दर्द हो दिल में तो दवा कीजे दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे हमको फ़रियाद करनी आती है आप सुनते नहीं तो क्या कीजे इन बुतों को ख़ुदा से क्या मतलब तौबा तौबा ख़ुदा ख़ुदा कीजे रंज उठाने से भी ख़ुशी होगी पहले दिल दर्द आशना कीजे अर्ज़-ए-शोख़ी निशात-ए-आलम है हुस्न को और ख़ुदनुमा कीजे दुश्मनी हो चुकी बक़द्र-ए-वफ़ा अब हक़-ए-दोस्ती अदा कीजे मौत आती नहीं कहीं, ग़ालिब कब तक अफ़सोस जीस्त का कीजे
यूं हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं! कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं
आज फिर इस दिल में बेक़रारी है सीना रोए ज़ख्म-ऐ-कारी है फिर हुए नहीं गवाह-ऐ-इश्क़ तलब अश्क़-बारी का हुक्म ज़ारी है बे-खुदा , बे-सबब नहीं , ग़ालिब कुछ तो है जिससे पर्दादारी है
दुःख दे कर सवाल करते हो तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो देख कर पूछ लिया हाल मेरा चलो कुछ तो ख्याल करते हो शहर-ऐ-दिल में उदासियाँ कैसी यह भी मुझसे सवाल करते हो मरना चाहे तो मर नहीं सकते तुम भी जिना मुहाल करते हो अब किस किस की मिसाल दू मैं तुम को हर सितम बे-मिसाल करते हो
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें चल निकलते जो में पिए होते क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो काश के तुम मेरे लिए होते मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था दिल भी या रब कई दिए होते आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’ कोई दिन और भी जिए होते
सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है
मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब” अर्श से इधर होता काश के मकान अपना
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है' तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़ सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता वरना शहर में 'ग़ालिब; की आबरू क्या है
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर देखिए कब दिन फिरें हम्माम के इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक कौन जीता है तॆरी ज़ुल्फ कॆ सर होने तक दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग देखे क्या गुजरती है कतरे पे गुहर होने तक आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम में भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सते-हस्ती गाफिल गर्मी-ए-बज्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक गम-ए-हस्ती का 'असद' कैसे हो जुज-मर्ग-इलाज शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक
इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही क़त्अ कीजे, न तअल्लुक़ हम से कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही मेरे होने में है क्या रुसवाई ऐ वो मजलिस नहीं, ख़ल्वत ही सही हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने ग़ैर को तुझसे मुहब्बत ही सही हम कोई तर्के-वफ़ा करते हैं ना सही इश्क़, मुसीबत ही सही हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही यार से छेड़ चली जाए 'असद' गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तेहाब में काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में शब हाए हिज्र को भी रखूँगा हिसाब में ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ मैं जानता हूँ वो जो लिखेंगे जवाब में मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में लाखों लगाव एक चुराना निगाह का लाखों बनाव एक बिगड़ना इताब में ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर वो ख़ूँ जो चश्म ए तर से उम्र भर यूँ दमबदम निकले निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जामेजम निकले हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरते-मेह्रे-नीमरोज़ आप ही हो नज़ारा-सोज़, पर्दे में मुँह छिपाये क्यों दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जांसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों क़ैदे-हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों हुस्न और उसपे हुस्न-ज़न रह गई बुल्हवस की शर्म अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-वज़अ़ राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यों हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों 'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों
वो फ़िराक और वो विसाल कहाँ को शब ओ रोज़ ओ माह ओ साल कहाँ फुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक किसे ज़ौक-ए-नज़ारा-ए-ज़माल कहाँ दिल तो दिल वो दिमाग भी ना रहा शोर-ए-सौदा-ए-खत्त-ओ-खाल कहाँ थी वो इक शख्स की तसव्वुर से अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ ऐसा आसां नहीं लहू रोना दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ हमसे छूटा किमारखाना-ए-इश्क वाँ जो जावे गिरह में माल कहाँ फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ मुज़महिल हो गए कवा ग़ालिब वो अनासिर में एतिदाल कहाँ बोसे में वो मुज़ाइक़ा न करे पर मुझे ताक़ते सवाल कहा
ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते, यही इंतजार होता तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना के खुशी से मर ना जाते, अगर 'ऐतबार' होता तेरी नाज़ुकी से जाना के बँधा था 'एहेद-ए-बोधा' कभी तू ना तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम कश को ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज़ होता, कोई गम-गुसार होता रग-ए-संग से टपकता, वो लहू की फिर ना थमता जिसे गम समझ रहे हो, ये अगर शरार होता ग़म अगरचे जान-गुलिस हैं , पे कहाँ बचें के दिल हैं ग़म-ए-इश्क़ गर ना होता, ग़म-ए-रोज़गार होता कहूँ किस से मैं के क्या हैं शब-ए-ग़म बुरी बला हैं मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना गर्क-ए-दरिया ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता उसे कौन देख सकता के यगान हैं वो यक्ता जो दूई की बू भी होती, तो कहीं दो चार होता ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब' तुझे हम वली समझते, जो ना बादा-ख्वार होता
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझावेंगे क्या आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लावेंगे क्या गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही ये जुनून-ए-इश्क के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं ज़ंजीर से भागेंगे क्यूँ हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा ज़िंदाँ से घबरावेंगे क्या है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त असद हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं याद थी हमको भी रन्गा रन्ग बज़्माराईयाँ लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ हो गईं थीं बनातुन्नाश-ए-गर्दूँ दिन को पर्दे में निहाँ शब को उनके जी में क्या आई कि उरियाँ हो गईं क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से है ज़ुलैख़ा ख़ुश के मह्व-ए-माह-ए-कनाँ हो गईं जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़ मैं ये समझूँगा के शमएं हो फ़रोज़ाँ हो गईं इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तक़ाम क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वाँ हो गईं नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परिशाँ हो गईं मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया बुल-बुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो गईं वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं यारब दिल के पार जो मेरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्श्गाँ हो गईं बस कि रोका मैं ने और सीने में उभरें पै ब पै मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबाँ हो गईं वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब याद थी जितनी दुआयें, सर्फ़-ए-दर्बाँ हो गईं जाँफ़िज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जाँ हो गईं हम मुवहिहद हैं, हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम मिल्लतें जब मिट गैइं, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं रंज से ख़ूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज मुश्किलें मुझ पर पड़ि इतनी के आसाँ हो गईं यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब', तो अए अह्ल-ए-जहाँ देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं
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