किसी वन में एक बहुत बड़ा वृक्ष था| उसमें बगुलों के अनेक परिवार निवास करते थे| उसी वृक्ष के कोटर में एक काला सर्प भी रहता था| अवसर मिलने पर वह बगुलों के उन बच्चों को मारकर खा जाया करता था जिनके पंख भी नहीं नहीं उगे होते थे| इस प्रकार बड़े आनन्दसे उसका जीवन व्यतीत हो रहा था| यह देखकर बगुले बड़े खिन्न रहते थे, किन्तु उनके पास कोई उपाय नही था| तब दु:खी होकर एक दिन एक बगुला नदी किनारे जाकर बैठ गया| रो-रोकर उसकी आँखें लाल हो गई थी|


बगुले को इस प्रकार रोता देखकर एक केकड़े ने उससे पूछा 'मामा! आज आप इस प्रकार क्यों रो रहे हैं?'


बगुला बोला, 'प्रिय! क्या बताऊं? हमारे वृक्ष के कोटरे में रहने वाले सर्प ने मेरे सारे बच्चे मार खाए हैं| यही मेरा दुःख है| क्या तुम इसका कोई उपाय बता सकते हो?'


केकड़ा सोचने लगा कि यह बगुला तो उसका जातिगत शत्रु है| अत: इसको कोई ऐसा उपाय सुझाया जाए कि जिससे इसके सारे साथी भी नष्ट हो जाएं| फिर उसने प्रत्यक्ष में कहा, मामा! यदि यही बात है तो तुम मछलियों की हड्डियाँ नेवले के बिल से उस सांप के बिल तक बिखेर दो| नेवला उस मछली के मांस को खाता हुआ स्वयं ही सर्प के बिल तक पहुँच जाएगा| वहां पर वह सांप को मार खाएगा|


बगुले की समझ में बात आ गई| उसने अपने साथियों को उपाय बताया ओर सबने मिलकर वह कार्य किया| तदनुसार नेवले ने न केवल मछलियों का मांस खाया अपितु सर्प को भी मारकर खा गया| किन्तु उसके बाद नेवला वहां से गया नही| उसने एक-एक करके सारे बगुलों को भी समाप्त कर दिया|


यह कथा सुनकर न्यायधीशों ने धर्मबुद्धि से कहा, 'इस मुर्ख पापबुद्धि से कहा, 'इस मुर्ख पापबुद्धि ने अपनी चोरी को छिपाने के लिए उपाय तो सोच लिया किन्तु उससे होने वाली हानि के विषय में तनिक भी नही सोचा| अब उसको उसका फल मिल रहा है|


उक्त दोनों कथाओं को समाप्त करने के बाद करटक में दमनक से कहा, 'उस पापबुद्धि की भांति तुमने अपनी स्वार्थसिद्धि का उपाय तो अवश्य सोचा किन्तु उससे होने वाली हानि का विचार नहीं किया| तुम पापबुद्धि की ही भांति तुमने अपनी स्वार्थसिद्धि का उपाय तो अवश्य सोचा किन्तु उससे होने वाली हानि का विचार नहीं किया| तुम पापबुद्धि की ही भांति दुर्मति हो| यदि तुम स्वामी को ही इस स्थिति में पहुंचा सकते हो तो फिर हमारे जैसे छोटे व्यक्तियों की गणना ही क्या है| अत: आज से तुम्हारा मेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है|'


'कहा भी है कि जिस स्थान से सहस्त्र पलों की बनी हुई तराजू को भी चूहे खा सकते हैं वहां यदि बाज किसी बालक को उठा ले जाता है तो इसमें सन्देह करने की कोई बात नहीं है|


 एक बार एक गीदड़ उस जंगल में चला गया जहां दो सेनाएं युद्ध कर रही थी| दोनों सेनाओं के मध्य क्षेत्र में एक नगाड़ा रखा था| गीदड़ बेचारा कई दिनों से भूखा था नगाड़े को ऊँचे स्थान पर रखा देखकर वह कुछ देर के लिये रूका|


देखते ही देखते हवा के एक झोंके से नगाड़ा नीचे गिर गया फिर आसमान से वृक्षों में लटकी टहनियां हवा में उस नगाड़े पर पड़ने लगीं तो उसमें से आवाज आने लगी|


गीदड़ इन आवाजों को सुनकर डर गया| सोचने लगा कि अब क्या होगा? क्या मुझे यहां से भागना होगा?


नहीं....नहीं| मैं अपने पूर्वजों के जंगल को छोड़कर नहीं जा सकता| भागने से पहले मुझे इस आवाज का रहस्य तो जानना ही होगा|


यही सोचकर वह धीरे-धीरे उस नगाड़े के पास पहुंच गया, कितनी ही देर तक उसे देखते रहने के पश्चात् वह सोचने लगा कि यह नगाड़ा तो बहुत बड़ा है| इसकी शक्ति भी कुछ कम नहीं फिर इसका पेट भी बहुत बड़ा है| इसको चीरने से तो बहुत चर्बी और मांस खाने को मिलेगा|


वाह-वाह...अब तो खूब आनन्द आएगा खाने में|


बस यही सोचकर उस गीदड़ ने नगाड़े का चमड़ा फाड़ दिया और भीतर घुस गया| उसके अन्दर था ढोल का पोल|


गीदड़ वहां पर कुछ भी न पाकर बहुत निराशा हुआ इस नगाड़े को फाड़ने में तो उसके दांत भी टूट गए थे| किन्तु मिला क्या कुछ भी नहीं बस इस नगाड़े से डर रहा था| तो भी कुछ नहीं हुआ| वह स्वयं से कहने लगा, देखो केवल आवाज से ही नही डरना चाहिए| इंसान को बुजदिल भी नहीं बनना चाहिये|


शेर न दमनक की ओर देखकर कहा|


देखे भद्र, मेरे साथी इस समय बहुत डरे हुए है| यह सब के सब भाग जाना चाहते थे| बताओ मैं अकेला क्या करूं?


यह इनका दोष नहीं महाराज, आप तो जानते ही है जैसा राजा वैसी प्रजा फिर...|


घोड़ा, शस्त्र, शासन, वीणा, वाणी, नर और नारी यह सब पुरूष विशेष को पाकर योग्य और अयोग्य होते है, इसलिए आप तब तक यही रहें जब तक मैं पूरी सच्चाई का पता लगाकर वापस न आऊं|


क्या आप वहां जाने का इरादा रखते हो|


जी हां महाराज| अच्छे और वफादार दास का जो कर्तव्य है मैं उसे पूरा करूंगा| बड़े लोग यह कह गये है अपने मालिक का कहना मानने में भी झिझकना नहीं चाहिए| चाहे उसे सांप का मुंह में या सागर की गहराइयों में ही क्यों न जाना पड़े| अपने मालिक के आदेशों का जो भी सेवक यह नहीं सोचता कि वह कठिन है अथवा सरल वही महान होता है|


पिंगलक दमनक की बातों को बहुत खुश हो गया था, उसने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, यदि यह बात है तो जाओ भगवान तुम्हें इस काम में सफलता दे|


धन्यवाद! मेरी मालिक, भगवान ने चाहा तो सफलता पाकर ही लौटूगा| इतना कहकर दमनक वहां से उठकर रस और चल दिया जहां से इस बैल की आवाज सुनी गई थी|


दमनक के चले जाने के पश्चात् शेर सोचने लगा कि मैंने यह अच्छा नहीं किया जो अपने सारे भेद बता दिए कही यह शत्रु का जासूस सिद्ध कर रहा हो| यह भी हो सकता है कि वह मुझसे पुराना बदला चुकाना चाहता हो क्योंकि मैंने इसे पड़ से हटाया था| इस बारे में कहा गया है|


जो लोग राजा के यहां पहले से ऊंचे पद पर होते हुए बड़ी इज्जत मान रखते हैं यदि उन्हे उस पद से हटा दिया जाए तो वे अच्छे होते हुए भी उस राजा के शत्रु बन जाते है| वे अपने अपमान का बदला लेना चाहते हैं इसलिए मैं उस दमनक को परखने के लिए वहां जाकर दूसरे स्थान पर रहना शुरू कर देता हूं| यह भी हो सकता है कि दमनक उसे साथ लेकर मुझे मरवा ही डाले| ऐसे ही लोगों के बारे में कहा गया है|


विश्वास न करने वाले कमजोर प्राणी बलवानों से भी नहीं मर सकते और कभी-कभी बलवान भी विश्वास करने पर कमजोर के हाथों मारे जाते है|


कसमें खाकर संधि करने वाले शत्रु का भी विश्वास नहीं करना चाहिये| राज्य प्राप्त करने के लिए उद्धत वृत्रासुर के समान ही इन्द्र द्वारा माना जाता है|


देवताओं का शत्रु भी बिना विश्वास दिलाए बस मैं नहीं होता| इसी विश्वास के धोखे से तो इन्द्र के दिवि के गर्भ को नष्ट कर दिया था|


यह सब सोचकर पिंगलक किसी दूसरे स्थान पर जाकर दमनक के रास्ते को देखते हुए किसी दूसरी जगह पर जाकर बैठ गया|


दमनक जैसे ही बैल के पास पहुंचा वह दिल ही दिल में खुश हो रहा था| क्योंकि उसे अपने पुराने मालिक को खुश करने पर अपनी खोई हुई इज्जत प्राप्त करने का एक सुन्दर अवसर मिला था|


बैल से मिलकर वह वापस अपने मालिक के पास जाने लगा तो सोच रहा था विद्वानों ने ठीक ही कहा है|


राजमंत्रियों के कहने पर उस समय उस दयालु और सच्चाई के मार्ग पर नहीं चलता, जब तक वह स्वयं दुःख न उठा ले| दुःख में और मुसीबत में फँसकर ही राजा को वास्तविक जीवन का पता चलता है| इसलिए मंत्री लोग दिल से चाहते है कि राजा भी कभी-न-कभी दुःख झेले|


जैसे स्वस्थ प्राणी किसी अच्छे डाक्टर को नहीं चाहता वैसे ही दु:खों और संकटों से बचा हुआ राजा किसी अच्छे मंत्री को नहीं चाहता|


यही सोचता हुआ दमनक वापस शेर के पास पहुंच गया| शेर भी दूर से आता उसे देख रहा था| उसने पहले से ही अपने को आते हुए खतरे का मुकाबला करने के लिए तैयार कर रखा था|


दमनक को अकेले आते देखकर वह समझ गया था कि डर वाली कोई बात नहीं| उसने दमनक से पूछा|


मित्र! तुम उस भयंकर जानवर से मिल आए हो? जी हां|


क्या वह अभी वहीं है शेर ने आश्चर्य से पूछा| 


महाराजा क्या आप यह सोच सकते है कि मैं अपने मालिक के सामने झूठ बोलूंगा| आपको याद नहीं|


जो पुरूष राजा और विद्वानों के आगे झूठ बोलता है वह कितना ही महान क्यों न हो, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है|


पिंगलक (शेर) बोला-यह ठीक है तुमने उसे देखा होगा| छोटों पर बड़े क्रोध नहीं करते इसलिए उसने तुम्हें कुछ नहीं कहा होगा|


महाराज! कभी भी नीचे झुक तिलकों को धरती पर बिछी हुई घास कुछ नहीं कहती| सदा बड़े ही बड़ो पर अपने शक्ति दिखाते हैं|


जैसेम मस्त भंवरे जब किसी हाथी के कान के निकट जाकर जब अपना राग अलापते है तो वह हाथी कभी उसे भंवरे पर गुस्सा नहीं करता क्योंकि बलवान सदा बलवान पर गुस्सा करता हो|


ठीक है मेरे मित्र! मैं तुम्हारी बातों से खुश हुआ| अब उस भयंकर जानवर के बारे में भी तो कुछ बताओ, जिसकी गर्जना से जंगल कांप उठता है|


जो महाराज यदि आप कहें तो मैं उस भयंकर जानवर को भी आपकी सेवा में ला दूं| पिंगलक ने एक ठंडी सांस धरते हुए कहा| क्या यह हो सकता है?


महाराजा बुद्धि से क्या नहीं हो सकता| यह बात भी सत्य है कि बुद्धि द्वारा जो काम बन सकता है वह हथियारो से नहीं बनता|


यदि ऐसा तुम कर दिखाओगे दमनक तो मुझे बहुत पहले खुशी होगी, वैसे मैं तुम्हारी बातों से बहुत प्रभावित हुआ हूं| आज से तुम्हें अपना मित्र बनाता हूं| मेरे सारे काम को तुम ही देख रेख करोगे|


धन्यवाद महाराज! मैं आपको वचना देता हूं कि मैं आपकी सेवा सच्चे दिल से करूंगा| आप मुणे आशीर्वाद दें कि मैं उस भयंकर जानवर को ले आकर उसे आपके रास्ते से हटा सकूं| जाओ दमनक मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ है|


दमनक अपने पुराने मालिक और अपने खोए हुए पद को पाकर अत्यंत खुश हो गया था| वह वहां से सीधा उस बैल के पास पहुंचा, जाते ही उसने बैल से कहा|


ओ दुष्ट बैल! इधर आ, मेरा मालिक पिंगलक तुझे बुला रहा है|


उसकी बात सुनते ही बैल ने आश्चर्य से पूछा-मित्र यह पिंगलक कौर है|


अरे क्या तू मेरे मालिक को नहीं जानता| कमाल है तुझे इस जंगल में रहकर भी नहीं पता कि वहां सामने बड़ के पेड़ के नीचे पिंगलक नाम का शेर रहता है|


बैल उसके मुंह से योग की बात सुनकर डर-सा गया किन्तु फिर भी अपने आपको संभालता हुआ बोला-देखो मित्र यदि तुम मुझे अपने मालिक के पास ले जाना चाहते हो तो मेरी रक्षा की सारी जिम्मेदारी तुम पर ही होगी|


हां, हां मित्र तुम ठीक कहते हो| मेरी नीति भी यही है| धरती सागर और पहाड़ का तो अन्त पाया जा सकता है किन्तु राजा के दिल का भेद आज तक किसी ने नहीं पाया इसलिए तुम इस समय तक यहां पर ठहरो जब तक मैं अपने मालिक से सारी बात करके वापिस न आ जाऊं|


ठीक है मित्र! मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा| बैल ने हंसकर उत्तर दिया|


दमनक बैल को नहीं छोड़कर खुशी से छलांग लगाता हुआ फिर शेर के पास पहुंचा| शेर अपने मंत्री को आते देखकर खुश था| उसने पूछा-


कहो मंत्री! क्या खबर लाए हो?


महाराज वह कोई साधारण बैल नहीं है| वह तो भगवान शंकर का वाहन बैल है| स्वयं शंकर जी ने उसे इस जंगल में खाने के लिए भेजा है|


पिंगलक ने हैरानी से कहा-अब मुझे ठीक-ठीक बात पता चल गई| वह बैल इस जंगल में क्यों आता है| इसके पास देवताओं की शक्ति है| अब यहां के जीव-जन्तु उसके सामने आजादी से नहीं धूम सकते मगर मंत्री तुमने उससे क्या कहा?-


मैंने उससे कहा, ये जंगल चंडी के वाहन मेरे राजा पिंगलक नामक शेर के अधिकार में है इसलिए आप हमारे मेहमान हैं| मेहमान की सेवा करना हमारा सर्वप्रथम धर्म है| इसलिए मैं अपने राजा की ओर से आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप हमारे साथ रहें|


वह क्या बोला?


महाराज! वह मेरे साथ आने को तैयार हो गया| अब तो मैं केवल आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा हूं कहो तो उसे आपसे पास ले आऊं|


दमनक तुमने हमारे दिल की बात कह दी| मैं बहुत खुश हूं| जाओ तुम जल्दी से उसे मेरे पास ले जाओ| मुझे तो यह बात बार-बार याद आती है|


जैसे शक्तिशाली खम्भों पर भवन खड़ा किया जाता है वैसे ही बुद्धिमान मंत्री के कंध पर राज्य को बोझ डाला जाता है|


दमनक अपने राजा के मुंह से पानी प्रशंसा सुनकर बहुत खुश हुआ और फिर वहां से वापिस उस बैल की ओर चल दिया|


बैल दमनक की बात सुनकर बहुत खुश हुआ और शेर का निमत्रंण पाते ही बोला| जैसे-


सर्दी में आग अमृत जैसी है, अपने मित्र का दर्शन अमृत है दूध का भोजन खीर अमृत है और राज साज सम्मान घी ऐसे ही अमृत हैं हम अपने मित्र सिंह के पास चलेंगे|


दमनक ने बैल से कहा-देखो मित्र! मैं तुम्हें वहां पर ले जा रहा हूं| मैंने ही शेर से तुम्हारी मित्रता करवाई है| इसलिए तुम्हें मुझे यह वचन देना होगा कि तुम सदा मेरे मित्र बने रहना| राजा सदा राजा ही रहता है मंत्री ही किन्तु शिकारी की नीति से राज्य वैभव मनुष्यों के बस में हो जाता है| एक तो प्रजा को प्रेरित करता है दूसरा यानि शिकारी मृगों की भांति उसे मार देता है|


जो प्राणी गर्व के कारण उत्तम, मद्धम और अद्धम इन तीनों प्रकार के मनुष्यों का यथा सत्कार नहीं करता वह राजा से आदर पाकर भी दम्तिल के समान भ्रष्ट हो जाता है


 एक बेचारा गधा भूखा प्यासा इधर-उधर घूमा करता था| एक दिन उसकी मित्रता एक गीदड़ के साथ हो गई| गीदड़ के साथ रहकर वह गधा खूब मौज मस्ती मारता| इस प्रकार वह दिन रात मोटा होने लगा|


एक रात वह गीदड़ के साथ खरबूजे के खेतों में खूब माल खा रहा था, खाते-खाते गधे ने कहा-मामा क्या मैं तुम्हें राग सुनाऊं मुझे बहुत अच्छा राग आता है| गीदड़ बोला, ओ भांजे हम यहां चोरी करने आये हैं, यह राग गाने का समय नहीं है| कहा भी है कि खांसी वाले आदमी को चोरी नहीं करनी चाहिए, रोगी को जबान का स्वाद छोड़ देना चाहिए| तुम्हारा गाना सुनकर खेत के रखवाले पकड़ लेंगे या फिर आकर मारेंगे| मामा तुम जंगली होकर गीत का आनन्द नहीं जानते हो| विद्या तो कला है जिस पर देवता भी मोहित हो जाते हैं|


गीदड़ बोला, हे भांजे तुम तो गाना नहीं जानते हो खाली रेंकते हो| बेताल और बेसुरा|


गधा क्रोध से बोला-क्या मैं गाना नहीं जानता अरे सात स्वर, तीन ग्राम, इक्कीस मूर्क्छन, उनन्चास ताल, नवरस छत्तीस रंग, चालीस रंग, चालीस भाग यह कुल १६५ गाने के भेद प्राचीनकाल में रतमुनि के वेद सार रूप कहे हैं| मैं अनजान हूं|


अच्छा भांजे मैं खेत से बाहर जाकर खेत के रखवाले को देखता हूं| तब तुम खुलकर गाना| इतना कह गीदड़ चला गया| गधा अपना राग अलापने लगा| गधे की आवाज सुनकर खेत का रक्षक भागा आया| उसने लाठियों से गधे की खूब पिटाई की, वह गिर गया| फिर संभलकर वहां से भाग खड़ा हुआ|


गधे को भागते देख गीदड़ बोला क्यों भांजे! आया मजा बेवक्त गाने का|


 एक तालाब में दो मगरमच्छ रहते थे| एक मेंढक से उनकी दोस्ती हो गई| इस प्रकार वे तीनों तालाब में रहने लगे ओर अपना दुख-सुख कहकर मन बहलाते रहते| मेंढ़क को यह पता नहीं था कि इन दोनों मगरमच्छों में से एक मन्दबुद्धि और दूसरा अहंकारी है|


एक दिन वे तीनों तालाब के किनारे बैठे बातचीत कर रहे थे कि एक शिकारी हाथ में जाल ओर सिर पर बहुत सी मछलियां रखे आया ओर तालाब की ओर देखकर बोला, यहां तो काफी मछलियां लगती हैं, इन्हें कल आकर पकडूंगा|


शिकारी के जाने के पश्चात् तीनों मित्र सोच में पड़ गए| मेंढ़क ओर तेज बुद्धि मच्छ से बोले कि हमें यहां से भाग जाना चाहिए|


लेकिन अहंकार से भरा मंदबुद्धि मच्छ बोला-नहीं, हम यहां से भागेंगे नहीं|


प्रथम तो वह आएगा नहीं, यदि आ गया तो मैं अपनी ताकत और बुद्धि से तुम्हारी रक्षा करुंगा| मन्द बुद्धि अपने मित्र की बात सुन झट से बोला|


हां...हां... मेरा मित्र ठीक कह रहा है| यह शक्तिशाली भी है और बलवान भी| तभी तो इसे अहंकार है| ठीक ही कहा जाता है बुद्धिमान के लिये ऐसा कोई काम नहीं जिसे वह न कर सके| दोनों सशस्त्र नन्दों का चाणक्य ने अपनी बुद्धि द्वारा नाश कर दिया था| जहां पर रवि की किरणें और वायु नहीं पहुंचती हैं इसलिए हम यहां से भागकर कहीं भी नहीं जाएंगे|


मेंढ़क उन दोनों की बातें सुनकर बोला मित्रों! मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं, इसलिये मैं आज ही अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर भाग रहा हूं| यह कहकर मेंढ़क वहां से चला गया|


फिर एक दिन वह शिकारी आया और अपने जाल में फंसाकर उन दोनों मच्छों की हत्या कर दी और उन्हींकी खाल बेचकर धनवान बन गया|


इसलिए कहा गया है कि अपने से छोटों की बात को ध्यान से सुनना चाहिए|


 पुराने जमाने की बात है। एक शहर में दो व्यापारी आए। इनमें से एक घी का कारोबार करता था, तो दूसरा चमड़े का व्यापार करता था। संयोग से दोनों एक ही मकान में पहुंचे और शरण मांगी। मकान मालिक ने रात होने पर घी वाले व्यापारी को भीतर सुलाया और चमड़े वाले को बाहर बरामदे में।


दूसरे दिन वे माल खरीदने गए। उस रात मकान मालिक ने चमड़े वाले को भीतर सुलाया और घी वाले को बाहर। इस पर दोनों व्यापारी बेहद चकित हुए। उन्होंने जब इसका कारण पूछा तो मकान मालिक ने कहा, ‘मैं अतिथि की भावना के अनुसार उसके साथ व्यवहार करता हूं। माल खरीदते जाते समय आप दोनों चाहते थे कि माल सस्ता मिले। घी तभी सस्ता मिल सकता है जब देश में खुशहाली हो लेकिन चमड़ा तभी सस्ता मिल सकता है जब अधिक पशुओं की हत्या हो। इसलिए मैंने घी के व्यापारी को भीतर सुलाया और चमड़े के व्यापारी को बाहर।


परंतु लौटकर आने पर आप दोनों की स्थिति में अंतर हो गया। आप दोनों चाहते थे कि माल महंगा बिके तो अधिक मुनाफा हो। घी-दूध की कमी होने से ही घी महंगा हो सकता है। देश में दूध-दही और घी के अभाव की कामना तो दुर्भावना है। चमड़ा तभी महंगा हो सकता है जब पशु हत्या कम हो। यह अहिंसक भावना अच्छी है। इसलिए लौटते समय आज आपकी स्थिति के अनुरूप ही स्थान में परिवर्तन करके सुलाया गया।’


दोनों व्यापारी इस विश्लेषण से दंग रह गए। मकान मालिक ने फिर कहा, ‘ठीक है कि आप लाभ के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं पर मनुष्यता को दरकिनार करके व्यापार करने का कोई अर्थ नहीं है।’ उन व्यापारियों के ऊपर उस व्यक्ति की बातों का गहरा असर पड़ा। उन्होंने लौटते हुए इस पर आपस में बातचीत की और यह तय किया कि वे अपने भाव को सुधारेंगे। भले ही लाभ हो या न हो या कम हो, पर वे अपनी मंशा साफ रखेंगे।


 कदीशा की घाटी में, जिसमें होकर एक वेगवती नदी बहती थी, दो छोटे-छोटे जल प्रवाह आ मिले और परस्पर बातचीत करने लगे। एक जल प्रवाह ने पूछा- मेरे मित्र! तुम्हारा कैसे आना हुआ, रास्ता ठीक था न? दूसरे ने उत्तर दिया- रास्ते की न पूछो बड़ा ही बीहड़ था।


पनचक्की का चक्र टूट गया था और उसका संचालक, जो मेरी धारा को अपने पौधों व वृक्षों की ओर ले जाता था, चल बसा। उसके जाने से मैं तो अकेला ही रह गया। बड़ी मुश्किल से यहां तक आया हूं। बहुत संघर्ष करके, धूप में अपने निकम्मेपन को सूर्य-स्नान कराने वालों की गंदगी को साथ लिए मैं सरक आया हूं, किंतु मेरे बंधु! तुम्हारा पथ कैसा था? पहले ने उत्तर देते हुए कहा- मेरा पथ तुमसे भिन्न था।


मैं तो पहाड़ी से उतरकर सुगंधित पुष्पों और लचीली बेलों के मध्य से होकर आ रहा हूं। स्त्री-पुरुष मेरे जल का पान करते थे। किनारे पर बैठकर छोटे-छोटे बच्चे अपने गुलाबी पैरों को पानी में चलाते थे। मेरे चारों ओर उल्लास और मधुर संगीत का वातावरण था। उसी समय नदी ने ऊंचे स्वर में कहा- चले आओ, चले आओ! हम सब समुद्र की ओर जा रहे हैं। अब अधिक वार्तालाप न करो और मुझमें मिल जाओ। हम सब समुद्र से मिलने जा रहे हैं। चले आओ, अपनी यात्रा के सारे सुख-दुख विस्मृत हो जाएंगे, जब हम अपनी समुद्र माता से मिलेंगे।


इस प्रतीकात्मक कथा का गूढ़ार्थ यह है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा का परमात्मा से मिलन अनिवार्य है, जो परम सुख है। अत: जीवन में सुख या दुख जो भी मिलें, उन्हें ईश्वर का प्रसाद मानकर ग्रहण कर लें। ऐसा करने पर हमारा अंत समय दिव्य आत्मिक शांति से ओतप्रोत रहता है।

 

 डच साम्राज्य ने इंडोनेशिया पर हमला करके उसे अपने साम्राज्य में मिलाने की सोची। वहीं दूसरी ओर इंडोनेशिया के नवयुवकों ने भी तय कर लिया था कि मर मिटेंगे, लेकिन डचों को देश में नहीं आने देंगे। सेना में युवकों की भर्ती होने लगी। एक गुरिल्ला दल बना। दल की पहली टुकड़ी के लिए युवकों का चयन होने लगा।


इस पहली टुकड़ी में सुवर्ण मार्तदिनाथ नाम का युवक भी जाना चाहता था। राष्ट्र के लिए बलिदान हो जाने की ललक उसमें जबर्दस्त थी किंतु पहली टुकड़ी में उसे अवसर नहीं मिल पाया। उसके बड़े भाई को मौका मिला। तब मार्तदिनाथ ने अपने भाई से कहा- ‘भैया! यूं तो आप बड़े हैं लेकिन इस बार पहला अवसर मुझे दीजिए।’ इस पर बड़े भाई ने समझाया ‘मर मिटने के लिए तो सभी तैयार हैं। पहले क्या और बाद में क्या? सभी एक साथ मर मिटेंगे, तो उसका लाभ क्या होगा? मोमबत्ती का कण-कण जलता रहे, तो प्रकाश मिलता है।


एक साथ भभककर जलने से तो प्रकाश नहीं मिल सकता। मेरा नाम वापस नहीं हो सकता और तुम्हारी जिद देखकर कहीं नायक ने तुम्हें भी साथ भेज दिया तो अच्छा नहीं होगा। जोश ही नहीं, होश भी चाहिए। तुम होश में काम लो।’ मार्तदिनाथ नहीं माना और पहली टुकड़ी में ही गया। वीरता से लड़ा और जीवित लौट आया। दूसरी टुकड़ी में उसके बड़े भाई गए और लड़ते हुए मारे गए। मार्तदिनाथ दुखी हुआ कि प्राण विसर्जन भी न कर सका और बड़े भाई की आज्ञा का उल्लंघन भी किया। उनसे क्षमा भी न मांग सका।


सार यह कि स्वयं में आज्ञाकारिता का गुण पैदा करना चाहिए। इससे महान कार्य संपादित होते हैं अन्यथा व्यक्ति आजीवन अपराधबोध से ग्रस्त रहता है।


 किसी नगर में एक सेठ रहता था| उसके पास बहुत धन था| उसकी तिजोरियां हमेशा मोहरों से भरी रहती थीं, लेकिन उसका लोभ कम नहीं होता था| जैसे-जैसे धन बढ़ता जाता था, उसकी लालसा और भी बढ़ती जाती थी|


सेठ बहुत ही कंजूस था| कभी किसी को एक कौड़ी भी नहीं दे सकता था| अगर कोई उसके दरवाजे पर आकर हाथ फैलाता तो वह उसे दुत्कार देता|


संयोग की बात कि एक दिन उसके यहां एक साधु आया| उसे देखकर अचानक सेठ को जाने क्या हुआ कि उसने एक पैसा उसकी झोली में डाल दिया| साधु चला गया|


लेकिन सेठ ने आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उसने देखा कि शाम को उसे एक मोहर प्राप्त हो गई है| पैसे के बदले में मोहर! वाह! मारे खुशी के वह कूदने लगा, परंतु थोड़ी ही देर में उसकी सारी खुशी काफूर हो गई उसके भीतर कोई कह रहा था - 'ओ मुर्ख! तूने साधु को पैसा ही क्यों दिया? यदि एक मोहर दी होती तो तू न जाने कितना मालामाल हो जाता!'


इस विचार के आते ही सेठ ने अपने को धिक्कारा| हां सचमुच उसने मूर्खता की अब वह साधु के आने की बाट जोहने लगा, पर उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी अगले दिन ही वह साधु फिर आ गया|


साधु को देखते ही सेठ ने झट अपनी तिजोरी से एक मोहर निकाली और साधु की झोली में डाल दी| मोहर लेकर साधु चला गया तो सेठ के लिए एक-एक पल एक-एक युग के समान हो गया| वह चाहता था कि कैसे भी शाम हो जाए|


पर शाम तो हुई और रात भी हो गई, लेकिन उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई| मोहरें मिलना तो दूर, हाथ में आई मोहर भी निकल गई| वह सिर धुनने लगा| तभी आकाशवाणी हुई - 'सेठ याद रख, त्याग फलता है, लोभ छलता है|'


प्रतेक  मनुष्य के विकास की असीम क्षमताएं उसके भीतर मौजूद होती हैं। सुप्त रूप में रहने वाली इन क्षमताओं के विकास के लिए आंतरिक प्रेरणा तो जरूरी होती है, बाह्य वातावरण का प्रभाव भी कम महत्व नहीं रखता। रामायण में हनुमान और जाम्बवंत का यह प्रसंग इसी तथ्य को सिद्ध करता है। यह सर्वविदित है कि हनुमानजी की शक्ति अतुलनीय थी, किंतु एक मुनि के श्राप से वे अपनी क्षमताओं को भुल गए थे। इस श्राप का निदान यह था कि कोई अन्य व्यक्ति उन्हें अपने बल का स्मरण कराए तो उन्हें यह विस्मृत बात याद आ जाएगी।सीता माता की खोज में जब श्रीराम की सेना दक्षिणी छोर पर समुद्र तक पहुंची, तो आगे सागर पारकर लंका जाने की कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई। सभी चिंतित व परेशान थे। समुद्र पार कैसे करें?तब जाम्बवंत आगे आए और उन्होंने हनुमान को अपने पूर्वकाल का असीम बल तथा क्षमताओं के विषय में स्मरण कराया। तब हनुमानजी को सब कुछ याद आ गया और उन्होंने पुन: अपनी शक्तियों को प्राप्त कर लिया। जिनके बल पर वे सहज ही छलांग लगाकर समुद्र पार कर लंका पहुंच गए। वहां जाकर रावण और उनकी सेना को छठी का दूध याद दिलाया और सीता माता से भेंटकर उनका संदेश श्रीराम को लाकर दिया। अपनी प्रिय भार्या का संदेश सुनकर श्रीराम में भी एक अद्भूत बल का संचार हुआ और उनकी सेना अपने नायक को जोश में देखकर एक नवीन स्फूर्ति से भर गई। ऐसे उत्साहजनक माहौल में समुद्र पर पुल बनाना और लंका पहुंचकर रावण को मारकर युद्ध में विजयश्री का वरण करना आदि घटनाएं सर्वज्ञात ही हैं।वस्तुत: जाम्बवंत का हनुमान को प्रोत्साहन इस कड़ी का महत्वपूर्ण बिंदू है क्योंकि उन्होंने ही हनुमान के भीतर आत्मविश्वास और आंतरिक प्रेरणा को जागृत किया था।कहने का आशय है कि यदि हम दूसरों को प्रोत्साहन देकर उनमें छिपी क्षमताओं को बाहर लाने का कार्य करें, तो समाज को अधिकतम सकारात्मकता की ओर मोड़ा जा सकता है।


 भगवान बुद्ध श्रावस्ती में ठहरे हुए थे। वहां उन दिनों भीषण अकाल पड़ा था। यह देखकर बुद्ध ने नगर के सभी धनिकों को बुलाया और कहा, ‘नगर की हालत आप लोग देख ही रहे हैं। इस भयंकर समस्या का समाधान करने के लिए आगे आइए और मुक्त हाथों से सहायता कीजिए।’ लेकिन गोदामों में बंद अनाज को बाहर निकालना सहज नहीं था। श्रेष्ठि वर्ग की करुणा जाग्रत नहीं हुई। उन्होंने उन अकाल पीडि़त लोगों की सहायता के लिए कोई तत्परता नहीं दिखाई।


उन धन कुबेरों के बीच एक बालिका बैठी थी। भगवान बुद्ध की वाणी ने उसको झकझोर दिया। वह उठकर बुद्ध के सामने पहुंची और सिर झुका कर बोली, ‘हे प्रभु, मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं लोगों के इस दुख को हल्का कर सकूं।’ उस बालिका के ये शब्द सुनकर भगवान बुद्ध चकित रह गए। उन्होंने कहा कि बेटी जब नगर के सेठ कुछ नहीं कर पा रहे तो तुम क्या करोगी? तुम्हारे पास है ही क्या? तब हाथ जोड़कर लड़की बोली, ‘भगवन, आप मुझे आशीर्वाद तो दीजिए। मैं घर-घर जाकर एक-एक मुट्ठी अनाज इकट्ठा करूंगी और उस अनाज से मैं भूखों की मदद करूंगी। भगवन, जो मर रहे हैं वे भी तो हमारे ही भाई-बहन हैं। उनकी भलाई में ही हमारी भलाई है।’ इतना कहकर वह बालिका फूट पड़ी। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी।


भगवान बुद्ध अवाक रह गए। सारी सभा स्तब्ध रह गई। आंसुओं के बीच लड़की ने कहा, ‘बूंद-बूंद से घट भर जाता है। सब एक-एक मुट्ठी अनाज देंगे, तो उससे इतना अनाज इकट्ठा हो जाएगा कि कोई भूखा नहीं मरेगा। मैं शहर-शहर घूमूंगी, गांव-गांव में चक्कर लगाऊंगी और घर-घर झोली फैलाऊंगी।’ बालिका की वाणी ने धनपतियों के भीतर के सोते इंसान को जगा दिया। उन्हें बालिका की निर्मलता और सामाजिक सरोकार देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर क्या था! अनाज के गोदामों के दरवाजे खुल गए और अकाल की समस्या जल्दी ही समाप्त हो गई।

 


 किसी सरोवर में अनागत विधाता, प्रत्युत्पन्नमति और यद्भविष्य नामक तीन मत्स्य रहते थे| एक दिन की बात है कि उस तालाब की ओर से कुछ मछुआरे निकले और उसमें देखकर कहने लगे| अरे! सरोवर तो मछलियों से भरा पड़ा है| आज तक हमारी दृष्टि इस पर गई ही नहीं| चलो आज का कम तो बन गया है और अब समय भी नहीं रहा है, कल प्रात:काल यहां आकार मछली पकड़ेंगे|


वे तो इतना कहकर चलेत बने किन्तु अनागत विधाता ने जब यह सुना तो उसके होश भी उड़ गए| उसने सब मछलियों को बुलाकर कहा, 'उन मछुआरों की बात को तो आप लोगों ने सुन ही लिया होगा| आज का समय हमारे पास है अत: यहां से निकलकर किसी अन्य सरोवर में शरण लेनी चाहिए, क्योंकि बलवान के सम्मुख निर्बल को भागकर अपने प्राण बचा लेने चाहिए|'


यह सुनकर प्रत्युत्पनमति ने कहा, 'इनका कहना ठीक है, मेरा भी यही मत है कि हमें अन्यत्र शरण लेनी चाहिए|'


यह सुनकर यद्भविष्य को हंसी आ गई| उसने कहा, 'मित्र! आप लोगों का निर्णय कुछ उचित नहीं है| उनकी बात से भयभीत होकर अपने पिता और पितामहों के इस सरोवर को छोड़कर चला जाना उचित नहीं| यदि आयु की क्षीणता के कारण विनाश होना ही है तो वह अन्यत्र जाकर भी होगा ही, मृत्यु को कौन टाल सकता है? इसलिए मैं तो यहां से नहीं जाऊंगा| आप जो उचित समझें करें|


यद्भविष्य के कहने पर भी अनागत विधाता और प्रत्युत्पन्नमति तो अपने-अपने परिजनों तथा अनुयायिओं को लेकर अन्यत्र चले गए| यद्भविष्य वहीं रहा| दूसरे दिन प्रात:काल मछुआरे आए| यद्भविष्य का परिवार तथा अन्य शेष सभी मछलियों को लेकर वे उस सरोवर को मछलियों से विहीन करके अपने घर चल दिए|


यह कथा सुनकर टिटि्भ बोला, 'तो क्या तुम मुझे भी उस यद्भविष्य की भांति ही समझ रही हो? अब तुम मेरे बुद्धिबल को देखो| मैं अपनी बुद्धि से इस दुष्ट समुद्र को सोख डालता हूं|'


'समुद्र ओर तुम्हारी क्या समता? उस पर तुम्हारा क्रोध उचित नहीं| अपनी और शत्रु की शक्ति को जाने बिना जो युद्ध के लिए प्रस्तुत होता है वह आग की ओर बढ़ने वाले पतंगों की भांति स्वयं ही नष्ट हो जाता है|'


पत्नी की बात सुनकर पति ने कहा, 'तुमने देखा नहीं सिंह शरीर से छोटा होने पर भी मदोन्मत्त विशालकाया हाथी को भी क्षणभर में चित कर देता है| मैं अपनी इसी चोंच से इसका सारा चल पीकर इसे मरूस्थल बना दूंगा|


पत्नी बोली, 'नौ सौ नदियों को लेकर गंगा और नौ सौ ही नदियों का जल लेकर सिन्धु नदी जिसको प्रतिदिन भरती रहती हैं उस समुद्र को तुम अपनी बिन्दुमात्र वाहिनी चोंच से कैसे सुखा पाओगे?'


'साहस करने वाले के लिए कोई कार्य असम्भव नहीं है|'


'यदि आपका यह दृढ निश्चय ही है तो फिर अन्य पक्षियों को भी बुला लो| क्योंकि अशक्त व्यक्तियों का भी यदि समूह हो तो वह दुर्जेय होता है जिस प्रकार साधारण घास के तिनकों से बनी रज्जु से बलवान हाथी भी बाँध दिए जाते हैं| इतना ही नहीं चिड़िया और कठफोडुआ तथा मक्खी और मेंढक ने मेल से हाथी तक को मार गिराया था|'


कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा यानी दीपावली का अगला दिन गोवर्धन पूजन, गौ पूजन के साथ-साथ अन्नकूट पर्व भी मनाया जाता है। अन्नकूट पूजा में भगवान विष्णु अथवा उनके अवतार और अपने इष्ट देवता का इस दिन विभिन्न प्रकार के पकवान बनाकर पूजन किया जाता हैं। इसे छप्पन भोग की संज्ञा भी दी गई हैं। इस दिन सुबह ही नहा धोकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर अपने इष्टों का ध्यान करते हैं। इसके पश्चात अपने घर या फिर देव स्थान के मुख्य द्वार के सामने गोबर से गोवर्धन बनाना शुरू किया जाता है। इस पर रूई और करवे की सीकें लगाकर पूजा की जाती है। गोबर पर खील, बताशा और शक्कर के खिलौने चढ़ाये जाते हैं। गांव में इस पशुओं की पूजा का भी महत्व है। गांव-गांव में पशु पालक और किसान गोवर्धन पूजा करते हैं। पशुओं को नहला&धुलाकर उन्हें सजाया जाता है। गोवर्धन पर्वत की पूजा के बारे में एक कहानी कही जाती है। भगवान कृष्ण अपने गोपी&ग्वालों के साथ गाएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत पर पहुंचे तो देखा कि वहां गोपियां 56 प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं। श्रीकृष्ण के पूछने पर उन्होंने बताया कि आज वृत्रासुर को मारने वाले तथा मेघों व देवों के स्वामी इंद्र का पूजन होता है। इसे इंद्रोज यज्ञ कहते हैं। इससे प्रसन्न होकर ब्रज में वर्षा होती है, अन्न पैदा होता है। श्रीकृष्ण ने कहा कि इंद्र में क्या शक्ति है, उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसके कारण वषाZ होती है। हमें इंद्र की गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। श्रीकृष्ण की यह बात ब्रजवासियों ने मानी और गोवर्धन पूजा की तैयारियां शुरू हो गई। सभी गोप-ग्वाल अपने अपने घरों से पकवान लाकर गोवर्धन की तराई में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से पूजन करने लगे। नारद मुनि भी यहां इंद्रोज यज्ञ देखने पहुंच गए थे। इंद्रोज बंदकर के बलवान गोवर्धन की पूजा ब्रजवासी कर रहे हैं यह बात इंद्र तक नारद मुनि द्वारा पहुंच गई और इंद्र को नारद मुनि ने यह कहकर और डरा भी दिया कि उनके राज्य पर आक्रमण करके इंद्रासन पर भी अधिकार शायद श्रीकृष्ण कर लें। इंद्र गुस्सा गये और मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जा कर प्रलय पैदा कर दें। ब्रजभूमि में मूसलाधार बारिश होने लगी। सभी भयभीत हो उठे। सभी ग्वाले श्रीकृष्ण की शरण में पहुंचते ही उन्होंने सभी को गोवर्धन पर्वत की शरण में चलने को कहा। वही सब की रक्षा करेंगे। जब सब गोवर्धन पर्वत की तराई मे पहुंचे तो श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्का अंगुली पर उठाकर छाता सा तान दिया और सभी की मूसलाधार हो रही बारिश से बचाया। ब्रजवासियों पर एक बूंद भी जल नहीं गिरा। यह चमत्कार देखकर इंद्रदेव को अपनी की गलती का अहसास हुआ और वे श्रीकृष्ण से क्षमायाचना करने लगे। सात दिन बाद श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत नीचे रखा और ब्रजवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा और अन्नकूट का पर्व मनाने को कहा। तभी से यह पर्व के रूप में प्रचलित है।


एक बार भगवान बुद्ध अपना चातुर्मास पाटलिपुत्र में कर रहे थे| उनका उपदेश सुनने के लिए बहुत-से लोग आते थे|


एक दिन की बात है कि प्रवचन के समय उनके शिष्य आनंद ने पूछा - "भंते, आपके सामने हजारों लोग बैठे हैं| बताइए इनमें सबसे सुखी कौन है?"


बुद्ध ने कहा - "वह देखो, सबसे पीछे दुबला-सा फटेहाल जो आदमी बैठा है, वह सबसे अधिक सुखी है|"


यह उत्तर सुनकर आनंद की समस्या का समाधान नहीं हुआ| उसने कहा - "यह कैसे हो सकता है?"


बुद्ध बोले - "अच्छा अभी बताता हूं|"


उन्होंने बारी-बारी से सामने बैठे लोगों से पूछा - "तुम्हें क्या चाहिए?"


किसी ने धन मांगा, किसी ने संतान, किसी ने बीमारी से मुक्ति मांगी, किसी ने अपने दुश्मन पर विजय मांगी, किसी ने मुकदमे में जीत की प्रार्थना की| एक भी आदमी ऐसा नहीं निकला, जिसने कुछ-न-कुछ न मांगा हो| अंत में उस फटेहाल आदमी की बारी आई| बुद्ध ने पूछा -- "कहो भाई, तुम्हें क्या चाहिए?"


उस आदमी ने कहा - "कुछ भी नहीं| अगर भगवान को कुछ देना ही है तो बस इतना कर दें कि मेरे अंदर कभी कोई चाह ही पैदा न हो| मैं ऐसे ही अपने को बड़ा सुखी मानता हूं|"

तब बुद्ध ने आनंद से कहा - "आनंद! जहां चाह है, वहां सुख नहीं हो सकता|"


एक बार राजा अजातशत्रु एक साथ कई मुसीबतों से घिर गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इन आपदाओं को कैसे दूर किया जाए। वह दिन-रात इसी चिंता में डूबे रहते। तभी एक दिन उनकी मुलाकात एक वाममार्गी तांत्रिक से हुई। उन्होंने उस तांत्रिक को अपनी आपदाओं के बारे में बताया।


तांत्रिक ने राजा से कहा कि उन्हें संकट से मुक्ति तभी मिल सकती है जब वह पशुओं की बलि चढ़ाएं। अजातशत्रु ने उस तांत्रिक की बात पर विश्वास कर लिया और बलि देने की योजना बना ली। एक विशेष अनुष्ठान का आयोजन किया गया। बलि के लिए एक भैंसे को मैदान में बांधकर खड़ा कर दिया गया।


वधिक हाथ में तलवार थामे संकेत की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी संयोगवश गौतम बुद्ध वहां से गुजरे। उन्होंने मूक पशु को मृत्यु की प्रतीक्षा करते देखा तो उनका हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने राजा अजातशत्रु को एक तिनका देते हुए कहा, 'राजन्, इस तिनके को तोड़कर दिखाइए।' बुद्ध के ऐसा कहते ही राजा ने तिनके के दो टुकड़े कर दिए। तिनके के टुकड़े होने पर बुद्ध राजा से बोले, 'अब इन टुकड़ों को जोड़ दीजिए।'


बुद्ध का यह आदेश सुनकर अजातशत्रु हैरान होकर उनसे बोले, 'भगवन् टूटे तिनके कैसे जोड़े जा सकते हैं?' अजातशत्रु का जवाब सुनकर बुद्ध ने कहा, 'राजन् जिस प्रकार आप तिनका तोड़ तो सकते हैं जोड़ नहीं सकते, उसी प्रकार निरीह प्राणी का जीवन लेने के बाद आप उसे जीवित नहीं कर सकते। निरीह प्राणी की हत्या से आपदाएं कम होने के बजाय बढ़ती ही हैं। आपकी तरह इस पशु को भी तो जीने का अधिकार है। समस्याएं कम करने के लिए अपनी बुद्धि और साहस का प्रयोग कीजिए, निरीह प्राणियों का वध मत कीजिए।'


बुद्ध की बात सुनकर अजातशत्रु लज्जित हो गए। उन्होंने उसी समय पशु-बलि बंद करने का आदेश जारी कर दिया ।


एक सेवक अपने स्वामी की हत्या करके दूसरे नगर में भाग गया। स्वयं को छिपाने के लिए उसने कई वेश बदले। अब तक वह भिखारी हो चुका था। इधर उसके स्वामी का पुत्र अब तक युवा हो चुका था। अपने पिता के हत्यारे से बदला लेने की उसकी भावना प्रबल हो उठी। वह हत्यारे को खोजने चल पड़ा।


दूसरी ओर हत्यारा भिखारी चलते-चलते एक दिन ऐसी पहाड़ी सड़क पर पहुंचा, जहां से अक्सर लोग गिरकर मर जाते थे। भिखारी ने सोचा मरने से पहले मुझे कोई अच्छा काम कर लेना चाहिए। अगर मैं इस स्थान पर एक सुरंग बना दूं, तो लोगों का गिरकर मरना बंद हो जाएगा। अब तक वह काफी वृद्ध हो चुका था, अत: इस भलाई के कार्य में वह जी जान से जुट गया। एक दिन उसके स्वामी का पुत्र भी वहां आ पहुंचा और उसने अपने पिता के हत्यारे को पहचान लिया।


वह उसे मारने के लिए दौड़ा, तो भिखारी बोला- ‘तुम मुझे मारकर अपना बदला ले लेना किंतु मरने से पहले मुझे यह सुरंग पूरी करने दो।’ स्वामी के पुत्र ने उसकी बात मान ली और वह प्रतीक्षा करने लगा। स्वामी पुत्र उसके विषय में सोचने लगा कि इसने मेरे पिता की हत्या तो की है, किंतु अब असंख्य लोगों की भलाई के लिए नि:स्वार्थ सेवा भी कर रहा है। सुरंग पूरी होते ही भिखारी बोला- ‘अब मेरा काम पूरा हो गया, मैं मरने के लिए प्रस्तुत हूं।’ तब स्वामी पुत्र ने कहा- ‘लोक कल्याण व दृढ़ इच्छाशक्ति का पाठ पढ़ाने वाले अपने गुरु को मैं कैसे मार सकूंगा?’ वस्तुत: नष्ट और खोई हुई शक्ति अथवा वस्तु का चिंतन करने की अपेक्षा नए रास्ते पर चलोगे, तो पाओगे कि नई सुबह आपकी प्रतीक्षा में खड़ी हुई है।


किसी वन में चण्डरव नामक एक सियार रहता था| एक दिन वह भूख से व्याकुल भटकता हुआ लोभ के कारण समीप के नगर में पहुंच गया| उसको देखते ही नगरवासी कुत्ते उसके पीछे पड़ गए| अपने प्राण बचाने के लिए सियार जब भागा तो वह धोबी के घर में घुस गया| कुत्तों ने जब वहीं तक उसका पीछा किया तो वह समीप रखे बहुत बड़े नील के भांड से कूद पड़ा| उसको कूदते देखकर कुत्ते भाग गए|


सियार जब उस भाण्ड से बाहर निकला तो सारा नीला हो गया और जब वह जाने लगा तो कुत्तों ने उसको सियार नहीं कुछ और समझकर उसका पीछा नहीं किया| फिर भी चण्डरव वहां से सिर पर पैर रखकर वन की ओर भागा| जब वह वन में घुस गया और उसको विश्वास हो गया कि अब कुत्तों की पहुंच से बाहर है तो फिर उसने रुककर सांस ली| कुछ स्वस्थ होने पर वह फिर से वन के भीतर चला गया|


इस प्रकार के विचित्र, पशु को देखकर साधारण वन्य प्राणी तो क्या शेर, चीता तक भय से इधर-उधर भागने लगे| उनका कहना था कि न तो उनको इसके स्वभाव का ज्ञान है और न शक्ति का ही, अत: इससे दूर ही रहना चाहिए|


वन्य पशुओं को इस प्रकार स्वयं से भयभीत देखकर उनको सम्बोधित करते हुए सियार ने कहा, तुम लोग मुझे देखकर भाग क्यों रहे हो? डरने की कोई बात नहीं है| प्रजापति ने आज मुझे यहां भेजते हुए आदेश दिया है कि वन्य पशुओं का इस समय कोई राजा नहीं है इसलिए मैं वहां का राज्य तुम्हें सौंप रहा हूं| तुम पृथ्वी पर जाकर समस्त वन्य पशुओं की रक्षा करो| अब तुम लोग मेरी छत्रछाया में रहकर आनन्द करो| महाराज ककुद्रुम के नाम से मैं तीनों लोकों में पशुओं का राज विख्यात हो चुका हूं|


यह बात सुनते ही सिंह व्याघ्र आदि सभी वन्य प्राणी स्वामिन्, प्रभो, इत्यादि सम्बोधन कर उसके चारों ओर मंडराने लगे| तब उसने सिंह को अपना मंत्री बनाया, व्याघ्र को अपना शईया पालक बनाया, चीते को पान लगाने के काम पर लगाया, भेड़िये को द्वारपाल बनाया, किन्तु जो स्वजातीय सियार थे उनसे बात तक नहीं की, उनको दूर-दूर ही रखा और अपने राज्य से बाहर निकाल दिया| बस फिर क्या था| उस दिन के बाद सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं को मारकर उसके समीप लाते और वह उस मांस को उन सब में वितरण कर देता|


इस प्रकार राज्य करते हुए कुछ दिन बीत गए| एक दिन वह सभा में बैठा किसी गहन विषय पर विचार कर रहा था कि तभी दूर वन में रहने वाले सियार सहसा 'हुंआ-हुंआ' कर उठे| उस ध्वनि को सुनकर वह छद्म सियार ऐसा हर्षोत्फुल्ल हुआ कि उसको ध्यान ही नहीं रहा कि वह यहां का राजा बन बैठा है और उसने भी उसी प्रकार 'हुंआ-हुंआ' करना आरम्भ किया| उसे इस प्रकार करते सुन सिंह आदि समझ गए कि अरे यह तो सियार है| बस फिर क्या था, कुछ क्षण तक तो वे स्वयं मुर्ख बनने के कारण लज्जित से मुख नीचा किए बैठे रहे| किन्तु तभी उनके स्वाभिमान ने जोर मारा ओर उन्होंने उस सियार को पकड़कर चीर कर रख दिया|


यह कथा समाप्त करने के पश्चात दमनक ने कहा, 'इसलिए कहते हैं कि जो आत्मीयजनों की अवहेलना करता है उसकी यही दशा होती है|'


पिंगलक ने फिर कहा, 'आखिर इसका प्रमाण क्या है कि संजीवक मेरे प्रति द्रोह कर रहा है?'


'मेरे सामने आज उसने कहा है कि कल प्रात:काल होने तक मैं पिंगलक को मारकर रख दूंगा| उसका प्रणाम ही यदि आप चाहते हैं तो कल प्रात:काल देख लीजिएगा| जब वह लाल-लाल आंखो से आपकी ओर देखता हुआ आएगा और आपकी उपेक्षा करता हुआ अनुचित स्थान पर बैठने का यत्न करेगा| तब आप जैसा उचित समझें वैसा कीजिए|


इतना कहकर वह वहां से उठ गया ओर संजीवक के पास जाकर बैठ गया| उसको इस प्रकार शान्त भाव से बैठते देखकर संजीवक बोला, 'आओ मित्र! बैठो|' आज बहुत दिनों बाद दिखाई दिए हो? कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं|


उसकी बात सुनकर दमनक बोला, 'सेवकजन की कुशल कहां? राजसेवकों की सम्पत्ति तो दूसरों के आधीन होती है| चित्त सदा अशान्त बना रहता हे और अपने जीवन के प्रति भी उन्हें सन्देह ही बना रहता है|


संजीवक बोला, आखिर बात क्या है? आप इतने व्यग्र क्यों हैं|


मित्र! सचिवों के लिए गुप्त मन्त्रणा का उद्घाटन करना अच्छा नहीं होता| मन्त्री पद पर नियुक्त होने के बाद जो व्यक्ति राजा के रहस्य को प्रकाशित कर देता है वह राजकार्य की हानि करता है| तदपि मैं आपका स्नेहपात्र होने के कारण उसे प्रकाशित कर रहा हूं| क्योंकि मेरे ही विश्वास पर आप यहां आए हैं और अभी तक टिके हैं, बात यह है कि पिंगलक अब तुम्हारे प्रति द्रोह करने लगा है| उसने आज एकांत में मुझसे कहा है कि कल प्रात:काल होने तक मैं संजीवक को मारकर खा जाऊंगा| मैंने उसको बहुत समझाया कि उसका यह कृत्य उचित नहीं है| इससे उस पर मित्रद्रोह का कलंक लगेगा और फिर आपने उसको अभयदान दिया हुआ है किन्तु उसने मेरी बात सुनना स्वीकार नहीं किया| इसीलिए मैं आपके पास आया हूं जिससे कि मुझ पर विश्वासघात का दोष न रहे| अब आप जो उचित समझें, करें|


यह सुनकर संजीवक की भी मनोदशा वैसी ही हुई जैसी कि पिंगलक की हुई थी| कुछ स्वस्थ होने पर संजीवक कहने लगा, ठीक ही हुआ है कि राजा प्राय: स्नेहरहित होता है| स्त्रियां प्राय: दुष्टों के साथ रहना ही पसन्द करती हैं, धन कृपण के पास ही रहता है, मेघ प्राय: गिरि की चोटियों पर ही बरसता है| मैंने पिंगलक के साथ जो मैत्री की थी वह मेरी बहुत बहुत बड़ी भूल थी| मैत्री तो समान स्वभाव के पुरुषों के साथ होती है'|


दमनक बोला, 'मित्र! यदि यही बात है तो आपको डरने की आवश्यकता नहीं| दूसरों की चुगली से रुष्ट होने पर भी तुम्हारी वाक्यातुरी से वह तुम पर प्रसन्न ही होगा|'


'नहीं, ऐसी बात नहीं है| दुष्ट भले ही छोटे क्यों न हों, उनके मध्य में भले व्यक्ति का रहना उचित नहीं है| किसी-न-किसी उपाय से वे उस सज्जन के मार ही डालते हैं| कहा भी गया है कि जब बहुत से धूर्त, क्षुद्र तथा मायावी जीव एकत्रीत हो जाते हैं तो वे कुछ-न-कुछ करते ही हैं चाहे वह उचित हो अथवा अनुचित| इसी प्रकार काक आदि क्षुद्र जीवों ने मिलकर बहुत बड़े ऊंट को मार डाला था|'