आता है के पहले भी कई बार यूं ही

मैने सोचा था के मैं तुझको भुला कर देखूँ


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बुलाती है मगर जाने का नईं

ये दुनिया है इधर जाने का नईं


मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर

मगर हद से गुजर जाने का नईं


सितारें नोच कर ले जाऊँगा

मैं खाली हाथ घर जाने का नईं


वबा फैली हुई है हर तरफ

अभी माहौल मर जाने का नईं


वो गर्दन नापता है नाप ले

मगर जालिम से डर जाने का नईं


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जो मेरा दोस्त भी है, मेरा हमनवा भी है

वो शख्स, सिर्फ भला ही नहीं, बुरा भी है


मैं पूजता हूँ जिसे, उससे बेनियाज़ भी हूँ

मेरी नज़र में वो पत्थर भी है खुदा भी है


सवाल नींद का होता तो कोई बात ना थी

हमारे सामने ख्वाबों का मसअला भी है


जवाब दे ना सका, और बन गया दुश्मन

सवाल था, के तेरे घर में आईना भी है


ज़रूर वो मेरे बारे में राय दे लेकिन

ये पूछ लेना कभी मुझसे वो मिला भी है


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