किसी नगर में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे| एक बार पापबुद्धि ने विचार किया कि वह तो मुर्ख भी है ओर दरिद्र भी| क्यों न किसी दिन धर्मबुद्धि को साथ लेकर विदेश जाया जाए| इसके प्रभाव से धान कमाकर फिर किसी दिन इसको भी ठगकर सारा धन हड़प कर लिया जाए|
यह विचारक वह अगले ही दिन धर्मबुद्धि के पास जाकर कहने लगा, मित्र! वृद्धावस्था में तुम जब अपने नाती-पोतों के पास बैठकर बातें करोगे? तो, अपनी कौन सी कारस्तानी का बखान करोगे? तो, अपनी कौन सी कारस्तानी का बखान करोगे? न तुम कभी विदेश गए और न वहां की वस्तुएं देखी और देखने योग्य स्थान ही देखें| कहते हैं कि इस पृथ्वी पर रहे जिसने विदेश-भ्रमण नहीं किया, अनेक देशों की जानकर प्राप्त नहीं की, उसका तो जन्म ही व्यर्थ है|'
धर्मबुद्धि को पापबुद्धि का परामर्धा भा गया| उसने भी अपने गुरुजनों और परिजनों से एक दिन आज्ञा ली ओर वह पापबुद्धि के साथ विदेश-भ्रमण के लिए निकल पड़ा| इस प्रकार विदेश जाकर दोनों ने खूब धन कमाया| फिर वे अपने घर की ओर वापस चल पड़े| वापस लौटते हुए उन्हें वह दूरी खटक रही थी|
जब वे अपने नगर के निकट आ गए तो पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, मित्र! मैं समझता हूं कि इस सम्पूर्ण धन को लेकर घर जाना ठीक नहीं रहेगा| इतना धन देखकर सभी हमसे मांगने लग जाएंगे| अच्छा यही होगा कि अधिक धन यहीं कहीं जंगल में छिपाकर रख दिया जाए और थोड़ा सा लेकर घर जाया जाए| जब कभी आवश्यकता हुई तो उसके अनुसार धन यहां से निकालकर ले जाएंगे|
धर्मबुद्धि बोला, 'यदि तुम यह ठीक समझते हो तो यही करो|'
एक स्थान पर धन गाड़ दिया गया| फिर कुछ धन लेकर वे दोनों अपने-अपने घर जा पहुंचे अपने घर जाकर दोनों मित्रों के दिन सुख से कटने लगे| पापबुद्धि के मन में पाप था| एक दिन अवसर पाकर वह अकेला वन में आया और सारा धन निकालकर ले गया| गड्डे को उसने उसी प्रकार ढक दिया|
एक दिन पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि के पास जाकर कहा, 'मित्र! मेरा धन तो समाप्त हो गया है अत: यदि तुम कहो तो उस स्थान पर चलकर कुछ और धन निकालकर ले आएं?'
धर्मबुद्धि चलने को तैयार हो गया|
वहां जाकर जब स्थान को खोदा तो जिस पात्र में धन रखा था वह खाली पाया| पापबुद्धि ने वहीं पर अपना सर पीटना आरम्भ कर दिया| उसने धर्मबुद्धि पर आरोप लगाया कि उसने हि वह धन चुरा लिया है, नहीं तो उस स्थान पर उस धन के बारे में उसके अतिरिक्त और कौन जाता था| उसने कहा कि वह जो धन लेकर गया है| उसका आधा भाग उसको दे दे| अन्यथा वह राजा के पास जाकर निवेदन करेगा|
धर्मबुद्धि को यह सुनकर क्रोध आ गया| उसने कहा 'मेरा नाम धर्मबुद्धि है, मेरे सम्मुख इस प्रकार की बात कभी नही कहना| मैं इस प्रकार की चोरी करना पाप समझता हूं|'
किन्तु विवाद बढ़ गया| दोनों व्यक्ति न्यायलय में चले गए| वहां भी दोनों परस्पर आरोप-प्रत्योरोप करके एक-दूसरे को दोषी सिद्ध करने लगे| न्यायधीशों ने जब सत्य जानने के लिये दिव्य परीक्षा का निर्णय दिया तो पापबुद्धि बोल उठा, 'यह उचित न्याय नहीं है| सर्वप्रथम लेख बद्ध प्रमाणों को देखना चाहिए, उसके अभाव में साक्षी ली जाती है और जब साक्षी भी न मिले तो फिर दिव्य परीक्षा ही की जाती है| मेरे इस विवाद में अभी वृक्ष देवता साक्षी है| वे इसका निर्णय कर देंगे|'
न्यायधीशों ने कहा, 'ठीक है, ऐसा ही कर लेते हैं|
इस प्रकार अगले दिन प्रात:काल उस वृक्ष को समीप जाने का निश्चय कर लिया गया| उन दोनों को भी साथ चलने के लिए कहा गया|
न्यायलय से लौटकर पापबुद्धि घर आया और उसने अपने पिता से कहा, 'पिताजी! मैंने धर्मबुद्धि का सारा धन चुरा लिया है| अब मामला न्यायलय में चला गया है| यदि आप मेरी सहायता करें तो मैं बच सकता हूं, अन्यथा हमारे प्राण जाने का भी भय है|'
'जैसा पुत्र वैसा ही पिता|' उसने कहा, 'हां हां बताओ, किस प्रकार वह धन हथियाया जा सकता है?
पापबुद्धि ने अपनी योजना अपने पिता को बता दी| उसके अनुसार उसका पिता वृक्ष के एक कोटर में जाकर बैठ गया| दूसरे दिन प्रात:काल यथासमय पापबुद्धि न्यायधीशों तथा धर्मबुद्धि को लेकर उस स्थान पर गया जहां धन गाड़ कर रखा गया था| वहां पहुंचकर पापबुद्धि ने घोषणा की, समस्त देवगण मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं| 'हे भगवती वनदेवी| हम दोनों में से जो चोर हो आप उनका नाम बता दीजिए|'
कोटरे में छिपे पापबुद्धि के पिता ने यह सुनकर कहा, 'सज्जनों! आप ध्यानपूर्वक सुनिए| उस धन को धर्मबुद्धि ने ही चुराया|'
यह सुनकर सबको आश्चर्य हुआ| तब धर्मबुद्धि के इस अपराध के लिए इसके दण्ड का विधान देखा जाने लगा| अवसर पाकर धर्मबुद्धि ने इधर उधर से घास-फूस एकत्रित की, कुछ लकड़ियां भी चुनी और वह सब कोटरे में डालकर आग लगा दी|
जब वह जलने लगा तो कुछ समय तक तो पापबुद्धि का पिता यह सब सहन करता रहा| किन्तु जब असहाय हो गया तो वह अपना अधजला शरीर और फूटी आंख लेकर उस कोटरे से बाहर निकल आया| उसे देखकर न्यायधीशों ने कहा, 'आप कौन हैं ओर आपकी यह दशा किस प्रकार हुई?'
पापबुद्धि का पिता अब किसी प्रकार भी अपनी बात को छिपाकर रखने में असमर्थ था| उसने सारा वृतान्त आद्योपान्त यथावत् सुना दिया| न्यायधीशों ने जो दण्ड-व्यवस्था धर्मबुद्धि के लिए निश्चय की थी| वह पापबुद्धि पर लागू कर उसको उसी वृक्ष पर लटका दिया|
धर्मबुद्धि की प्रशंसा करते हुए न्यायधीशों ने कहा, 'चतुर व्यक्ति को उपाय के साथ ही उपाय भी सोच लेना चाहिए| लाभ और हानि इन दोनों पक्षों पर विचार न करने पर एक मुर्ख बगुले की समझ ही उसके सभी अनुयायियों को नेवले ने मार डाला|
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