Best 120+ Shayari of Mirza Ghalib In Hindi 2021 || मिर्जा ग़ालिब शायरी इन हिन्दी

तनहा लाज़िम था के देखे मेरा रास्ता कोई दिन और तनहा गए क्यों , अब रहो तनहा कोई दिन और
रक़ीब कितने शिरीन हैं तेरे लब के रक़ीब गालियां खा के बेमज़ा न हुआ कुछ तो पढ़िए की लोग कहते हैं आज ‘ग़ालिब ‘ गजलसारा न हुआ
मेरी वेहशत इश्क़ मुझको नहीं वेहशत ही सही मेरी वेहशत तेरी शोहरत ही सही कटा कीजिए न तालुक हम से कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
ग़ालिब दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई दोनों को एक अदा में रजामंद कर गई मारा ज़माने ने ‘ग़ालिब’ तुम को वो वलवले कहाँ , वो जवानी किधर गई
तो धोखा खायें क्या लाग् हो तो उसको हम समझे लगाव जब न हो कुछ भी , तो धोखा खायें क्या
अपने खत को हो लिए क्यों नामाबर के साथ -साथ या रब ! अपने खत को हम पहुँचायें क्या
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’ शर्म तुम को मगर नहीं आती
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है अपने जी में हमने ठानी और है आतिश -ऐ -दोज़ख में ये गर्मी कहाँ सोज़-ऐ -गम है निहानी और है बारह देखीं हैं उन की रंजिशें , पर कुछ अब के सरगिरानी और है देके खत मुँह देखता है नामाबर , कुछ तो पैगाम -ऐ -ज़बानी और है हो चुकीं ‘ग़ालिब’ बलायें सब तमाम , एक मर्ग -ऐ -नागहानी और है .
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया गैर ले महफ़िल में बोसे जाम के हम रहें यूँ तश्ना-ऐ-लब पैगाम के खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के इश्क़ ने “ग़ालिब” निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के
बाद मरने के मेरे चंद तस्वीर-ऐ-बुताँ , चंद हसीनों के खतूत . बाद मरने के मेरे घर से यह सामान निकला
दिया है दिल अगर दिया है दिल अगर उस को , बशर है क्या कहिये हुआ रक़ीब तो वो , नामाबर है , क्या कहिये यह ज़िद की आज न आये और आये बिन न रहे काजा से शिकवा हमें किस क़दर है , क्या कहिये ज़ाहे -करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फरेब की बिन कहे ही उन्हें सब खबर है , क्या कहिये समझ के करते हैं बाजार में वो पुर्सिश -ऐ -हाल की यह कहे की सर -ऐ -रहगुज़र है , क्या कहिये तुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा का ख्याल हमारे हाथ में कुछ है , मगर है क्या कहिये कहा है किस ने की “ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन सिवाय इसके की आशुफ़्तासार है क्या कहिये
कोई दिन और मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें चल निकलते जो में पिए होते क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो काश के तुम मेरे लिए होते मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था दिल भी या रब कई दिए होते आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’ कोई दिन और भी जिए होते
दिल-ऐ -ग़म गुस्ताख़ फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल दिल -ऐ -ग़म गुस्ताख़ मगर याद आया कोई वीरानी सी वीरानी है . दश्त को देख के घर याद आया
हसरत दिल में है सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है
बज़्म-ऐ-ग़ैर मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब” अर्श से इधर होता काश के माकन अपना
साँस भी बेवफा मैं नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा ग़ालिब यह न सोचा के एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी
सारी उम्र तोड़ा कुछ इस अदा से तालुक़ उस ने ग़ालिब के सारी उम्र अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे
इश्क़ में बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है
जवाब क़ासिद के आते -आते खत एक और लिख रखूँ मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में
जन्नत की हकीकत हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल के खुश रखने को “ग़ालिब” यह ख्याल अच्छा है
बेखुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब फिर उसी बेवफा पे मरते हैं फिर वही ज़िन्दगी हमारी है बेखुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब’ कुछ तो है जिस की पर्दादारी है
कागज़ का लिबास सबने पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले अदल के तुम न हमे आस दिलाओ क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले
वो निकले तो दिल निकले ज़रा कर जोर सीने पर की तीर -ऐ-पुरसितम् निकले जो वो निकले तो दिल निकले , जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के वास्ते खुदा के वास्ते पर्दा न रुख्सार से उठा ज़ालिम कहीं ऐसा न हो जहाँ भी वही काफिर सनम निकले
तेरी दुआओं में असर तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा नहीं तो दो घूँट पी और मस्जिद को हिलता देख
जिस काफिर पे दम निकले मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख कर जीते है जिस काफिर पे दम निकले
लफ़्ज़ों की तरतीब लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब” हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है
तमाशा थी खबर गर्म के ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े , देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ
काफिर दिल दिया जान के क्यों उसको वफादार , असद ग़लती की के जो काफिर को मुस्लमान समझा
नज़ाकत इस नज़ाकत का बुरा हो , वो भले हैं तो क्या हाथ आएँ तो उन्हें हाथ लगाए न बने कह सके कौन के यह जलवागरी किस की है पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने
इश्क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया, दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया।
आता है दाग-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद, मुझसे मेरे गुनाह का हिसाब ऐ खुदा न माँग।
आया है बे-कसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब, किसके घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद।
तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफी की दहर में, तेरे सिवा भी हम पे बहुत से सितम हुए।
की हमसे वफ़ा तो गैर उसको जफा कहते हैं, होती आई है की अच्छी को बुरी कहते हैं।
जी ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन, बैठे रहे तसव्वुर-ए-जहान किये हुए।
कहते तो हो यूँ कहते, यूँ कहते जो यार आता, सब कहने की बात है कुछ भी नहीं कहा जाता।
चांदनी रात के खामोश सितारों की क़सम, दिल में अब तेरे सिवा कोई भी आबाद नहीं।
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार* होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता * विसाल-ए-यार = प्रेमी से मिलन
दाइम* पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं * दाइम = अन्नत
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़* बुरा कहे ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे * वाइज़ = धर्म उपदेशक
हाए उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब’ जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबाँ होना
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का ख़ंदा-हा-ए-गुल = फूलों की हंसी
गैर ले महफ़िल में बोसे जाम के हम रहें यूँ तश्ना-ऐ-लब पैगाम के खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के इश्क़ ने “ग़ालिब” निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के
चंद तस्वीर-ऐ-बुताँ , चंद हसीनों के खतूत . बाद मरने के मेरे घर से यह सामान निकला
दिया है दिल अगर उस को , बशर है क्या कहिये हुआ रक़ीब तो वो , नामाबर है , क्या कहियेयह ज़िद की आज न आये और आये बिन न रहे काजा से शिकवा हमें किस क़दर है , क्या कहिये ज़ाहे -करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फरेब की बिन कहे ही उन्हें सब खबर है , क्या कहिये समझ के करते हैं बाजार में वो पुर्सिश -ऐ -हाल की यह कहे की सर -ऐ -रहगुज़र है , क्या कहियेतुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा का ख्याल हमारे हाथ में कुछ है , मगर है क्या कहिये कहा है किस ने की “ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन सिवाय इसके की आशुफ़्तासार है क्या कहिये
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का ख़ंदा-हा-ए-गुल = फूलों की हंसी
‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़* बुरा कहे ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
हाए उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब’ जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबाँ होना
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का ख़ंदा-हा-ए-गुल फूलों की हंसी
दिल दिया जान के क्यों उसको वफादार “असद” ग़लती की के जो काफिर को मुस्लमान समझा
खुदा के वास्ते पर्दा न रुख्सार से उठा ज़ालिम कहीं ऐसा न हो जहाँ भी वही काफिर सनम निकले..,
इश्क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया, दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया।
आता है दाग-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद, मुझसे मेरे गुनाह का हिसाब ऐ खुदा न माँग।
आया है बे-कसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब, किसके घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद।
आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब, दिल का क्या रंग करूँ खून-ए-जिगर होने तक।
कितना खौफ होता हैं शाम के अंधेरों में , पूछ उन परिंदो से जिनके घर नहीं होते. . .!
कितना दूर निकल गए रिश्ते निभाते निभाते , खुद को खो दिया हमने अपनों को पाते पाते ,
लोग कहते है दर्द है मेरे दिल में , और हम थक गए मुस्कुराते मुस्कुराते
हम ने मोहबतों कि नशे में आ कर उसे खुद बना डाला , होश तब आया जब उसने कहा कि खुद किसी एक का नहीं होता .
अभी मशरूफ हूँ काफी , कभी फुर्सत में सोचूंगा , के तुझको याद रखने में मैं क्या क्या भूल जाता हूँ .
न सोचा मैंने आगे, क्या होगा मेरा हशर, तुझसे बिछड़ने का था, मातम जैसा मंज़र!
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
मत पूँछ की क्या हाल हैं मेरा तेरे पीछे , तू देख की क्या रंग हैं तेरा मेरे आगे …, ऐ बुरे वक़्त ज़रा अदब से पेश आ , क्यूंकि वक़्त नहीं लगता वक़्त बदलने में …
ज़िन्दगी उसकी जिस की मौत पे ज़माना अफ़सोस करे ग़ालिब , यूँ तो हर शक्श आता हैं इस दुनिया में मरने कि लिए …
ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर , या वह जगह बता जहाँ खुदा नहीं ..
था ज़िन्दगी में मर्ग का खत्का लाग हुआ , उड़ने से पेश -तर भी मेरा रंग ज़र्द था .
क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म, अस्ल में दोनों एक हैंमौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यूँ?
इस सादगी पर कौन ना मर जाये लड़ते है और हाथ में तलवार भी नहीं
उनके देखे जो आ जाती है रौनक वो समझते है कि बीमार का हाल अच्छा है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा, कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है ?
हथून कीय लकीरून पय मैट जा ऐ ग़ालिब, नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते …
उनकी देखंय सी जो आ जाती है मुंह पर रौनक, वह समझती हैं केह बीमार का हाल अच्छा है…!!!
दिल सी तेरी निगाह जिगर तक उतर गई, दोनों को एक अड्डा में रज़्ज़ा मांड क्र गए …
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मीरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले, रेख्ते के तुम्हें उस्ताद नहीं हो ग़ालिब कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था फिर उसी बेवफा पे मरते हैं फिर वही ज़िन्दगी हमारी है मासूम मोहब्बत का बस इतना फ़साना है कागज़ की हवेली है बारिश का ज़माना है उस पर उतरने की उम्मीद बोहत कम है कश्ती भी पुरानी है और तूफ़ान को भी आना है यह इश्क़ नहीं आसान बस इतना समझ लीजिये एक आग का दरया है और डूब कर जाना है
कोई उम्मीद बर नहीं आती कोई सूरत नज़र नहीं आती मौत का एक दिन मु’अय्यन है निहद क्यों रात भर नहीः आती? आगे आती थी हाल-इ-दिल पे हंसी अब किसी बात पर नहीं आती क्यों न चीखूँ की याद करते हैं मेरी आवाज़ गर नहीं आती. हम वहाँ हैं जहां से हमको भी कुछ हमारी खबर नहीं आती
महफ़िल , अभी से क्यों छलक आये तुम्हारी आँख में आंसू अभी छेड़ी कहाँ है, दास्ताने - जिन्दगी मैंने,.,!!! अपना गम किस तरह से बयान करूँ, आग लग जायेगी इस जमाने में,.,!!! ख़्वाबों में भी आना तेरा अब कम हो गया, नफरतें तेरी शायद, ज़रा जोरों पर हैं ..!!!!
महफ़िल , एक शरारा भी आशियाँ को जला देता है,., नादां है तू शोलों को हवा देता है,.,!! बड़ी बारीकी से तोडा है उसने दिल का हर कोना, सच कहुँ मुझे तो उसके हुनर पे नाज़ होता हैं...!!! जनाब मत पूछिए हद हमारी सनकीपन की हम आईन कुचल कर समझते है आसमां कुचल दिया,.,!!!
महफ़िल , उग रहा है दर ओ दीवार से सब्ज़ा ग़ालिब हम बयाबान में हैं और घर में बाहार आयी है.,.,!!! दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है? आख़िर इस दर्द की दवा क्या है.,.,? हम हैं मुश्ताक और वो बेजार या इलाही यह माजरा क्या है? हमको उनसे वफ़ा कि है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है.,.,,!!!
महफ़िल , इश्क़ पर ज़ोर नहीं ,है ये वो आतिश ग़ालिब ,., के लगाये न लगे ,बुझाए न बुझे ,.,!! हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे। कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और.,.,!!! क़र्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हाँ। रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन.,.,!!! पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या.,.,!!! सनम सुनते हैं तेरी भी कमर है, कहां है ? किस तरफ़ है ? औ’ किधर है ? सितारे जो समझते हैं ग़लतफ़हमी है ये उनकी। फ़लक पर आह पहुंची है मेरी चिनगारियां होकर.,.,!!!
महफ़िल, मिर्ज़ा ग़ालिब - उड़ने दे परिंदों को आज़ाद फ़िज़ा में ग़ालिब ,., जो तेरे अपने होंगे वो लौट आएं गे किसी रोज़ ,.,!!!
इक़बाल - ना रख उम्मीद -ए -वफ़ा किसी परिंदे से 'इक़बाल',., जब पर निकल आते हैं ,तो अपने भी आशियाँ भूल जाते हैं ,.,!!
वो आये मेरी कब्र पे अपने रक़ीब के साथ ऐ ग़ालिब ,., कौन कहता है के 'मुसलमान जलाये नहीं जाते'.,.,!!!
दुःख देकर सवाल करते हो ,. तुम भी ग़ालिब ! कमाल करते हो ., देख कर पूछ लिया हाल मेरा ., चलो कुछ तो ख्याल करते हो .,. शहर -ए -दिल में ये उदासियाँ कैसी ., ये भी मुझसे सवाल करते हो .,. अब किस किस की मिसाल दूँ तुमको ., हर सितम बेमिसाल करते हो .,.,!!!
इस दिल को किसी की आहट की आस रहती है, निगाह को किसी सूरत की प्यास रहती है, तेरे बिना जिन्दगी में कोई कमी तो नही, फिर भी तेरे बिना जिन्दगी उदास रहती है॥
Wo aaye ghar me hamare KHUDA Ki Qudrat hai Kabhi hum unko kabhi apne ghar ko dekhte hain Tere Hussan ko Parday ki Zaroorat he kya ha
Ghalib Kon Hosh mein Rehta hai Tujhe Deikhnay k Baad Hamen Unse hai Wafa ki Umeed Jo Nahi Jaante Wafa kya hai Hum kaha k Daana thay Kis hunar me yakta the Be sabab Huwa
Aata hai daagh-e-hasrat-e-dil ka shumaar yaad mujh se mire gunah ka hisaab ai khuda na maang
Aashiq hoon pe maashooq-farebi hai mira kaam majnuun ko bura kahti hai laila mere aage
Ishq ne ‘Ghalib’ nikamma kar diya varna ham bhi aadmi the kaam ke
Ishq par zor nahi hai ye vo aatash ‘Ghalib’ ki lagaaye na lage aur bujhaaye na bane
Is nazaaqat ka bura ho vo bhale hain to kya haath aave to unhe haath lagaaye na bane
Is saadgi pe kaun na mar jaaye ai khuda ladte hain aur haath mein talwaar bhi nahi

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