नाम: जहीर कुरेशी
जन्म तिथि: 5 अगस्त,1950 ई०
शिक्षा: स्नातक
रचनाकाल: 1965 से अब तक ...अविराम.
लेखन की मूल विधा: हिन्दी गजल
प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह:0 लेखनी के स्वप्न (1975)0 एक टुकड़ा धूप (1979)0 चाँदनी का दु:ख (1986)0 समंदर ब्याहने आया नहीं है (1992) भीड़ में सबसे अलग(2003) अनुवाद: अनेक ग़ज़लें अंग्रेज़ी,गुजरातीमराठी,पंजाबी,आदि भाषाओं में अनूदित. पुरस्कार एवं सम्मान: 1980 में उत्तर प्रदेश शासन द्वारा ‘एक टुकड़ा धूप’ सम्मानित 2006 में क्षितिज इंकार्पोरेटेड,अमरीका द्वारा ‘नदी के साथ दुर्घटना’ गीत पर गोपाल सिंह नेपाली स्मृति सम्मान. उल्लेखनीय: स्नातकोत्तर (एम.ए. उत्तरार्द्ध, हिन्दी) पाठ्यक्रम में सम्मिलित होने वाले देश के पहले हिन्दी गज़लकार. ‘आधुनिक काव्य’ विषय के अंतर्गत जहीर कुरेशी की बीस गज़लें उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय- जलगाँव और पाँच गजले स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, नाँदेड़ में एम.ए.(उत्तरार्द्ध) हिन्दी पाठ्यक्रम के अंतर्गत निर्धारित.‘आपस में इसलिए ही भरोसे नहीं रहे’ पंक्ति से आरम्भ होने वाली गजल शिवाजी विश्व-विद्यालय,कोल्हापुर के बी.ए.पार्ट-2 पाठ्यक्रम में सम्मिलित.
`क्या कहे अखबार वालों से व्यथा औरत’ पंक्ति से आरम्भ होने वाली गज़ल उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय,जलगाँव के बी.ए. पार्ट -1 के पाठ्यक्रम में शामिल.
विशेष: `जहीर कुरेशी की हिन्दी गजलों का कथ्य’ विषय पर यशवंत राव चाव्हाणविश्व-विद्यालय, नासिक के अंतर्गत एम.फिल.(लघु शोध-प्रबन्ध) प्रस्तुत.जीवाजी विश्व-विद्यालय, ग्वालियर(म.प्र.) के अंतर्गत ‘समकालीन गजल के संदर्भ में जहीर कुरेशी का हिन्दी गजल साहित्य: संवेदना और शिल्प’ विषय पर पी.एच-डी. शोध जारी
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वो हिम्मत करके पहले अपने अन्दर से निकलते हैं
बहुत कम लोग, घर को फूँक कर घर से निकलते हैं
अधिकतर प्रश्न पहले, बाद में मिलते रहे उत्तर
कई प्रति-प्रश्न ऐसे हैं जो उत्तर से निकलते हैं
परों के बल पे पंछी नापते हैं आसमानों को
हमेशा पंछियों के हौसले 'पर' से निकलते हैं
पहाड़ों पर व्यस्था कौन-सी है खाद-पानी की
पहाड़ों से जो उग आते हैं,ऊसर से निकलते हैं
अलग होती है उन लोगों की बोली और बानी भी
हमेशा सबसे आगे वो जो 'अवसर' से निकलते हैं
किया हमने भी पहले यत्न से उनके बराबर क़द
हम अब हँसते हुए उनके बराबर से निकलते हैं
जो मोती हैं, वो धरती में कहीं पाए नहीं जाते
हमेशा कीमती मोती समन्दर से निकलते हैं
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वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे
जो मुँह से बोलेगा उसका 'निदान' कर देंगे
वे आस्था के सवालों को यूं उठायेंगे
खुदा के नाम तुम्हारा मकान कर देंगे
तुम्हारी 'चुप' को समर्थन का नाम दे देंगे
बयान अपना, तुम्हारा बयान कर देंगे
तुम उन पे रोक लगाओगे किस तरीके से
वे अपने 'बाज' की 'बुलबुल' में जान कर देंगे
कई मुखौटों में मिलते है उनके शुभचिंतक
तुम्हारे दोस्त, उन्हें सावधान कर देंगे
वे शेखचिल्ली की शैली में, एक ही पल में
निरस्त अच्छा-भला 'संविधान' कर देंगे
तुम्हें पिलायेंगे कुछ इस तरह धरम-घुट्टी
वे चार दिन में तुम्हें 'बुद्धिमान' कर देंगे
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अँधेरे की सुरंगों से निकल कर
गए सब रोशनी की ओर चलकर
खड़े थे व्यस्त अपनी बतकही में
तो खींचा ध्यान बच्चे ने मचलकर
जिन्हें जनता ने खारिज कर दिया था
सदन में आ गए कपड़े बदलकर
अधर से हो गई मुस्कान ग़ायब
दिखाना चाहते हैं फूल फलकर
लगा पानी के छींटे से ही अंकुश
निरंकुश दूध हो बैठा, उबलकर
कली के प्यार में मर मिटने वाले
कली को फेंक देते हैं मसलकर
घुसे जो लोग काजल कोठरी में
उन्हें चलना पड़ा बेहद सँभलकर
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घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
आँसू, नयन कुटी से निकल कर बदल गए
अब तो स्वयं वधू के चयन का रिवाज़ है
कलयुग शुरू हुआ तो स्वयंवर बदल गए
मिलता नहीं जो प्रेम से, वो छीनते हैं लोग
सिद्धान्त वादी प्रश्नों के उत्तर बदल गए
धरती पे लग रहे थे कि कितने कठोर हैं
झीलों को छेड़ते हुए कंकर बदल गए
होने लगे हैं दिन में ही रातों के धत करम
कुछ इसलिए भि आज निशाचर बदल गए
इक्कीसवीं सदी के सपेरे हैं आधुनिक
नागिन को वश में करने के मंतर बदल गए
बाज़ारवाद आया तो बिकने की होड़ में
अनमोल वस्तुओं के भी तेवर बदल गए
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सब की आँखों में नीर छोड़ गए
जाने वाले शरीर छोड़ गए
राह भी याद रख नहीं पाई
क्या कहाँ राहगीर छोड़ गए
लग रहे हैं सही निशाने पर\
वो जो व्यंगों के तीर छोड़ गए
हीर का शील भंग होते ही
रांझे अस्मत पे चीर छोड़ गए
एक रुपया दिया था दाता ने
सौ दुआएं फ़क़ीर छोड़ गए
उस पे क़बज़ा है काले नागों का
दान जो दान-वीर छोड़ गए
हम विरासत न रख सके क़ायम
जो विरासत कबीर छोड़ गए
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हमारे भय पे पाबंदी लगाते हैं
अंधेरे में भी जुगनू मुस्कुराते हैं
बहुत कम लोग कर पाते हैं ये साहस
चतुर चेहरों को आईना दिखाते हैं
जो उड़ना चाहते हैं उड़ नहीं पाते
वो जी भर कर पतंगों को उड़ाते हैं
नहीं माना निकष हमने उन्हें अब तक
मगर वो रोज़ हमको आज़माते हैं
उन्हें भी नाच कर दिखलाना पड़ता है
जो दुनिया भर के लोगों को नचाते हैं
बहुत से पट कभी खुलते नहीं देखे
यूँ उनको लोग अक्सर खटखटाते हैं
हमें वो नींद में सोने नहीं देते
हमारे स्वप्न भी हम को जगाते हैं
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उन्हें देखा गया खिलते कमल तक,
कोई झाँका नहीं झीलों के तल तक।
तो परसों, फिर न उसकी राह तकना,
जो भूला आज का, लौटा न कल तक।
न जाने, कब समन्दर आ गए हैं,
हमारी अश्रु-धाराओं के जल तक।
सियासत में उन्हीं की पूछ है अब,
नहीं सीमित रहे जो एक दल तक।
यही तो टीस है मन में लता के,
हुई पुष्पित, मगर, पहुँची न फल तक।
हजारों कलयुगी शंकर हैं ऐसे-
पचाना जानते हैं जो गरल तक।
जो बारम्बार विश्लेषण करेगा,
पहुँच ही जाएगा वो ठोस हल तक।
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दबंगों की अनैतिकता अलग है,
उन्हें अन्याय की सुविधा, अलग है।
डराते ही नहीं अपराध उनको,
महल का गुप्त दरवाजा अलग है।
जिसे तुम व्यक्त कर पाए न अब तक,
वो दोनों ओर की दुविधा अलग है।
पतंगें कब लगीं आजाद पंछी,
पतंगों की तरह उडना अलग है।
जिसे महसूस करता हूँ मैं अक्सर,
तुम्हारी देह की दुनिया अलग है।
है स्वाभाविक किसी दुश्मन की चिन्ता,
निजी परछाईं से डरना अलग है।
वो चाहे छन्द हो या छन्द-हीना,
हमारे दौर की कविता अलग है।
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सपने अनेक थे तो मिले स्वप्न-फल अनेक,
राजा अनेक, वैसे ही उनके महल अनेक।
यूँ तो समय-समुद्र में पल यानी एक बूंद,
दिन, माह, साल रचते रहे मिलके पल अनेक।
जो लोग थे जटिल, वो गए हैं जटिल के पास
मिल ही गए सरल को हमेशा सरल अनेक।
झगडे हैं नायिका को रिझाने की होड के,
नायक के आसपास ही रहते हैं खल अनेक।
बिखरे तो मिल न पाएगी सत्ता की सुन्दरी,
संयुक्त रहके करते रहे राज दल अनेक।
लगता था-इससे आगे कोई रास्ता नहीं,
कोशिश के बाद निकले अनायास हल अनेक।
लाखों में कोई एक ही चमका है सूर्य-सा
कहने को कहने वाले मिलेंगे ग़ज़ल अनेक।
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आँखों की कोर का बडा हिस्सा तरल मिला,
रोने के बाद भी, मेरी आँखों में जल मिला।
उपयोग के लिए उन्हें झुग्गी भी चाहिए,
झुग्गी के आसपास ही उनका महल मिला।
आश्वस्त हो गए थे वो सपने को देख कर,
सपने से ठीक उल्टा मगर स्वप्न-फल मिला।
इक्कीसवीं सदी में ये लगता नहीं अजीब,
नायक की भूमिका में लगातार खल मिला।
पूछा गया था प्रश्न पहेली की शक्ल म,
लेकिन, कठिन सवाल का उत्तर सरल मिला।
उसको भी कैद कर न सकी कैमरे की आँख,
जीवन में चैन का जो हमें एक पल मिला।
ऐसे भी दृश्य देखने पडते हैं आजकल,
कीचड की कालिमा में नहाता कमल मिला।
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