पापी मित्र || Paapi mitra

 किसी कुएं में गंगादत्त नाम का मेंढ़क रहता था| एक बार वह अपने दामादों से बड़ा परेशान था| यहां तक कि एक दिन इसके कारण उसे पने घर से बेघर होना पड़ा पर घर छोड़ने के पश्चात् उसने सोचा कि अब मैं इससे कैसे बदला लूं|


इतने में उसने बिल में घुसते हुए सांप को देखा| उसे देखकर उसने सोचा कि क्यों न इस सांप कि कुएं में ले जाकर उन दामादों को समाप्त कर डालूं| इसी के लिए कहा गया है|


अपने काम के सिद्धि के लिए बलवान शत्रु को उससे भी बलवान शत्रु से भिड़वा दें| जैसे कांटे से कांटा निकाला जाता है| यही सोचकर उसने बिल के पास जाकर कहा, प्रिय दर्शन आइए-आइए|


सांप ने मेंढ़क को देखकर कहा, यह तो मेरी जाति का है नहीं ओर किसी से मिलता नहीं क्योंकि कहा गया है जिसके कुल का कोई पता न हो उससे मित्रता न करो|


यही सोच सांप ने कहा|


भाई आप कौन हो|


भाई! मैं गंगादत्त नाम का मेंढ़क हूं और आपसे मित्रता करने के लिए यहां आया हूं|


भाई यह बात मानने योग्य नहीं है| भला आग और पानी का भी मेल हो सकता है|


आप ठीक कहते हैं नाग देवता| इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारी और आपकी पुरानी दुश्मनी चली आ रही है| मगर मैं भी मजबूर होकर आपके पास मदद के लिए आया हूं|


क्या मजबूरी है आपकी?


भाई मुझे मेरे ही दामादों ने मिलकर इतना तंग किया है कि मुझे सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा|


तुम रहते कहां हो?


मैं पत्थर के कुएं में रहता हूं|


लेकिन मैं तो वहां तक नहीं जा सकता क्योंकि हमारे पांव नहीं होते| यदि किसी तरह मैं वहां पहुंच भी गया तो वहां पर ऐसा कोई स्थान नहीं जहां पर बैठकर मैं आपके दामादों को खा सकूं|


आप वहां जाने की चिन्ता न करें, मैं किसी न किसी भांति आपको वहां तक पहुंचा दूंगा| वहां पर एक झोंपड़ी है| जहां पर बैठकर आप उन्हें खा सकेंगे|


सांप ने सोचा कि मैं बूढ़ा तो हो ही चुका हूं मुझे अब शिकार भी कम मिलता है, क्यों न चलकर उन मेंढ़कों को हो खाकर अपना पेट भर लूं| यही सोचकर उसने कहा कि चलो भाई मैं तुम्हारी मदद को चलता हूं|


चलो नाग देवता, मैं तुम्हें बड़े आराम से लेकर चलता हूं| पर उस बात का ध्यान रखना कि मेरे साथियों की रक्षा करना| जिन लोगों को मैं बोलूं उन्हीं को खाना|


हां भाई, अब हम दोनों मित्र बन गए हैं| मैं तो केवल आपके इशारे पर ही सारा काम करूंगा|


फिर दोनों मित्र रहट की बाल्टी में बैठकर कुएं तक पहुंच गए| कुएं में एक मोखला था वहां पर मेंढ़क ने सांप को बैठाकर अपने दुश्मनों की ओर इशारा किया था| सांप ने उन मेंढ़कों ने को खा लिया जब और कोई शत्रु बाकी न रहा तो सांप ने मेंढ़क से कहा|


अरे भाई! तुम्हारे शत्रु तो सबके सब मैंने खा लिए|


ठीक है नाग महाराज! अब आप आराम से यहां से जा सकते हैं|


सांप ने क्रोध से कहा, अब मैं कहां जाऊं? मेरे तो बिल पर भी किसी ने अधिकार जमा लिया होगा| अब तो तुम अपने परिवार के लोगों में ही हमारे खाने का प्रबन्ध करो, नहीं तो मैं सबको खा जाऊंगा|


मेंढ़क बेचारा तो फंस गया और अपनी भूल पर पछताने लगा| वह सोच रहा था कि काश मैं इस सांप को यहां न लाता| ठीक ही कहा है-जो अपने बलवान शत्रु से मित्रता करता है, स्वयं ही जहर खाता है| इससे बचने का तो एक ही तरीका है कि इसे एक-एक मेंढ़क रोज दिया करूंगा|


इस प्रकार वह खूनी सांप रोज एक मेंढ़क खाने लगा| एक दिन सांप ने बाकी मेंढ़कों को खाने के पश्चात् गंगादत्त के मित्र को भी खा लिया, इस बात से गंगादत्त बहुत दुखी हुआ और रोने लगा, तब उसकी पत्नी ने कहा|


अब क्यों रो रहे हो मुर्ख| तुमने तो अपनी जाति को ही समाप्त करवा डाला, दुख के समय जाति के लोग ही काम आते हैं| इसलिए यहां से भाग चलो|


लेकिन गंगादत्त वहां से भागा नहीं और उनका मित्र धीरे-धीरे सारे परिवार को भी खा गया| अन्त में वह गंगादत्त से भी कहने लगे|


देखो! तुम ही मुझे यहां लाए हो, अब तुम ही मेरे भोजन का प्रबंध करो|


तभी मेंढ़क राजा को एक चाल सूझी और वह सांप से बोला ठीक है मित्र मैं अभी जाकर आपके भोजन का प्रबंध करके लाता हूं|


हां...हां... जाओ...भाई... जाओ... मेरे लिए भोजन का प्रबंध करो| तुम ही तो अब मेरे सच्चे मित्र हो|


बस वहां से जान बचाकर गंगादत्त भाग निकला| सांप उसकी प्रतीक्षा करता रहा, जब कई दिन तक वह नहीं लौटा तो उसने अपने साथ रहने वाली गोह से कहा कि बहन जाओ तुम ही पास वाले कुएं से गंगादत्त को बुला लाओ|


गोह जैसे ही गंगादत्त के पास गई तो वह बोला -


जाओ, उस प्रियदर्शन से कह दो कि अब गंगादत्त तुम्हारे जाल में नहीं फंसता| तुम पापी हो! दुष्ट हो-किसी पापी पर विश्वास नहीं करना चाहिए|


इसलिए पापी मगर, अब मैं भी गंगादत्त की भांति तुम्हारे घर नहीं आऊंगा| मगर बोला यदि तुम मेरे घर नहीं गए तो मैं यहीं पर भूखा मर जाऊंगा|


अरे मैं क्या मुर्ख लम्बकरण हूं जो मुसीबत को देखकर भी अपने को मरवाऊं|

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