नमस्कार दोस्तों आप सभी का स्वागत है हमारे वेबसाईट "Shayari " में , यहाँ पर हमने आप सभी के लिए के कुछ बहुत ही अच्छे नूर मोहम्मद के गजल के कलेक्शन किए है । आशा करते है की आप सभी को यह ग़ज़ल पसंद आएँगी । धन्यवाद!!!!
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इधर पेच है तो मियाँ ,ख़म उधर भी
वही ग़म इधर भी वही ग़म उधर भी
है दोनों तरफ दर्दो-ग़म भूख ग़ुरबत
दवा बम इधर भी दवा बम उधर भी
उजाला यहाँ से वहाँ तक परेशाँ
वही तम इधर भी वही तम उधर भी
किसी से भी कोई न छोटा बड़ा है
वही हम इधर भी वही हम उधर भी
ज़रा-सी मुहब्बत ज़रा-सी शराफ़त
वही कम इधर भी वही कम उधर भी
उखड़ता हुआ 'नूर' इंसानियत का
वही दम इधर भी वही दम उधर भी
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जो बँधी थी गाँठ में वो भी गँवाई हाय हाय
आपकी बंदानवाज़ी रहनुमाई हाय हाय
कब से फैलाए खड़े हैं हाथ, अपने राह में
थामते हैं आप ग़ैरों की कलाई हाय हाय
फिर वही कौरव वही पांडव महाभारत वही
छिड़ रही है फिर उसी जैसी लड़ाई हाय हाय
हम कि दोनों जून की रोटी को भी मँहगे हुए
चाभते हैं आप लंदन की मलाई हाय-हाय
अब कोई क़ातिल , कोई मुजरिम न बख़्शा जाएगा
आपने क्या ख़ूब फ़रमाया, बधाई हाय हाय
क़ाग़ज़ों पे पुल बने सड़कें बनीं फिर क्या हुआ
योजनाओं को लगी आने जम्हाई हाय-हाय
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भूख जब वे गाँव की पूरे वतन तक ले गए
मामला हम भी ये फिर शेरो-सुखन तक ले गए
हम इधर उसके दुपट्टे को रफ़ू करते रहे
वो, उधर शेरों को उसके तन-बदन तक ले गए
आग भी हैरान थी शायद ये मंज़र देखकर
जब उसे तहज़ीब-दाँ घर की दुल्हन तक ले गए
हम पिलाते रह गए अपना लहू हर लफ़्ज़ को
और वे बे-अदबियाँ सत्ता सदन तक ले गए
छेनियाँ, बसुँला, अँगूठे, उँगलियाँ ,ख़्वाबो-ख़याल
हम ही तहज़ीबों को उनके बाँकपन तक ले गए
जबकि हर तोहमत सही , भूखे रहे ए 'नूर' हम
फिर भी अपनी प्यास हम गंगो-जमन तक ले गए
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हक़ तुझे बेशक है, शक से देख, पर यारी भी देख
ऐब हम में देख पर बंधु! वफ़ादारी भी देख
हम ही हम अक्सर हुए हैं खेत, अपने मुल्क में
फिर भी हम ज़िंदा, यहीं हैं, ये तरफ़दारी भी देख
सरफ़रोशी की, लुटाया जिस्मो-जाँ, इल्मो-फ़ुनून
और बदले में ख़रीदा क्या, ख़रीदारी भी देख
लड़ रहे हैं और हम लड़ते रहेंगे तीरगी!
'नूर' के हिस्से का ये चकमक जिगरदारी भी देख
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बे-मुल्क हो रहा है जो हिन्दोस्तान में
हर पल समा रहा है मेरे ज़ेहनो-जान में
भाषा तो खैर आपकी दुमदार हो गई
क्या आग भी नहीं है ज़रा- सी ज़ुबान में
यह कौन पूछता है उधर खाँसता हुआ
है और कितनी देर अभी भी बिहान में
कुछ इस तरह से लोग दिले-रहनुमा में हैं
ज्यूँ गंदगी भरी हो किसी नाबदान में
फिरता था जिसके पीछे ज़माना वो आज कल
तन्हा पड़ा हुआ है अँधेरे मकान में
गिरते हो बार-बार अँधेरे में 'नूर' तुम
अब भी कहीं कमी है तुम्हारी उड़ान में
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सुबह का चावल नहीं है, रात का आटा नहीं
किसने ऐसा वक़्त मेरे गाँव में काटा नहीं
शोर है कमियों ही कमियों का हर इक लम्हा यहाँ
मेरे घर में आजकल कोई भी सन्नाटा नहीं
क्या हुआ पैसे नहीं मिलते, मगर मिलता है सुख
लिखने-पढ़ने में बहुत ज्यादा मगर घाटा नहीं
दर्दो-गम है भूख है पीड़ा है चोटें और दुख
इस नदी में ज्वार तो आए मगर भाटा नहीं
क़र्ज़ की हम भी इधर खाते हैं पीते हैं 'असद'
नूर, अंबानी नहीं, बिड़ला नहीं, टाटा नहीं
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हमको हर दिन उबाल कर मालिक
हर घड़ी मत हलाल कर मालिक
तेरे नौकर हैं, ठीक है, फिर भी
थोड़ा ढँग से सवाल कर मालिक
कल जो आँधी है, कल जो दहशत है
कल का कुछ तो ख़याल कर मालिक
आज जो कह दिया, कहा लेकिन
कल से कहियो सँभाल कर मालिक
मोच आ जाये ना बुलंदी में
राह चल देखभाल कर मालिक
इन अँधेरों को नूर होना है
तेरी हस्ती उछाल कर मालिक
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वे ख़ाम-ख़्वाह हथेली पे जान रखते हैं
अजीब लोग हैं मुँह में ज़ुबान रखते हैं
ख़ुशी तलाश न कर मुफ़लिसों की बस्ती में
ये शय अभी तो यहाँ हुक़्मरान रखते हैं
यहँ की रीत अजब दोस्तो, रिवाज अजब
यहाँ ईमान फक़त बे-ईमान रखते हैं
चबा-चबा के चबेने-सा खा रहे देखो
वो अपनी जेब में हिन्दोस्तान रखते हैं
ग़मों ने दिल को सजाया, दुखों ने प्यार किया
ग़रीब हम हैं मगर क़द्रदान रखते हैं
वे जिनके पाँव के नीचे नहीं ज़मीन कोई
वे मुठ्ठियों में कई आसमान रखते हैं
सजा के जिस्म न बेचें यहाँ, कहाँ बेचें
ग़रीब लोग हैं, घर में दुकान रखते हैं।
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खेत के बाहर हैं फ़स्लें और पानी खेत में
इतना बरसाया खुदा ने मेहरबानी खेत में
खेत ही था गाँव उनका खेत ही था देश भी
डूब सपनों की गई यूँ राजधानी खेत में
बह गईं सब रोटियाँ-लंगोटियाँ भी बाढ़ में
बच गया आँखों में कुछ, कुछ और पानी खेत में
खनखना उठ्ठेगी फिर सोने के कंगन-सी फ़सल
जब पिघल जाएगी सोने- सी जवानी खेत में।
स्वप्न-ग्रासी योजनाएँ, बघ-नखी दुर्नीति की
ढूँढने पर 'नूर' मिलती है कहानी खेत में
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बेहयाई, बेवफ़ाई, बेईमानी हर तरफ़
धीरे-धीरे मर रहा आँखों का पानी हर तरफ़
सोचता हूँ नस्ले-नौ कल क्या पढ़ेगी ढूँढकर
पानियों पर लिख रही दुनिया कहानी हर तरफ़
फिर भी कुछ दिखता नहीं जबकि उजाला खूब है
रौशनी-सी, तीरगी की तर्जुमानी हर तरफ़
मुल्क तो दिखता नहीं है मुल्क में यारो कहीं
दिख रही लेकिन है उसकी राजधानी हर तरफ़
किसको-किसको रोइएगा और क्या-क्या ढोइए
एक जैसी लानते और लनतरानी हर तरफ़
बर्फ़ के तोदे ही तोदे अब ख्य़ालो-ख़्वाब् पे
पर ग़ज़ल में `नूर' जी! आतिश-बयानीं हर तरफ़
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