किसी नगर में एक महा विद्वान ब्राह्मण रहता था| विद्वान होने पर भी वह अपने पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप चोरी किया करता था| एक बार उसने अपने नगर में ही बाहर से आए हुए चार ब्राह्मणों को देखा| वे व्यापार कर रहे थे| चोर ब्राह्मण ने सोचा कि वह ऐसा कौन-सा उपाय करे कि जिससे उनकी सारी सम्पत्ति उसके अपने पास आ जाए| कुछ विचार कर वह उनके समीप गया ओर उन पर अपने पण्डित्य की छाप लगाने लगा| अपनी मीठी वाणी से उसने अपने प्रति उनका विश्वास उत्पन्न कर लिया और इस प्रकार वह उनकी सेवा करने लगा|
किसी ने ठीक ही कहा है कि कुलटा स्त्री ही अधिक लज्जा करती है, खरा जल अधिक ठंडा होता है, पाखण्डी व्यक्ति अधिक विवेक होता है और धूर्त व्यक्ति ही अधिक प्रिय बोलता है| एक दिन ब्राह्मणों ने जब अपना सारा सामान बेच लिया तो उससे प्राप्त धन से उन्होंने रत्न आदि खरीद लिए| तब उन्होंने अपने देश को प्रस्थान करने का निश्चय किया| उन्होंने अपनी जंघाओं में उन रत्नों को छिपा लिया|
यह देखकर उस ब्राह्मण को इतने दिनों तक भी उनकी सेवा में रहकर अपनी असफलता पर खेद होने लगा| तब उसने निश्चय किया कि वह उनके साथ जाएगा और मार्ग में उनको विष देकर उनकी सम्पत्ति हथिया लेगा| उसने जब रो-धोकर उसे अपने साथ चलने का आग्रह किया तो उन्होंने स्वीकार कर लिया| इस प्रकार जब वे जा रहे थे तो मार्ग में एक भीलों का ग्राम आया| उस ग्राम के कौए प्रशिक्षित थे जो धन होने का संकेत दे देते थे| उन्होंने संकेत दिया तो भीलों को संदेह हो गया कि उनके पास सम्पत्ति है| भीलों ने उनको घेरकर उनसे धन छीनना चाहा| किन्तु ब्राह्मणों ने देने से इन्कार किया तो भीलों ने उनकी खूब पिटाई की| पीटकर उनके वस्त्र उतरवाये किन्तु उनको धन कहीं नहीं मिला|
यह देखकर उन भीलों ने कहा, -हमारे गांव के कौओं ने आज तक जो संकेत दिए वे कभी असत्य सिद्ध नहीं हुए| तब यदि तुम्हारे पास धन है तो हमें दे दो अन्यथा तुम्हें मारकर हम तुम्हारा अंग-अंग चीरकर उसमें रखे धन को ले लेंगे|
उस चोर ब्राह्मण ने जब यह सुना कि उसको मारा जाएगा तो वह समझ गया कि अन्त में उसकी भी बारी आएगी ही| अत: किसी प्रकार अपने प्राण देकर इनके प्राण बचाए जा सकें तो क्या हानि है?
यह विचार कर उसने कहा, 'भीलों! यदि तुम्हारा यही निश्चय है तो पहले मुझे मारकर अपने कौओं के संकेत का परीक्षण कर लो|
भीलों ने उस ब्राह्मण को मारकर उसका अंग-अंग चीर डाला| किन्तु कहीं कुछ नहीं मिला| यह देखकर उन्हें विश्वास हो गया कि उनके पास कुछ नहीं है, अत: उन्होंने उन चारों ब्राह्मणों को मुक्त कर दिया|
करटक बोला, 'तभी मैं कहता था कि यदि पण्डित अपना शत्रु भी हो, तो भी अच्छा होता है| किन्तु मुर्ख व्यक्ति का मित्र होना भी अच्छा नहीं है|'
वे इधर बात कर रहे थे ओर उधर पिंगलक और संजीवक युद्ध कर रहे थे| अन्त में पिंगल ने अपने नख-दन्त-प्रहार से संजीवक को मार ही डाला| पिंगलक को बड़ा दुःख हुआ| वह मन-ही-मन सोचने लगा कि उसने संजीवक के साथ विश्वासघात किया है| वह सोचने लगा कि आज तक मैंने अपनी सथा में सदा उसकी प्रशंसा ही की थी अब मैं सभासदों को क्या बताऊंगा?'
उसकी दशा देखकर दमनक उसके पास जाकर समझाने लगा कि वह ऐसी कायरता क्यों कर रहा है| यह राजा के लिए शोभाजनक नहीं है| दमनक बोला,'गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि जिनके विषय में शोक नहीं करना चाहिए उनके विषय में वह शोक क्यों कर रहा है? उसे जीवन के तत्व को समझकर उसके अनुकूल ही आचरण करना चाहिए| पण्डितजन किसी के जीने अथवा मरने का शोक अथवा हर्ष नहीं करते|'
दमनक के बहुविध समझाने पर पिंगलक ने संजीवक की मृत्यु का शोक करना छोड़ा और फिर दमनक को अपना मंत्री बनाकर पूर्वतत् अपना राज्य संचालन करने लगा|
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