मोह नहीं, प्रेम || Moh nahin prem

 एक महात्मा हिमालय में रहते थे| वे हमेशा प्रभु का ध्यान करते रहते थे और दर्शननार्थियों को उपदेश दिया करते थे| एक दिन पढ़े-लिखे लोगों की एक टोली उनके पास पहुंची उन्होंने कहा - "महाराज, हम दुनिया को नहीं छोड़ना चाहते| उसी में रहकर आत्मिक उन्नति करना चाहते हैं| कोई उपाय बताइए|"


स्वामीजी उनसे बोले - "नहीं दुनिया में रहकर आत्मिक उन्नति नहीं हो सकती| दुनिया की मोहमाया में लोग फंसकर रह जाते हैं और उनकी आत्मा पर पर्दा पड़ जाता है| तब आत्मा की साधना कैसे हो सकती है|" फिर इधर-उधर की बातें होती रहीं| पता चला कि स्वामीजी ने छोटी उम्र में ही घर-बार छोड़कर संन्यास ले लिया था| देश के बहुत-से तीर्थों में घूमे और अब अनेक वर्षों से वहां थे|


इस बातचीत के बाद स्वामीजी ने पूछा - "आप लोग यहां कब तक हैं?"


उस टोली के एक सदस्य के यह कहने पर कि तीन-चार दिन रहेंगे स्वामीजी बोले - "गोमुख जाओगे? जाओ तो रास्ते में मेरा एक शिष्य रहता है| उससे अवश्य मिल लेना| वह बड़ा ही विद्वान है, बड़ा मेधावी है| अभी उसकी उम्र कुछ भी नहीं है, पर उसने वेद पुराण, उपनिषद, महाभारत सब कुछ पढ़ डाला है| मुझे बड़ा सहारा था उसका, लेकिन पता नहीं एक दिन उसे क्या सूझा कि यहां से चला गया और अब बिल्कुल सुनसान-बियाबान जगह में अकेला रहता है| जब तक मेरे शरीर में दम था, उसके लिए खाने-पीने की चीजें पहुंचा देता था| भगवान जाने, उसका काम कैसे चलता होगा!" कहते-कहते स्वामीजी इतने विह्वल हो गए कि उनकी आंखों से आंसू बहने लगे| गला रुंध गया|


टोली में से एक ने यह देखकर कहा - "महाराज, अभी तो आप हमें उपदेश दे रहे थे कि मोह को छोड़े बिना आदमी की उन्नति नहीं हो सकती, पर आप स्वयं मोह ग्रस्त हो रहे हैं!"


स्वामीजी ने सिर उठाया और बोले - "अरे, मेरे ये आंसू मोह के नहीं हैं प्रेम के हैं| देखो मोह और प्रेम में बड़ा अंतर है| मोह फंसाता है, प्रेम उबारता है, पर तुम लोग इस अंतर को नहीं समझोगे|"


सचमुच उस अंतर को समझना आसान नहीं था, पर उससे भी मुश्किल उसे जीवन में उतारना था|

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