सिंहासन बत्तीसी की उन्नीसवी कहानी - रूपरेखा पुतली की कथा
हर बार की तरह इस बार भी राज भोज फिर से सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ते हैं, लेकिन तभी सिंहासन की उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा उन्हें रोकती है और राजा विक्रमादित्य के गुणों की चर्चा करते हुए एक कहानी सुनाती है। अब पढ़ें आगे –
एक समय की बात है, राजा विक्रमादित्य के दरबार में दो तपस्वी अपने सवाल लेकर आए। राजा ने उनसे कहा, “हे साधु! बताइए आप दोनों के मन में कौन-से सवाल हैं।” इस पर एक तपस्वी ने कहा, “हे राजन! मेरा मानना है कि मनुष्य के मन का नियंत्रण उसके सभी कामों पर रहता है। वह कभी भी उसके खिलाफ नहीं जा सकता है।” जबकि, साथ आए दूसरे तपस्वी ने कहा, “नहीं राजन, मेरा मानना है कि मनुष्य का ज्ञान ही उसके सभी कामों को नियंत्रित करता है और मन भी
ज्ञान के अनुसार ही चलता है।”
राजा विक्रमादित्य ने दोनों तपस्वियों की बातें सुनी और उन्हें कुछ दिन बाद दरबार में आने को कहा। तपस्वियों के जाने के बाद राजा विक्रमादित्य दोनों सवालों के बारे में सोचने लगे और उन्हें ये सवाल बड़े अटपटे लगे।
एक पल के लिए उन्होंने सोचा कि पहले तपस्वी का कथन सही है। मन सच में चंचल होता है और इंसान उसके वश में आसानी से आ जाता है। दूसरे ही पल राजा ने ज्ञान के बारे में सोचा। उन्हें लगा कि दूसरे तपस्वी की बातें भी सही है। इंसान अपने मन की करने से पहले जरूर सोचता है और तभी निर्णय लेता है, ऐसे तो ज्ञान मन से ज्यादा प्रभावी है।
इन दोनों उलझे सवालों का जवाब ढूंढने के लिए राजा वेश बदलकर राज्य में निकल पड़े। कुछ दिनों तक घुमने के बाद उनकी नजर एक गरीब युवक पर पड़ी, जो एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम कर रहा था। उस युवक के बगल में उसकी बैलगाड़ी खड़ी थी। राजा विक्रमादित्य उस युवक के पास गए और उन्होंने उस युवक को पहचान लिया। पेड़ के नीचे बैठा वह युवक उनके दोस्त सेठ गोपाल दास का छोटा बेटा था।
राजा को याद आया कि उनका दोस्त तो एक बहुत बड़ा व्यापारी था, जिसने खूब सारा धन कमाया था, लेकिन उनके छोटे बेटे की हालत देखकर महाराजा विक्रमादित्य सोच में पड़ गए। उन्होंने उस युवक से पूछा, “बालक तुम्हारा यह हाल कैसे हो गया? तुम्हारे पिता ने तो मरने से पहले सारा धन तुम दोनों भाइयों में बांट दिया था। तुम्हें तो इतना धन मिला होगा कि तुम्हारी जिंदगी आसानी से कट सकती थी, लेकिन तुम तो गरीब नजर आ रहे हो।”
इस पर युवक ने कहा, “पिता द्वारा धन बांटने के बाद उसके भाई ने बड़ी समझदारी के साथ धन का उपयोग किया। उसने अपने मन की चंचलता को शांत रखकर जरूरतों के हिसाब से पैसे खर्च किए। साथ ही दिन-रात मेहनत की और अपने व्यापार को आगे बढ़ाया, लेकिन मैंने धन को केवल बुरी आदतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया। मैंने जरा-सी भी सूझबूझ नहीं दिखाई। धन के नशे में मैं इतना चूर हो गया था कि अपने भाई के दिए हुए ज्ञान को समझ न पाया और आज मेरी यह हालत है।”
युवक ने आगे कहा, “अपने चंचल मन को नियंत्रित न कर पाने के कारण मैं एक साल के अंदर ही कंगाल हो गया। आज मैं दर-दर की ठोकरें खाता फिर रहा हूं, लेकिन मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है।”
पूरी बात सुनकर राजा विक्रमादित्य ने युवक से पूछा, “क्या दोबारा धन मिलने पर तुम फिर से अपने मन का ही सुनोगे?” युवक ने कहा, “नहीं, अब ऐसा कभी नहीं करूंगा। इन ठोकरों को खाने के बाद यह ज्ञान मुझे मिल गया है कि इंसान ज्ञान के बल पर अपने मन को भी वश में कर सकता है।”
युवक की बातों को सुनने के बाद राजा ने उसे अपना परिचय दिया। साथ ही कई स्वर्ण मुद्राएं देकर सद्बुद्धि के साथ व्यापार शुरू करने की सलाह दी। इसके बाद राजा वापस अपने महल लौट आए।
उस युवक से मिलने के बाद राजा विक्रमादित्य को दोनों तपस्वियों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब मिल गए थे। इसलिए, उन्होंने अगले दिन दोनों को दरबार में बुलवाया। दोनों तपस्वी जब राजा के सामने पेश हुए, तो उन्होंने उन सवालों के जवाब दिए।
राजा ने कहा, “इंसान का मन बार-बार उसके शरीर पर नियंत्रण पाने की कोशिश करता है, लेकिन उसका ज्ञान उसे कभी हावी होने नहीं देता है। एक ज्ञानी व्यक्ति कभी भी मन के आगे नहीं हारता है और वह हमेशा अपने ज्ञान से ही चलता है।”
राजा ने उन दोनों तपस्वियों को उस गरीब युवक की कहानी सुनाई और कहा, “अगर मन रथ है, तो ज्ञान उसका सारथी होता है। बिना सारथी के रथ कुछ नहीं है।” राजा की बातें सुनने के बाद दोनों तपस्वियों को अपने सवालों के जवाब मिल गए थे।
राजा की बातों से प्रसन्न होकर दोनों तपस्वियों ने उन्हें एक खड़िया उपहार में दिया। इस खड़िया की एक खासियत थी कि इससे बनाए गए चित्र रात में जीवित हो सकते थे और उनकी बातों को भी सुना जा सकता है।
राजा विक्रमादित्य ने यह जानने के लिए कि खड़िया सच्चा है या नहीं, उन्होंने कई चित्र बनाए। खड़िया सचमुच वैसा ही निकला जैसा तपस्वी ने कहा था।
धीरे-धीरे राजा उसमें मग्न होते चले गए। यहां तक कि उन्हें अपनी रानियों की भी चिंता नहीं थी। कई दिनों बाद जब रानियां उनसे मिलने आईं, तो राजा का ध्यान बंटा। राजा ने जब खुद को देखा, तो जोर से हंस पड़े। इसपर रानियों ने पूछा, ” महाराज आप हंस क्यों रहे हैं?” तब राजा ने कहा, “दूसरों को शिक्षा देने वाला मैं खुद भी मन के आगे विवश हो गया था, लेकिन अब मुझे अपने कर्तव्य का पूरा ज्ञान है।”
इस कहानी को सुनाने के बाद उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा राजा भोज से कहती है, “अगर तुम्हारे पास भी राजा विक्रमादित्य जैसी काबिलियत है, तो ही सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ना।” इतना कहकर पुतली वहां से उड़ जाती है और राजा भोज भी वहां से चले जाते हैं।
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