किसी नगर में एक आदमी रहता था| उसके आंगन में एक पौधा उग आया| कुछ दिनों बाद वह पौधा बड़ा हो गया और उस पर फल लगे|


एक दिन एक फल पककर नीचे गिरा| उसे एक कुत्ते ने मुंह में ले लिया देखते-देखते कुत्ते के प्राण निकल गए| आदमी ने सोचा, होगी कोई बात| उसका ध्यान फल की ओर नहीं गया| कुछ समय बाद पड़ोसी का लड़का आया| बढ़िया फल देखकर उसका मन ललचाया| उसने एक फल तोड़ा और जैसे ही दांत से काटा कि उसका दम टूट गया|


अब आदमी ने समझा कि वह विष-वृक्ष है| उसे बड़ा गुस्सा आया| उसने कुल्हाड़ी ली और वृक्ष के सारे फल काट-काटकर गिरा दिए|


लेकिन थोड़े दिन बाद फिर फल उग आए और इस बार पहले से भी बड़े-बड़े फल लगे थे, उसने फिर कुल्हाड़ी उठाई और एक-एक शाखा को काट डाला| न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! उसने चैन की सांस ली|


परंतु कुछ ही दिन बाद सारा पेड़ फिर लहलहा उठा और फलों से लद गया| आदमी ने सिर पकड़ लिया| अब वह क्या करे? उसके पड़ोसी ने उसकी यह हालत देखी, तो उसके पास आया| बोला - "क्यों क्या बात है? इतने परेशान क्यों हो?"


आदमी ने सारा हाल कह सुनाया| सुनकर पड़ोसी ने कहा - "तुम बड़े भोले हो| तुमने फल तोड़े, शाखाएं काटीं, पर यह नहीं सोचा कि जब तक जड़ रहेगी, पेड़ रहेगा तब तक फल आते रहेंगे| तुम चाहते हो कि इस बला से छुटकारा मिले तो इसकी जड़ को काटो|"


उस आदमी का बोध हुआ| तब उसने समझा कि बुराई की ऊपरी काट-छांट से वह नही मिटती, उसकी जड़ काटनी चाहिए|


उसने कुल्हाड़ी लेकर पेड़ की जड़ को काट दिया और हमेशा के लिए चिंता से मुक्त हो गया|


 मेवाड़ के महाराणा अपने एक नौकर को हमेशा अपने साथ रखते थे, चाहे युद्ध का मैदान हो, मंदिर हो या शिकार पर जाना हो। एक बार वह अपने इष्टदेव एकलिंग जी के दर्शन करने गए। उन्होंने हमेशा की तरह उस नौकर को भी साथ ले लिया। दर्शन कर वे तालाब के किनारे घूमने निकल गए। उन्हें एक पेड़ पर ढेर सारे पके आम दिखाई दिए। उन्होंने एक आम लेकर चार फांकें बनाईं। एक फांक नौकर को देते हुए कहा, ‘बताओ, इसका कैसा स्वाद है?‘ आम खाकर नौकर ने कहा ‘महाराज! बहुत मीठा है। ऐसा मीठा आम तो मैंने कभी खाया ही नहीं। कृपया एक और देने की कृपा करें।’


महाराणा ने एक फांक और दे दी। नौकर ने उसे भी पहले की तरह मजे लेकर खाया और कहा, ‘वाह! क्या स्वाद है! मजा आ गया। मेहरबानी करके एक और दे दीजिए।’ महाराणा को हैरत हुई। उन्हें उसके व्यवहार में थोड़ी अस्वाभाविकता नजर आई। लेकिन वह उनका प्रिय सेवक था जिससे वह काफी स्नेह करते थे। इसलिए उसकी इस मांग को पूरा करने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। उन्होंने तीसरी फांक भी दे दी। उसे खाते ही नौकर बोला, ‘यह तो बिल्कुल अमृत फल है। यह भी दे दीजिए।’ उसने अंतिम फांक भी मांग ली। लेकिन इस बार महाराणा को गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा, ‘तुम्हें शर्म नहीं आती। तुम्हें सब कुछ पहले मिलता है तब भी तुम इतनी हिम्मत कर रहे हो मेरे सामने?’


यह कहते हुए महाराणा ने वह फांक अपने मुंह में रख ली लेकिन तुरंत उगल दिया। वह बोले, ‘इतना खट्टा आम खाकर भी तुम कहते रहे कि यह मीठा है, अमृत तुल्य है, क्या स्वाद है। क्यों कहा ऐसा?’ नौकर बोला, ‘महाराज! जीवन भर आप मीठे आम देते रहे हैं। आज खट्टा आम आ गया तो कैसे कहूं कि यह खट्टा है, ऐसा कहना, मेरी कृतघ्नता नहीं होती?’ महाराणा ने उसे गले से लगा लिया और उसे पुरस्कृत किया।


 किसी नगर में एक सेठ रहा करता था| वह बड़ा ही उदार और परोपकारी था| उसके दरवाजे पर जो भी आता था, वह उसे खाली हाथ नहीं जाने देता था और दिल खोलकर उसकी मदद करता था|


एक दिन उसके यहां एक आदमी आया उसके हाथ में एक पर्चा था, जिसे वह बेचना चाहता था| उसके पर्चे पर लिखा था - 'सदा न रहे!'


इस परचे को कौन खरीदता, लेकिन सेठ ने उसे तत्काल ले लिया और अपनी पगड़ी के एक छोर में बांध लिया| नगर के कुछ लोग सेठ से ईर्ष्या करते थे| उन्होंने एक दिन राजा के पास जाकर उसकी शिकायत की जिससे राजा ने सेठ को पकड़वाकर जेल में डलवा दिया| जेल में काफी दिन निकल गए| सेठ बहुत दुखी था| क्या करे, उसकी समझ में कुछ नहीं आता था|


एक दिन अकस्मात् सेठ का हाथ पगड़ी की गांठ पर पड़ गया| उसने गांठ को खोलकर पर्चा निकाला और पर्चा पढ़ा| पढ़ते ही उसकी आंखें खुल गईं| उसने मन-ही-मन कहा-'अरे, तो दुख किस बात का! जब सुख के दिन सदा न रहे तो दुख के दिन भी सदा न रहेंगे|'


इस विचार के आते ही वह जोर से हंस पड़ा और बहुत देर तक हंसता रहा| जब चौकीदार ने उसकी हंसी सुनी तो उसे लगा, सेठ मारे दुख के पागल हो गया है| उसने राजा को खबर दी| राजा आया और उसने सेठ से पूछा - "क्या बात है?"


सेठ ने राजा को सारी बात बता दी| उसने कहा - "राजन आदमी दुखी क्यों होता है? सुख-दुख के दिन तो सदा बदलते रहते हैं| सुख और दुख तो जीवन के दो पहलू हैं| यदि आज सुख है तो हो सकता है कि कल हमें दुख का मुंह भी देखना पड़े|"


यह सुनकर राजा को बोध हो गया| उसने सेठ को जेल से निकलवाकर उसके घर भिजवा दिया| सेठ आनंद से रहने लगा, क्योंकि उसे ज्ञात हो गया था कि सुख के साथ-साथ दुख के दिन भी सदा नहीं रहते


 वनवास के समय पाण्डव द्वैत वन में थे| वन में घूमते समय एक दिन उन्हें प्यास लगी| धर्मराज युधिष्ठिर ने वृक्ष पर चढ़कर इधर-उधर देखा| एक स्थान पर हरियाली तथा जल होने के चिह्न देखकर उन्होंने नकुल को जल लाने भेजा| नकुल उस स्थान की ओर चल पड़े| वहां उन्हें स्वच्छ जल से पूर्ण एक सरोवर मिला, किंतु जैसे ही वे सरोवर में जल पीने उतरे, उन्हें यह वाणी सुनाई पड़ी, "इस सरोवर का पानी पीने का साहस मत करो| इसके जल पर मैं पहले ही अधिकार कर चुका हूं| पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, तब पानी पीना|"


नकुल बहुत प्यासे थे| उन्होंने उस बात पर, जिसे एक यक्ष ने कहा था, ध्यान नहीं दिया| लेकिन जैसे ही उन्होंने सरोवर का जल मुख से लगाया, वैसे ही निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़े|


इधर, नकुल को गए बहुत देर हो गई तो युधिष्ठिर ने सहदेव को भेजा| सहदेव को भी सरोवर के पास यक्ष की वाणी सुनाई पड़ी| उन्होंने भी उस पर ध्यान न देकर जल पीना चाहा और वे भी प्राणहीन होकर गिर गए| इसी प्रकार धर्मराज ने अर्जुन और भीमसेन को भी भेजा| वे दोनों भी बारी-बारी से आए और उनकी भी यही दशा हुई|


जब जल लाने गए कोई भाई न लौटे, तब बहुत थके होने पर भी स्वयं युधिष्ठिर उस सरोवर के पास पहुंच गए| अपने देवोपम भाइयों को प्राणहीन पृथ्वी पर खड़े देखकर उन्हें अपार दुख हुआ| काफी देर तक भाइयों के लिए शोक करके अंत में वे भी जल पीने को उद्यत हुए| उन्हें पहले तो यक्ष ने बगुले के रूप में रोका, किंतु युधिष्ठिर के पूछने पर कि - तुम कौन हो? वह यक्ष के रूप में एक वृक्ष पर दिखाई पड़ा|


शांतचित्त धर्मात्मा युधिष्ठिर ने कहा, "यक्ष ! मैं दूसरे के अधिकार की वस्तु नहीं लेना चाहता| तुमने सरोवर के जल पर पहले ही अधिकार कर लिया है, तो वह जल तुम्हारा रहे| तुम जो प्रश्न पूछना चाहते हो, पूछो, मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनका उत्तर देने का प्रयत्न करूंगा|"


यक्ष ने अनेकों प्रश्न पूछे| युधिष्ठिर ने सभी प्रश्नों का उचित उत्तर दिया| उनके उत्तरों से संतुष्ट होकर यक्ष ने कहा, "राजन ! तुमने मेरे प्रश्नों के ठीक उत्तर दिए हैं, इसलिए अपने इन भाइयों में से जिस एक को चाहो, वह जीवित हो सकता है|"


युधिष्ठिर बोले, "आप मेरे छोटे भाई नकुल को जीवित कर दें|" यक्ष ने आश्चर्य से कहा, "तुम राज्यहीन होकर वन में भटक रहे हो, शत्रुओं से तुम्हें अंत में संग्राम करना है, ऐसी दशा में अपने परम पराक्रमी भाई भीमसेन अथवा शस्त्रज्ञ चूड़ामणि अर्जुन को छोड़कर नकुल के लिए क्यों व्यग्र हो?"


धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा, "यक्ष ! राज्य का सुख या वनवास का दुख तो भाग्य के अनुसार मिलता हैं, किंतु मनुष्य को धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए| जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म स्वयं उसकी रक्षा करता है| इसलिए मैं धर्म को नहीं छोड़ूंगा| कुंती और माद्री दोनों मेरी माता हैं| कुंती का पुत्र मैं जीवित हूं| अत: मैं चाहता हूं कि मेरी दूसरी माता माद्री का वंश भी नष्ट न हो| उनका भी एक पुत्र जीवित रहे| तुम नकुल को जीवित करके दोनों को पुत्रवती कर दो|"


यक्ष ने कहा, "तुम अर्थ और काम के विषयों में परम उदार हो, अत: तुम्हारे चारों भाई जीवित हो जाएं| मैं तुम्हारा पिता धर्म हूं| तुम्हें देखने तथा तुम्हारी धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने आया था|"


धर्म ने अपना स्वरूप प्रकट कर दिया| चारों मृतप्राय पाण्डव तत्काल उठ बैठे|

 दूसरे महायुद्ध की बात है। एक जापानी सैनिक गंभीर रूप से घायल हो गया था, काफी रक्त बह चुका था, ऐसा लग रहा था, वह कुछ ही क्षणों का मेहमान है। एक भारतीय सैनिक की मानवता जागी, शत्रु है तो क्या? मरते हुये को पानी देना, मानवता के नाते धर्म है। म्रत्यु के आखिरी क्षणों में शत्रुता कैसी? उसने अपनी बोतल से पानी निकाला, घायल सैनिक के मुँह से लगाया बोला-मित्र बुद्ध के देश में इस सैनिक के हाथों की वीरता, युद्ध भूमि में देख चुके हो। अब स्नेह भी देखो, जल पीओ।


किन्तु उस दुष्ट ने दया का बदला यह दिया कि अपने चाकू से भारतीय सैनिक को घायल कर दिया। रक्त की धार बह चली, घायल हो भारतीय सैनिक गिर पडा। दोनों ही सैनिकों को भारतीय अस्पताल पहुँचाया गया। दोनों ही की मरहम पट्टी की गई। धीरे-धीरे दोनों ही ठीक हो गये।


ठीक होने पर फिर भारतीय सैनिक, जापानी सैनिक से मिलने चला गया। उसकी कुशलक्षेम पूछी और फिर चाय का प्याला दिया, गरम-गरम चाय पिलाई। जापानी सैनिक का मन पश्चाताप से भर उठा, उसे अपने किये पर आत्मग्लानी हो रही थी। उसने भारतीय सैनिक से कहा दोस्त अब मैं समझा कि बुद्ध का जन्म तुम्हारे देश में क्यों हुआ था।


मनुष्य की सोई हुई मानवता कभी भी जाग्रत हो कर परोपकार के अदभुत कर्म करा सकती है। वे कार्य जो मनुष्य किसी भी सांसारिक लोभ के वश में होकर नहीं करता, अन्तरात्मा के दैवी प्रभाव में एकाएक कर बैठता है। अन्दर की अन्तरात्मा जाग कर उसे परोपकार के शुभकार्यों की ओर तीव्रता से प्रेरित करती है।


वस्यो भूयाय वसुमान यज्ञ वसु वंशिषीय, वसुमान भूयासं वसु मयि धेहि..


मनुष्यों, ईश्वर पर पूर्ण आस्था रखो और इस संसार में परोपकार करते हुए श्रेष्ठ पद प्राप्त करो। परोपकार की पूंजी सदा अक्षय कीर्ती देने वाली दैवी विभूति है। परोपकारी इस लोक में प्रसन्न रहता है और मरने के बाद भी सदा याद किया जाता है।


अधा नो देव सवितः

प्रजावत सावीः सौबगम्

परा दुःस्वप्नय सुव।।


जो ईश्वर की आराधना के साथ साथ पुरूषार्थ और परोपकार करते हैं, उनके दुख दारिद्रय दूर होते हैं और ऐश्वर्य बढता है।


कहा जाता है कि संसार में कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं होता, श्रेष्टता का अंश सभी में होता है। जरूरत बस एक ऐसे व्यक्ति की होती है, जो अच्छाई को लगातार प्रोत्साहन देता रहे, अच्छे काम करने वालों को बढावा दे। बस दूसरों को अपने उत्तम गुण सक्रिय करने का मौका दिजीए, किसी में कोई भली बात या श्रेष्टता नजर आती है तो दिल खोलकर प्रशंसा कीजिए, प्रोत्साहन से उसका दैवीय पक्ष जाग उठेगा।


 किसी नगर में एक महा विद्वान ब्राह्मण रहता था| विद्वान होने पर भी वह अपने पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप चोरी किया करता था| एक बार उसने अपने नगर में ही बाहर से आए हुए चार ब्राह्मणों को देखा| वे व्यापार कर रहे थे| चोर ब्राह्मण ने सोचा कि वह ऐसा कौन-सा उपाय करे कि जिससे उनकी सारी सम्पत्ति उसके अपने पास आ जाए| कुछ विचार कर वह उनके समीप गया ओर उन पर अपने पण्डित्य की छाप लगाने लगा| अपनी मीठी वाणी से उसने अपने प्रति उनका विश्वास उत्पन्न कर लिया और इस प्रकार वह उनकी सेवा करने लगा|


किसी ने ठीक ही कहा है कि कुलटा स्त्री ही अधिक लज्जा करती है, खरा जल अधिक ठंडा होता है, पाखण्डी व्यक्ति अधिक विवेक होता है और धूर्त व्यक्ति ही अधिक प्रिय बोलता है| एक दिन ब्राह्मणों ने जब अपना सारा सामान बेच लिया तो उससे प्राप्त धन से उन्होंने रत्न आदि खरीद लिए| तब उन्होंने अपने देश को प्रस्थान करने का निश्चय किया| उन्होंने अपनी जंघाओं में उन रत्नों को छिपा लिया|


यह देखकर उस ब्राह्मण को इतने दिनों तक भी उनकी सेवा में रहकर अपनी असफलता पर खेद होने लगा| तब उसने निश्चय किया कि वह उनके साथ जाएगा और मार्ग में उनको विष देकर उनकी सम्पत्ति हथिया लेगा| उसने जब रो-धोकर उसे अपने साथ चलने का आग्रह किया तो उन्होंने स्वीकार कर लिया| इस प्रकार जब वे जा रहे थे तो मार्ग में एक भीलों का ग्राम आया| उस ग्राम के कौए प्रशिक्षित थे जो धन होने का संकेत दे देते थे| उन्होंने संकेत दिया तो भीलों को संदेह हो गया कि उनके पास सम्पत्ति है| भीलों ने उनको घेरकर उनसे धन छीनना चाहा| किन्तु ब्राह्मणों ने देने से इन्कार किया तो भीलों ने उनकी खूब पिटाई की| पीटकर उनके वस्त्र उतरवाये किन्तु उनको धन कहीं नहीं मिला|


यह देखकर उन भीलों ने कहा, -हमारे गांव के कौओं ने आज तक जो संकेत दिए वे कभी असत्य सिद्ध नहीं हुए| तब यदि तुम्हारे पास धन है तो हमें दे दो अन्यथा तुम्हें मारकर हम तुम्हारा अंग-अंग चीरकर उसमें रखे धन को ले लेंगे|


उस चोर ब्राह्मण ने जब यह सुना कि उसको मारा जाएगा तो वह समझ गया कि अन्त में उसकी भी बारी आएगी ही| अत: किसी प्रकार अपने प्राण देकर इनके प्राण बचाए जा सकें तो क्या हानि है?


यह विचार कर उसने कहा, 'भीलों! यदि तुम्हारा यही निश्चय है तो पहले मुझे मारकर अपने कौओं के संकेत का परीक्षण कर लो|


भीलों ने उस ब्राह्मण को मारकर उसका अंग-अंग चीर डाला| किन्तु कहीं कुछ नहीं मिला| यह देखकर उन्हें विश्वास हो गया कि उनके पास कुछ नहीं है, अत: उन्होंने उन चारों ब्राह्मणों को मुक्त कर दिया|


करटक बोला, 'तभी मैं कहता था कि यदि पण्डित अपना शत्रु भी हो, तो भी अच्छा होता है| किन्तु मुर्ख व्यक्ति का मित्र होना भी अच्छा नहीं है|'


वे इधर बात कर रहे थे ओर उधर पिंगलक और संजीवक युद्ध कर रहे थे| अन्त में पिंगल ने अपने नख-दन्त-प्रहार से संजीवक को मार ही डाला| पिंगलक को बड़ा दुःख हुआ| वह मन-ही-मन सोचने लगा कि उसने संजीवक के साथ विश्वासघात किया है| वह सोचने लगा कि आज तक मैंने अपनी सथा में सदा उसकी प्रशंसा ही की थी अब मैं सभासदों को क्या बताऊंगा?'


उसकी दशा देखकर दमनक उसके पास जाकर समझाने लगा कि वह ऐसी कायरता क्यों कर रहा है| यह राजा के लिए शोभाजनक नहीं है| दमनक बोला,'गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि जिनके विषय में शोक नहीं करना चाहिए उनके विषय में वह शोक क्यों कर रहा है? उसे जीवन के तत्व को समझकर उसके अनुकूल ही आचरण करना चाहिए| पण्डितजन किसी के जीने अथवा मरने का शोक अथवा हर्ष नहीं करते|'


दमनक के बहुविध समझाने पर पिंगलक ने संजीवक की मृत्यु का शोक करना छोड़ा और फिर दमनक को अपना मंत्री बनाकर पूर्वतत् अपना राज्य संचालन करने लगा|


 इंग्लैंड के राजा जेम्स उपाधि देने के लिए विख्यात थे। अपने शासनकाल में उन्होंने कई लोगों को विभिन्न प्रकार की उपाधियों से अलंकृत किया था। हालांकि जेम्स उसी को उपाधि देते थे जो उसका सही पात्र होता था। किसी को राजा जेम्स ने लॉर्ड की उपाधि दी तो किसी को डच्यूक की।


अपने समय के प्रत्येक उस व्यक्ति को राजा जेम्स ने उपाधि प्रदान की, जिसने किसी भी क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य किया हो अथवा विशिष्ट उपलब्धि अर्जित की हो। एक दिन राजा जेम्स के पास एक व्यक्ति आया और अभिवादन के पश्चात विनम्रता से बोला- मेरा एक निवेदन है। आपने लोगों को तरह-तरह की उपाधियां दी हैं। मैं चाहता हूं कि आप मुझे भी कोई सम्मानजनक उपाधि प्रदान करें, आपकी बहुत कृपा होगी।


राजा ने गंभीर होकर तथा आश्चर्य से पूछा- तुम्हें कैसी उपाधि चाहिए? उस व्यक्ति ने कहा- आप मुझे सज्जनता की उपाधि दीजिए ताकि सब लोग मुझे सज्जन समझें। राजा ने उत्तर दिया - सज्जनता की उपाधि एक राजा नहीं दे सकता। यह उपाधि तो तुम्हें सज्जनता के काम करने या लोककल्याण के काम करने पर लोग ही दे सकते हैं। इसलिए जाओ और समाज के बीच रहकर ऐसे काम करो, जिससे तुम्हें सभी लोग सज्जन कहने लगें।


कथा का सार यह है कि बिना कर्म किए फल की आशा करना व्यर्थ है। यदि व्यक्ति कर्मशील बने और अपने कर्मो को सतोन्मुखी रखे तो अवश्य ही समाज में सत्पुरुष की प्रतिष्ठा पाने का अधिकारी बनेगा।


 पुराने जमाने की बात है| अरब के लोगों में हातिमताई अपनी उदारता के लिए दूर-दूर तक मशहूर था| वह सबको खुले हाथों दान देता था| सब उसकी तारीफ करते थे|


एक दिन उसने बहुत बड़ी दावत दी| जो चाहे, वह उसमें शामिल हो सकता था| हातिमताई कुछ सरदारों को लेकर दूर के मेहमानों को बुलावा देने जा रहा था|


रास्ते में देखता क्या है कि एक लकड़हारे ने लकड़ियां काटकर एक गट्ठर तैयार किया है, उसकी गुजर-बसर लकड़ियां बेचकर ही होती थी| वह पसीना-पसीना हो रहा था, थककर चूर-चूर हो गया था|


हातिमताई ने उससे कहा - "ओ भाई! जब हातिमताई दावत देता है, तो तुम क्यों इतनी मेहनत करते हो दावत में शरीक क्यों नहीं हो जाते?"


लकड़हारे ने जवाब दिया - "जो अपनी रोटी आप कमाते हैं उन्हें किसी हातिमताई की उदारता की आवश्यकता नहीं होती|"


हातिमताई भौचक्का होकर उसे देखता रहा गया|

 बहुत पुरानी बात है। एक राजा था। उसके पास एक दिन एक संत आए। उन्होंने कई विषयों पर चर्चा की। राजा और संत में कई प्रश्नों पर खुलकर बहस भी हुई। अचानक बातों ही बातों में संत ने अधिकार की रोटी की चर्चा की। राजा ने इसके बारे में विस्तार से जानना चाहा तो संत ने उसे एक बुढ़िया का पता दिया और कहा कि वही उसे इसकी सही जानकारी दे सकती है।


राजा तत्काल बुढ़िया की तलाश में राजमहल से निकल पड़ा। काफी देर ढूंढने के बाद वह बुढ़िया राजा को मिल गई। राजा बहुत खुश हुआ। वह दौड़ कर उसकी झोपड़ी में जा पहुंचा, जहां बैठी वह चरखा कात रही थी। राजा उसके सामने खड़ा हो गया और बोला, ‘माई , मैं एक विचित्र सवाल का जवाब खोज रहा हूं, क्या आप मेरी मदद करेंगी?’


बुढ़िया ने एकटक राजा को देखा फिर हां कर दी। राजा ने पूछा, ‘माई, अधिकार की रोटी क्या होती है? मैं आज आप से वही लेने आया हूं।’ बुढ़िया ने राजा को पहचान कर कहा, ‘मेरे पास एक रोटी है। उसमें आधी अधिकार की है और आधी बिना अधिकार की।’


राजा की समझ में कुछ नहीं आया। उसने आश्चर्य से बुढ़िया की ओर देखा और कहा, ‘यह आप क्या कह रही हैं। साफ-साफ बताएं।’ बुढ़िया बोली, ‘कल मैं यहां बैठी चरखा कात रही थी। दिन ढल गया था। अंधेरा फैल गया था। तभी सड़क पर एक जलूस आया। उसमें मशालें जल रही थीं। मैं अपना चिराग न जलाकर आधी सूत उन मशालों की रोशनी में कातती रही।


आधी पहले कात चुकी थी। उस सूत को बेच कर आटा खरीद लाई। आटे की रोटी बनाई। इस तरह आधी रोटी मेरे अधिकार की है और आधी बिना अधिकार की। उस पर मेरा नहीं, जुलूस वालों का अधिकार है।’ बुढ़िया की बात सुनकर राजा चकित रह गया। उसकी धर्म-बुद्धि पर उसका सिर झुक गया।

 


 अंगुलिमाल नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था| वह लोगों को मारकर उनकी उंगलियां काट लेता था और उनकी माला बनाकर पहनता था| इसी कारण उसका यह नाम पड़ा था| मुसाफिरों को लूट लेना उनकी जान ले लेना, उसके बाएं हाथ का खेल था| लोग उससे बहुत डरते थे| उसका नाम सुनते ही उनके प्राण सूख जाते थे|


संयोग से एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले| लोगों ने उनसे प्रार्थना की कि वे वहां से चले जाएं| अंगुलिमाल ऐसा डाकू है, जो किसी के भी आगे नहीं झुकता|


बुद्ध ने लोगों की बात सुनी, पर उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला| वे बेधड़क वन में घूमने लगे|


जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह झुंझलाकर बुद्ध के पास आया| वह उन्हें मार डालना चाहता था, लेकिन जब उसने बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से उसका स्वागत करते देखा तो उसका पत्थर का दिल कुछ मुलायम हो गया|


बुद्ध ने उससे कहा - "सुनो भाई, सामने के पेड़ से चार पत्ते तोड़ लाओगे?"


अंगुलिमाल के लिए यह क्या मुश्किल था! वह दौड़कर गया और जरा-सी देर में पत्ते तोड़कर ले आया|


बुद्ध ने कहा - "अब एक काम और करो| जहां से इन पत्तों को तोड़कर लाए हो, वहीं इन्हें लगा आओ|"   


अंगुलिमाल बोला - "यह कैसे हो सकता है?"


बुद्ध ने कहा - "भैया! जब तुम जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं तो फिर तोड़ने का काम क्यों करते हो?"


इतना सुनते ही अंगुलिमाल को बोध हो गया और वह उस दिन से अपना धंधा छोड़कर बुद्ध की शरण में आ गया|


 एक बार युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म ने पूछा, "पितामह ! क्या आपने कोई ऐसा पुरुष देखा या सुना है, जो एक बार मरकर पुन: जी उठा हो?"


भीष्म ने कहा, "राजन ! पूर्वकाल में नैमिषारण्य में एक अद्भुत घटना घटी थी, उसे सुनो - एक बार एक ब्राह्मण का इकलौता पुत्र अल्पावस्था में ही मर गया था| रोते-बिलखते लोग उसे श्मशाम में ले गए| उनके रोने की आवाज सुनकर वहां एक गीध आया और कहने लगा, "अब तुम लोग इस बालक को यहीं छोड़कर घर चले जाओ| सभी को अपनी आयु समाप्त होने पर कूच करना ही पड़ता है| यह श्मशान भूमि गीध और गीदड़ों से भरी है| इसमें चारों तरफ नरकंकाल दिखाई पड़ रहे हैं| तुम लोगों को यहां अधिक नहीं ठहरना चाहिए| प्राणियों की गति ऐसी ही है कि एक बार काल के मुंह में जाने पर कोई जीव नहीं लौटता| देखो, अब सूर्य भगवान अस्ताचल के अंचल में पहुंच चुके हैं, इसलिए इस बालक का मोह छोड़कर तुम अपने घर लौट जाओ|"


गीध की बातें सुनकर वे लोग रोते-बिलखते चलने लगे| इतने में ही एक काले रंग का गीदड़ अपनी मांद में से निकला और वहां आकर कहने लगा, 'मनुष्यों ! वास्तव में तुम बड़े स्नेहशून्य हो| अरे मूर्खो ! अभी तो सूर्यास्त भी नहीं हुआ| इतना डरते क्यों हो? कुछ तो स्नेह निबाहो| किसी शुभ घड़ी के प्रभाव से यह बालक कहीं जी उठे| तुम कैसे निर्दयी हो| तुमने पुत्र स्नेह को तिलांजलि दे दी है और इस नन्हे से बालक को भीषण श्मशान में यों ही पृथ्वी पर सुलाकर छोड़कर जाने को तैयार हो गए हो| देखो, पशु-पक्षियों को भी अपने बच्चों पर इतना कम स्नेह नहीं होता| यद्यपि उनका पालन-पोषण करने पर उन्हें इस लोक या परलोक में कोई फल नहीं मिलता|


गीदड़ की बातें सुनकर वे लोग शव के पास लौट आए| अब वह गीध कहने लगा, 'अरे बुद्धिहीन मनुष्यों ! इस तुच्छ मंदमति गीदड़ की बातों में आकर तुम लौट कैसे आए| मुझे जन्म लिए आज एक हजार वर्ष से अधिक हो गया; किंतु मैंने कभी किसी पुरुष, स्त्री या नपुंसक को मरने के बाद यहां जीवित होते नहीं देखा| देखो इसकी मृत-देह निस्तेज और काष्ठ के समान निश्चेष्ट हो गई है| अब तुम्हारा स्नेह और श्रम तो व्यर्थ ही है| इससे कोई फल हाथ लगने वाला नहीं| मैं तुमसे अवश्य कुछ कठोर बातें कर रहा हूं, पर ये हेतु जनित हैं और मोक्ष धर्म से संबद्ध हैं| इसलिए मेरी बात मानकर तुम घर चले जाओ| किसी मरे हुए संबंधी को देखने पर और उसके कामों को याद करने पर तो मनुष्य का शोक दुगना हो जाता है|'


गीध की बातें सुनकर पुन: सब वहां से चलने लगे| उसी समय गीदड़ तुरंत उनके पास आया और बोला, 'भैया ! देखो तो सही इस बालक का रंग सोने के समान चमक रहा है| एक दिन यह अपने पितरों को पिण्ड देगा, तुम गीध की बातों में आकर इसे क्यों छोड़े जाते हो? इसे छोड़कर जाने में तुम्हारे स्नेह, व्यथा और रोने-धोने में तो कोई कमी आएगी नहीं| हां, तुम्हारा संताप अवश्य बढ़ जाएगा| सुनते हैं भगवान श्रीराम ने शंबूक को मारकर ब्राह्मण के मरे बालक का पुन: जिला दिया था| एक बार राजर्षि श्वेत का बालक भी मर गया था, किंतु धर्मनिष्ठ श्वेत ने उसे पुन: जीवित कर लिया था| इसी प्रकार यहां भी कोई सिद्ध मुनि या देवता आ गए तो वे रोते देखकर तुम्हारे ऊपर कृपा करके इसे पुन: जिला सकते हैं|'


गीदड़ के इस प्रकार कहने पर वे सब लोग फिर श्मशान में लौट आए और उस बालक का सिर गोद में रखकर रोने लगे| अब वह गीध उनके पास आया और कहने लगा, 'अरे भाइयो ! यह तो धर्मराज की आज्ञा से सदा के लिए सो गया है| जो बड़े तपस्वी, धर्मात्मा और बुद्धिमान होते हैं, उन्हें भी मृत्यु के हाथ में पड़ना पड़ता है| अत: बार-बार लौटकर शोक का बोझ सिर पर लादने से कोई लाभ नहीं है| जो व्यक्ति एक बार जिस देह से नाता तोड़ लेता है, वह पुन: उस शरीर में नहीं आ सकता| अब यदि इसके लिए एक नहीं, सैकड़ों गीदड़ अपने शरीर का बलिदान कर दें तो भी यह बालक नहीं जी सकता| तुम्हारे आंसू बहाने, लंबे-लंबे श्वास लेने या गला फाड़कर रोने से इसे पुनर्जीवन नहीं मिल सकता|


गीध के ऐसा कहने पर वे लोग फिर घर की ओर चल पड़े| इसी समय गीदड़ फिर बोला, 'अरे ! तुम्हें धिक्कार है| तुम इस गीध की बातों में आकर मूर्खों की तरह पुत्र स्नेह को तिलांजली देकर कैसे जा रहे हो| यह गीध तो महापापी है| मैं सच कह रहा हूं, मुझे अपने मन से तो यह बालक जीवित ही जान पड़ता है| देखो, तुम्हारी सुख की घड़ी समीप है| निश्चय रखो, तुम्हें अवश्य सुख मिलेगा|"


इस प्रकार गीध और गीदड़ दोनों उन्हें बार-बार अपनी बात कहकर समझाते थे| राजन ! गीध और गीदड़ दोनों ही भूखे थे| वे दोनों ही अपना-अपना काम बनाने पर तुले हुए थे| गीध को भय था कि रात हो जाने पर मुझे घोंसले में जाना पड़ेगा और इसका मांस सियार खाएगा| इधर गीदड़ सोचता कि दिन में गीध बाधक होगा या इसे लेकर उड़ जाएगा| इसलिए गीध तो यह कहता था कि अब सूर्यास्त हो गया और गीदड़ कहता था कि अभी अस्त नहीं हुआ| दोनों ही ज्ञान की बातें बनाने में कुशल थे| इसलिए उनकी बातों में आकर वे कभी घर की ओर चलते और कभी रुक जाते| कुशल गीध और गीदड़ ने अपना काम बनाने के लिए उन्हें चक्कर में डाल रखा था और वे शोकवश रोते हुए वहीं खड़े रहे| इतने में पार्वती जी की प्रेरणा से वहां भगवान शंकर प्रकट हुए| उन्होंने सबसे वर मांगने को कहा| तब सभी लोग अत्यंत विनीत भाव से दुखित होकर बोले, "भगवान ! इस एकमात्र पुत्र के वियोग में हम बड़े दुखी हैं, अत: आप इसे पुन: जीवनदान देकर हमें मरने से बचाइए|'


उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान ने उस बालक को पुन: जिला दिया और उसे सौ वर्ष की आयु दी| भगवान ने कृपा कर उस गीदड़ तथा गीध की भूख मिट जाने का वर दिया| वर पाकर सभी ने पुन: प्रभु को प्रणाम किया और कृतकृत्य होकर नगर की ओर चले गए|


राजन ! यदि कोई दृढ़ निश्चयी व्यक्ति धैर्यपूर्वक किसी कार्य के पीछे लगा रहे, उससे ऊबे नहीं, तो भगवत्कृपा से उसे सफलता मिल सकती है|"


 किसी नगर में द्रोण नाम का एक निर्धन ब्राह्मण रहा करता था। उसका जीवन भिक्षा पर ही आधारित था। अतः उसने अपने जीवन में न कभी उत्तम वस्त्र धारण किए थे और न ही अत्यंत स्वादिष्ट भोजन किया था। पान-सुपारी आदि की तो बात ही दूर है। इस प्रकार निरंतर दुःख सहने के कारण उसका शरीर बड़ा दुबला-पतला हो गया था।


ब्राह्मण की दीनता को देखकर किसी यजमान ने उसको दो बछड़े दे दिए। किसी प्रकार मांग-मांगकर उसने दोनों बछड़ों को पाला-पोसा और इस प्रकार वे जल्दी ही बड़े और हृष्ट-पुष्ट हो गए। ब्राह्मण उनको बेचने की सोच रहा था तभी उन दोनों बछड़ों को देखकर एक दिन किसी चोर ने चुरा लेने की योजना बनाई।


वह चोरी करने जा ही रहा था कि आधे मार्ग में उसको एक भयंकर व्यक्ति दिखाई दिया। उस व्यक्ति के प्रत्येक अंग से भयंकरता का आभास हो रहा था।


उसे देखकर चोर घबराकर एक बार तो वापस जाने का विचार कर बैठा, किन्तु फिर भी उसने साहस करके उससे पूछ ही लिया, “आप कौन हैं?” “मैं तो सत्यवचन नामक ब्रह्मराक्षस हूं, किन्तु तुम कौन हो?”


“मैं क्रूरकर्मा नामक चोर हूं। मैं उस दरिद्र ब्राह्मण के दोनों बछड़ों को चुराने के उद्देश्य से घर से चला हूं।” राक्षस बोला-“मित्र! मैं छः दिनों से भूखा हूं। इसलिए चलो आज उसी ब्राह्मण को खाकर मैं अपनी भूख मिटाऊंगा। अच्छा ही हुआ कि हम दोनों के कार्य एक-से ही हैं, दोनों को जाना भी एक ही स्थान पर हैं।”


इस प्रकार वे दोनों ही उस ब्राह्मण के घर जाकर एकान्त स्थान पर छिप गए। और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। जब ब्राह्मण सो गया तो उसको खाने के लिए उतावले राक्षस से चोर ने कहा, “आपका यह उतावलापन अच्छा नहीं है। मैं जब बछड़ों को चुराकर यहां से चला जाऊँ तब आप उस ब्राह्मण को खा लेना।”


राक्षस बोला, “बछड़ों के रम्भाने से यदि ब्राह्मण की नींद खुल गई तो मेरा यहां आना ही व्यर्थ हो जाएगा।” “और ब्राह्मण को खाते समय कोई विघ्न पड़ गया तो मैं बछड़ों को फिर किस प्रकार चुरा पाऊंगा। इसलिए पहले मेरा काम होने दीजिए।” इस प्रकार उन दोनों का विवाद बढ़ता ही गया था।


कुछ समय बाद दोनों जोर-जोर से चिल्लाने लगे। आवाज सुनकर ब्राह्मण की नींद खुल गई। उसे जगा हुआ देखकर चोर उसके पास गया और उसने कहा, “ब्राह्मण! यह राक्षस तुम्हें खाना चाहता है।” यह सुनकर राक्षस उसके पास जाकर कहने लगा, “ब्राह्मण! यह चोर तुम्हारे बछड़ों को चुराकर ले जाना चाहता है।”


एक क्षण तक तो ब्राह्मण विचार करता रहा, फिर उठा और चारपाई से उतरकर उसने इष्ट देवता का स्मरण किया। उसने मंत्र-जप किया और उसके प्रभाव से उसने राक्षस को निष्क्रिय कर दिया। फिर उसने लाठी उठाई और उससे चोर को मारने के लिए दौड़ा। चोर वहां से भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार उसने अपने बछड़े भी बचा लिए।


 प्रवचन करते हुए महात्मा जी कह रहे थे कि आज का प्राणी मोह-माया के जाल में इस प्रकार जकड़ गया है कि उसे आध्यात्मिक चिंतन के लिए अवकाश नहीं मिलता। प्रवचन समाप्त होते ही एक सज्जन ने प्रश्न किया, ‘आप ईश्वर संबंधी बातें लोगों को बताते रहते हैं लेकिन क्या आपने स्वयं कभी ईश्वर का दर्शन किया है?’ महात्मा जी बोले, ‘मैं तो प्रतिदिन ईश्वर के दर्शन करता हूं। तुम भी प्रयास करो तो तुम्हें भी दर्शन हो सकता है।’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं तो पिछले कई साल से पूजा कर रहा हूं मगर आज तक दर्शन नहीं हुए।’


महात्मा जी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘ईश्वर को प्राप्त करना एक पद्धति नहीं बल्कि एक शिल्प है।’ उस व्यक्ति ने जिज्ञासा प्रकट की, ‘आखिर पद्धति और शिल्प में क्या अंतर है?’ महात्मा जी ने समझाते हुए कहा, ‘मान लो तुम्हें कोई मकान या पुल बनवाना है तो उसके लिए तुम्हें किसी वास्तुकार से नक्शा बनवाना पड़ता है पर तुम उस नक्शे को देखकर मकान या पुल नहीं बनवा सकते क्योंकि वह नक्शा तु्म्हारी समझ के परे है। तुम फिर किसी अभियंता या राज मिस्त्री की शरण में जाते हो। वह नक्शे के आधार पर मकान या पुल बना देता है क्योंकि वह उस शिल्प को समझता है। नक्शा मात्र एक पद्धति है। ईश्वर के पास पहुंचने का रास्ता तो सभी लोग दिखाते हैं लेकिन शिल्प शायद ही कोई जानता है।’

 

 एक राजा के घर में तीन स्तनों वाली कन्या पैदा हुई तो राजा ने उसे मुसीबत समझकर अपने नौकरों से कहा कि इसे जंगल में फेंक आओ|


मंत्री ने राजा से कहा-महाराजा यह तो ठीक है कि तीन स्तनों वाली कन्या भारी होती है| लेकिन इसे फेंकने से पहले पंडितों से तो पूछ लेना चाहिये| क्योंकि प्राचीन काल में एक राक्षस द्वारा पकड़ा हुआ एक पंडित पूछने से ही बच गया|


वह कैसे? राजा ने पूछा|


तो मैं आपको बताता हूं|


एक जंगल में पंडित अकेला जा रहा था| एक राक्षस उसे शिकार समझकर उसके कंधे पर चढ़ गया और कहने लगा कि चलो आगे चलो पंडित ने घबराकर उसके कोमल चरणों को देखकर कहा-अरे वाह! आपके पांव कितने कोमल और सुन्दर है|


हां, मैंने यह प्रण किया है कि मैं गीले पांव धरती पर नहीं रखता|


पंडित अपने बचाव की बात सोचते हुए एक तालाब पर पहुंच गया और बोला तो महाराज मेरे भोजन करने से पूर्व नहा लो|


राक्षस झट से तालाब में नहाने लगा| पंडित को तो पता था कि वह अपने गीले पांव धरती पर नहीं रखेगा| इसलिये यहां से भागने का सबसे बढ़िया मौका देख पंडित वहां से भाग निकला| पंडित पहले ही उस राक्षस से भेद ले चुका था कि गीले पांव धरती पर नहीं रखेगा|


राजा ने ब्राह्मणों से एकमत होकर कहा-महाराज! आप इस कन्या के दर्शन न करें| हां यदि कोई उससे शादी कर ले तो शादी करके उसे अपने देश से निकाल दें|


ब्राह्मण की बात सुन राजा ने सारे शहर में घोषणा करवा दी कि जो कोई इस कन्या से शादी करके देश से बाहर ले जाए| उसे लाखों मोहरें दी जाएंगी|


बहुत सालों तक भी कोई उससे शादी करने के लिए नहीं आया, इस बीच लड़की जवान हो गई| उसी शहर में एक अंधा रहता था| लाठी पकड़कर चलाने के लिए एक कुबड़ा उसका साथी था|


इन दोनों ने मिलकर सोचा कि क्यों न हम ही उस राजा की लड़की से शादी कर लें| इससे इतना धन प्राप्त हो जायेगा कि हमारा सारा जीवन सुखी हो जायेगा| यदि उससे शादी करके हमारी मृत्यु हो गई तो हमें इस दु:खी जीवन से छुटकारा मिल जायेगा|


यही सोचकर वह अन्धा अपने साथी को लेकर राजा के पास पहुंचा और उसने लड़की से शादी करने को कहा|


इस प्रकार उस अंधे से उस कन्या की शादी करके उसे बहुत धन दे राजा ने अपने देश से निकाल दिया|


इस तरह वह अंधा, उसका साथी कुबड़ा उस कन्या को ले किसी दूसरे देश में चले गये|


वहां जाकर उन्होंने अपने लिए बढ़िया मकान खरीदा| अंधा और उसकी स्त्री दोनों घर में पड़े रहते| कुबड़ा बेचारा सारा काम करता|


कुछ ही समय से पश्चात् उस राजकन्या का कुबड़ा से मेल हो गया|


एक दिन कुबड़े से राजकन्या ने कहा कि क्यों न इस अन्धे को जहर देकर मार डालें जिससे हम दोनों मजे करेंगे| यह सुन कुबड़ा कहीं से मरा हुआ काला सांप उठा लाया और राजकन्या से बोला इसे भूनकर अंधे को यह कहकर दे देना कि वह मछली का मांस है| क्योंकि वह अंधी मछली मांस खुश होकर खाता है|


राजकन्या ने सांप का मांस एक बड़ी पतीली में रखा स्वयं घर के काम करने लगी| उसने अंधे से कहा कि आप थोड़ी देर के लिए उस पीले के पास बैठकर उसे हिलाते रहे ताकि वह मांस जल न जाये|


अंधा उस पतीले के पास जाकर चम्मच से उसे हिलाने लगा| जिसकी तेज भाप उस अंधे की आंखों में लगने लगी| अंधे ने महसूस किया कि इस भाप से उसकी आंखें ठीक हो रही है|


वह धीरे-धीरे ठीक हो गया|

 किसी गांव के पास एक सांप रहता था| वह बड़ा ही तेज था| जो भी उधर से निकलता, वह उस पर दौड़ पड़ता और उसकी जान ले लेता| सारे गांव के लोग उससे तंग आ गए| वे उसे रात-दिन कोसते| आखिरकार उन्होंने उस मार्ग से निकलना ही छोड़ दिया| गांव का वह हिस्सा उजाड़-सा हो गया|


एक दिन एक साधु उस गांव में आए| लोगों ने उस सांप के उत्पात की बात उन्हें सुनाई|


गांव वालों की बात सुनकर साधु सांप के पास गए और उसे समझाते हुए कहा - "यह जन्म बार-बार नहीं मिलता| ऐसा जीना किस काम का कि लोग गालियां दें|"


सांप ने पूछा - "मैं क्या करूं?"


साधु बोले - "तुम हमला करना छोड़ दो| सबके साथ प्यार का व्यवहार करो|"


सांप ने उनकी बात मान ली|


उस दिन से वह खुले मैदान में चुपचाप पड़ा रहता| लोगों को यह मालूम हुआ तो उनका डर धीरे-धीरे दूर हो गया और वे इधर से बेधड़क आने-जाने लगे| अब गांव के बच्चे वहां इकट्ठे हो जाते और उसके ऊपर ईंट-पत्थर मारते, उसके बदन में लकड़ी चुभोते| बेचारा सांप सब कुछ सहन कर लेता| संयोग से एक दिन वही साधु वहां आए| उसकी बुरी हालत देखकर वह चकित रह गए| उन्होंने पूछा - "अरे, तुम्हें यह क्या हो गया?"


सांप ने सारा हाल कह सुनाया| सुनकर साधु बोले - "भाई मैंने तुझे काटने से रोका था, लेकिन फुककारने से तो मना नहीं किया| जो अपने तेज को प्रकट नहीं करता, उसे कोई जीने नहीं देता है|"


सांप ने अब असली बात समझी| उस दिन से उसने फुककारने शुरू कर दिया| उसकी फुककार  सुनते ही बच्चे दूर भाग जाते| अब उन्होंने उसे सताना छोड़ दिया| सांप काटना पहले ही छोड़ चुका था इसलिए लोगों ने उससे डरना भी बंद कर दिया था| अब वे चैन से रहने लगे|


 एक नगर में एक पंडित रहता था| उसे अपनी पत्नी से बहुत प्यार हो गया था| एक बार इन दोनों पति-पत्नी के परिवार वालों के साथ लड़ाई हो गई| जिसके कारण इन्हें अपना घर छोड़कर दूसरे शहर में जाना पड़ा|


रास्ते में जाते-जाते उसकी पत्नी ने कहा-पतिदेव, मुझे पानी की प्यास सता रही है कहीं से पानी लाओ|


पानी की बात सुन वह पंडित पानी लेने के लिए निकल गया|


जैसे ही वह पानी लेकर आया तो देखता है कि उसकी पत्नी मरी पड़ी है| उसे देखते ही वह जोर-जोर से रोने लगा|


उसे रोते देख ऊपर से आवाज आई-हे पंडित! तुम इसे अपनी आधी आयु दे दो यह बच सकती है|


इस आवाज को सुनते ही पंडित ने सच्चे दिल से तीन बार कहा-


हे भगवान! मैं अपनी खुशी से इसे अपनी आधी आयु देता हूं|


सच्चे दिल से की हुई प्रार्थना स्वीकार हो गई| उसी समय उसकी पत्नी जीवित हो गई| फिर दोनों ने मिलकर पानी पीया, कुछ जंगली फल खाए, इसके पश्चात् चल पड़े|


थोड़ी दूर जाने के पश्चात् वे एक बहुत बड़े भाग में जाकर विश्राम करने लगे| फिर पत्नी ने कहा-मुझे बड़ी जोर की भूख लग रही है| अपनी पत्नी की बात सुन पंडित उसी समय भोजन लेने के लिए चल पड़ा|


पंडित के जाने के पश्चात वहां पर एक लंगड़ा गायक आया| उसकी आवाज में इतना जादू था कि पंडिताइन उसे सुनते ही दिल दे बैठी और उसके पास जाकर कहने लगी|


गायक जी! आपकी आवाज में तो कमाल का जादू है| आपने मेरा दिल जीत लिया है| अब तो तुम मेरे तन को भी बाहों में लेकर मुझे जीवन का सच्चा आनन्द दो, यही मेरी इच्छा है, इसे तुम्हें अवश्य पूरा करना होगा|


लंगड़ा गायक उस औरत की बातों में फंस गया| प्रेम जाल से आज तक कोई बच पाया है| बस दोनों ने खूब आनन्द लिया इसके पश्चात् स्त्री ने कहा कि गायक अब आप भी हमारे साथ ही चलोगे|


इसी बीच पंडित भी भोजन लेकर आ गया था|


जैसे ही पति-पत्नी भोजन करने लगे तो पत्नी ने कहा देखो जी यह लंगड़ा गायक है| इसका इस दुनिया में कोई नहीं| क्यों न हम इसे अपने साथ रख लें| क्योंकि आज आप मुझे छोड़कर चले जाते हो तो मेरा दिल अकेलेपन से बहुत घबराता है|


पंडित पहले से ही उसका गुलाम था| उसने झट हाँ कर दी|


इस प्रकार वे तीनों वहां से चल पड़े| अब पंडित की पत्नी दिन-प्रतिदिन उस लंगड़े गायक की ओर खिंचती जा रही थी| यहां तक कि उन्हें यह पंडित अपने रास्ते में रोड़ा महसूस होने लगा था|


एक दिन दोनों ने एक षड्यंत्र रचा| प्रेम और वासना ही आग में अंधे ही उन्होंने कुएं के पास सोये पंडित को कुए में धक्का देकर अपना रास्ता साफ कर लिया|


अब वह चालाक लंगड़े गायक को अपनी पीठ पर उठाए जैसे ही किसी दूसरे देश में पहुंची तो वहां के पहरेदार ने उसे संदेह को दृष्टि से देखते हुए पकड़कर अपने राजा के सामने पेश किया|


राजा ने उस औरत से पूछा, यह लंगड़ा कौन है?


यह मेरा पति है महाराज? क्योंकि यह बेचारा लंगड़ा है चल-फिर नहीं सकता| इसके कारण लोग इसके घृणा करते थे| मैंने इसी दुःख के मारे अपना देश छोड़ दिया और आपकी शरण लेने आई हूं|


राजा उस औरत की बात सुनकर समझ गया कि यह बेचारी बहुत दु:खी है| तभी झट से बोले-आओ मैं तुम्हें रहने के लिए एक गांव इनाम में देता हूं| इसकी कमाई से तुम दोनों मौज मारो| फिर दोनों वहां रहने लगे|


उधर किसी साधू ने पंडित को कुएं से निकाल लिया और वह भी उसी देश के उसी गांव में पहुंच गया| एक दिन स्त्री ने अपने पति को देख लिया| डर के मारे उसका बुरा हाल था| लेकिन उसने एक नई चाल चली| वह राजा के पास जाकर बोली -


महाराज! वह पापी मेरे पीछे लगा है शायद वह मेरी हत्या करना चाहता है|


राजा ने उसी समय उसे बुलाया और औरत के कहने पर फांसी की सजा दे दी| लेकिन फांसी देने से पूर्व उसने इस पंडित की इच्छा क्या है पूछो|


तभी उस पंडित ने उस पापिन पत्नी की ओर गौर से देखते हुए कहा|


देखो महाराज! यह औरत किसी समय मेरी पत्नी थी| आज वह मेरी शत्रु बन गई|


राजा ने आश्चर्य से पंडित की ओर देखा| जैसे उसके बात पर विश्वास ने आ रहा हो| इसलिए उसने कहा|


हे पंडित! तुम कोई सबूत दे सकते हो|


पंडित बोला-महाराज! इसका सबसे बड़ा सबूत यही है कि चतुर नारी भगवान का नाम लेकर यह कह दे कि मैंने अपने पति का लिया हुआ जीवन वापस किया|


सभी लोग इस विचित्र बात को सुन हैरानी से उन दोनो की ओर देख रहे थे| राजा ने उस औरत को ऐसा करने का आदेश दिया|


राजा के आदेश का पालन न करना मौत थी| बस वह औरत डरकर कहने लगी| मैंने अपने पति का लिया आधा जीवन वापस कर दिया| इतना कहते ही वह पापिन मर गई|


राजा ने आश्चर्य से पंडित की ओर देखकर कहा|


यह क्या बात है?


फिर पंडित ने राजा को उस बेवफा औरत की सारी कहानी सुना डाली|


बन्दर ने मगरमच्छ से कहा| इसीलिए मैं कहता हूं कि कभी स्त्री जाति पर विश्वास न करो|


 भगवान् बुद्ध की धर्म-सभा में एक व्यक्ति रोज जाया करता था और उनके प्रवचन सुना करता था| उसका यह क्रम एक महीने तक चला, लेकिन उसके जीवन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा| बुद्ध बार-बार समझाते थे - "लोभ, द्वेष और मोह, पाप के मूल हैं| इन्हें त्यागो|" पर वह बेचारा इन बुराइयों से बचना तो दूर इनमें और फंसता ही जा रहा था| बुद्ध कहते थे - "क्रोध करने वाले पर जो क्रोध करता है, उससे उसका ही अहित होता है, पर जो क्रोध का जवाब क्रोध से नहीं देता, वह एक भारी युद्ध जीत लेता है|" पर उस व्यक्ति का उग्र स्वभाव तो उग्रतर होता जा रहा था|


हैरान होकर वह बुद्ध के पास गया और उन्हें प्रणाम-निवेदन करके बोला - "भंते! एक महीने से मैं आपके सुंदर प्रवचन बराबर सुन रहा हूं, लेकिन उनका जरा भी असर मुझ पर नहीं पड़ा|"


बुद्ध ने मुस्कराकर उसकी ओर देखा और कहा - "अच्छा, कहां के रहने वाले हो?"


"श्रावस्ती का|"


"यहां राजगृह से श्रावस्ती कितनी दूर है?"


उसने बता दिया|


"कैसे जाते हो वहां?"


"सवारी से|"


"कितना समय लगता है?"


"इतना|" उसने हिसाब लगाकर बता दिया|


"ठीक| अब यह बताओ यहां बैठे-बैठे राजगृह पहुंच गए|"


"यह कैसे हो सकता है? वहां पहुचंने के लिए तो चलना होगा|"


बुद्ध ने बड़े प्यार से कहा - "तुमने सही कहा| चलने पर ही मंजिल पर पहुंचा जा सकता है| इसी तरह अच्छी बातों का असर तभी पड़ता है, जब उन पर अमल किया जाए|


 एक विदेशी को अपराधी समझ जब राजा ने फांसी का हुक्म सुनाया तो उसने अपशब्द कहते हुए राजा के विनाश की कामना की। राजा ने अपने मंत्री से, जो कई भाषाओं का जानकार था, पूछा- यह क्या कह रहा है? मंत्री ने विदेशी की गालियां सुन ली थीं, किंतु उसने कहा - महाराज! यह आपको दुआएं देते हुए कह रहा है- आप हजार साल तक जिएं। राजा यह सुनकर बहुत खुश हुआ, लेकिन एक अन्य मंत्री ने जो पहले मंत्री से ईष्र्या रखता था, आपत्ति उठाई- महाराज! यह आपको दुआ नहीं गालियां दे रहा है।


वह दूसरा मंत्री भी बहुभाषी था। उसने पहले मंत्री की निंदा करते हुए कहा- ये मंत्री जिन्हें आप अपना विश्वासपात्र समझते हैं, असत्य बोल रहे हैं। राजा ने पहले मंत्री से बात कर सत्यता जाननी चाही, तो वह बोला- हां महाराज! यह सत्य है कि इस अपराधी ने आपको गालियां दीं और मैंने आपसे असत्य कहा। पहले मंत्री की बात सुनकर राजा ने कहा- तुमने इसे बचाने की भावना से अपने राजा से झूठ बोला।


मानव धर्म को सर्वोपरि मानकर तुमने राजधर्म को पीछे रखा। मैं तुमसे बेहद खुश हुआ। फिर राजा ने विदेशी और दूसरे मंत्री की ओर देखकर कहा- मैं तुम्हें मुक्त करता हूं। निर्दोष होने के कारण ही तुम्हें इतना क्रोध आया कि तुमने राजा को गाली दी और मंत्री महोदय तुमने सच इसलिए कहा- क्योंकि तुम पहले मंत्री से ईष्र्या रखते हो। ऐसे लोग मेरे राज्य में रहने योग्य नहीं। तुम इस राज्य से चले जाओ।


वस्तुत: दूसरों की निंदा करने की प्रवृत्ति से अन्य की हानि होने के साथ-साथ स्वयं को भी नुकसान ही होता है।

 


 एक बार युधिष्ठिर ने विधि-विधान से महायज्ञ का आयोजन किया। उसमें दूर-दूर से राजा-महाराजा और विद्वान आए। यज्ञ पूरा होने के बाद दूध और घी से आहुति दी गई, लेकिन फिर भी आकाश-घंटियों की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ी। जब तक घंटियां नहीं बजतीं, यज्ञ अपूर्ण माना जाता। महाराज युधिष्ठिर को चिंता हुई। वह सोचने लगे कि आखिर यज्ञ में कौन सी कमी रह गई कि घंटियां सुनाई नहीं पड़ीं। उन्होंने भगवान कृष्ण से अपनी समस्या बताई।


कृष्ण ने कहा, ‘किसी गरीब, सच्चे और निश्छल हृदय वाले व्यक्ति को बुला कर उसे भोजन कराएं। जब उसकी आत्मा तृप्त होगी तो आकाश घंटियां अपने आप बज उठेंगी।’ कृष्ण ने ऐसे एक व्यक्ति का पता दिया। धर्मराज स्वयं उसकी खोज में निकले। आखिरकार उन्हें उस निर्धन की कुटिया मिल गई। युधिष्ठिर ने अपना परिचय देते हुए उससे प्रार्थना की, ‘बाबा, आप हमारे यहां भोजन करने की कृपा करें।’


पहले तो उसने मना कर दिया लेकिन काफी प्रार्थना करने पर वह तैयार हो गया। युधिष्ठिर उसे लेकर यज्ञ स्थल पर आए। द्रौपदी ने अपने हाथ से स्वादिष्ट खाना बनाकर उसे खिलाया। भोजन करने के बाद उस व्यक्ति ने ज्यों ही संतुष्ट होकर डकार ली, आकाश की घंटियां गूंज उठीं। यज्ञ की सफलता से सब प्रसन्न हुए। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा, ‘भगवन, इस निर्धन व्यक्ति में ऐसी कौन सी विशेषता है कि उसके खाने के बाद ही यज्ञ सफल हो सका।’


कृष्ण ने कहा, ‘धर्मराज, इस व्यक्ति में कोई विशेषता नहीं है। यह गरीब है। दरअसल आपने पहले जिन्हें भोजन कराया वे सब तृप्त थे। जो व्यक्ति पहले से तृप्त हैं, उन्हें भोजन कराना कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। जो लोग अतृप्त हैं, जिन्हें सचमुच भोजन की जरूरत है, उन्हें खिलाने से उनकी आत्मा को जो संतोष मिलता है, वही सबसे बड़ा यज्ञ है। वही सच्ची आहुति है। आप ने जब एक अतृप्त व्यक्ति को भोजन कराया तभी देवता प्रसन्न हुए और सफलता की सूचक घंटियां बज गईं।’

 

 किसी कुएं में गंगादत्त नाम का मेंढ़क रहता था| एक बार वह अपने दामादों से बड़ा परेशान था| यहां तक कि एक दिन इसके कारण उसे पने घर से बेघर होना पड़ा पर घर छोड़ने के पश्चात् उसने सोचा कि अब मैं इससे कैसे बदला लूं|


इतने में उसने बिल में घुसते हुए सांप को देखा| उसे देखकर उसने सोचा कि क्यों न इस सांप कि कुएं में ले जाकर उन दामादों को समाप्त कर डालूं| इसी के लिए कहा गया है|


अपने काम के सिद्धि के लिए बलवान शत्रु को उससे भी बलवान शत्रु से भिड़वा दें| जैसे कांटे से कांटा निकाला जाता है| यही सोचकर उसने बिल के पास जाकर कहा, प्रिय दर्शन आइए-आइए|


सांप ने मेंढ़क को देखकर कहा, यह तो मेरी जाति का है नहीं ओर किसी से मिलता नहीं क्योंकि कहा गया है जिसके कुल का कोई पता न हो उससे मित्रता न करो|


यही सोच सांप ने कहा|


भाई आप कौन हो|


भाई! मैं गंगादत्त नाम का मेंढ़क हूं और आपसे मित्रता करने के लिए यहां आया हूं|


भाई यह बात मानने योग्य नहीं है| भला आग और पानी का भी मेल हो सकता है|


आप ठीक कहते हैं नाग देवता| इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारी और आपकी पुरानी दुश्मनी चली आ रही है| मगर मैं भी मजबूर होकर आपके पास मदद के लिए आया हूं|


क्या मजबूरी है आपकी?


भाई मुझे मेरे ही दामादों ने मिलकर इतना तंग किया है कि मुझे सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा|


तुम रहते कहां हो?


मैं पत्थर के कुएं में रहता हूं|


लेकिन मैं तो वहां तक नहीं जा सकता क्योंकि हमारे पांव नहीं होते| यदि किसी तरह मैं वहां पहुंच भी गया तो वहां पर ऐसा कोई स्थान नहीं जहां पर बैठकर मैं आपके दामादों को खा सकूं|


आप वहां जाने की चिन्ता न करें, मैं किसी न किसी भांति आपको वहां तक पहुंचा दूंगा| वहां पर एक झोंपड़ी है| जहां पर बैठकर आप उन्हें खा सकेंगे|


सांप ने सोचा कि मैं बूढ़ा तो हो ही चुका हूं मुझे अब शिकार भी कम मिलता है, क्यों न चलकर उन मेंढ़कों को हो खाकर अपना पेट भर लूं| यही सोचकर उसने कहा कि चलो भाई मैं तुम्हारी मदद को चलता हूं|


चलो नाग देवता, मैं तुम्हें बड़े आराम से लेकर चलता हूं| पर उस बात का ध्यान रखना कि मेरे साथियों की रक्षा करना| जिन लोगों को मैं बोलूं उन्हीं को खाना|


हां भाई, अब हम दोनों मित्र बन गए हैं| मैं तो केवल आपके इशारे पर ही सारा काम करूंगा|


फिर दोनों मित्र रहट की बाल्टी में बैठकर कुएं तक पहुंच गए| कुएं में एक मोखला था वहां पर मेंढ़क ने सांप को बैठाकर अपने दुश्मनों की ओर इशारा किया था| सांप ने उन मेंढ़कों ने को खा लिया जब और कोई शत्रु बाकी न रहा तो सांप ने मेंढ़क से कहा|


अरे भाई! तुम्हारे शत्रु तो सबके सब मैंने खा लिए|


ठीक है नाग महाराज! अब आप आराम से यहां से जा सकते हैं|


सांप ने क्रोध से कहा, अब मैं कहां जाऊं? मेरे तो बिल पर भी किसी ने अधिकार जमा लिया होगा| अब तो तुम अपने परिवार के लोगों में ही हमारे खाने का प्रबन्ध करो, नहीं तो मैं सबको खा जाऊंगा|


मेंढ़क बेचारा तो फंस गया और अपनी भूल पर पछताने लगा| वह सोच रहा था कि काश मैं इस सांप को यहां न लाता| ठीक ही कहा है-जो अपने बलवान शत्रु से मित्रता करता है, स्वयं ही जहर खाता है| इससे बचने का तो एक ही तरीका है कि इसे एक-एक मेंढ़क रोज दिया करूंगा|


इस प्रकार वह खूनी सांप रोज एक मेंढ़क खाने लगा| एक दिन सांप ने बाकी मेंढ़कों को खाने के पश्चात् गंगादत्त के मित्र को भी खा लिया, इस बात से गंगादत्त बहुत दुखी हुआ और रोने लगा, तब उसकी पत्नी ने कहा|


अब क्यों रो रहे हो मुर्ख| तुमने तो अपनी जाति को ही समाप्त करवा डाला, दुख के समय जाति के लोग ही काम आते हैं| इसलिए यहां से भाग चलो|


लेकिन गंगादत्त वहां से भागा नहीं और उनका मित्र धीरे-धीरे सारे परिवार को भी खा गया| अन्त में वह गंगादत्त से भी कहने लगे|


देखो! तुम ही मुझे यहां लाए हो, अब तुम ही मेरे भोजन का प्रबंध करो|


तभी मेंढ़क राजा को एक चाल सूझी और वह सांप से बोला ठीक है मित्र मैं अभी जाकर आपके भोजन का प्रबंध करके लाता हूं|


हां...हां... जाओ...भाई... जाओ... मेरे लिए भोजन का प्रबंध करो| तुम ही तो अब मेरे सच्चे मित्र हो|


बस वहां से जान बचाकर गंगादत्त भाग निकला| सांप उसकी प्रतीक्षा करता रहा, जब कई दिन तक वह नहीं लौटा तो उसने अपने साथ रहने वाली गोह से कहा कि बहन जाओ तुम ही पास वाले कुएं से गंगादत्त को बुला लाओ|


गोह जैसे ही गंगादत्त के पास गई तो वह बोला -


जाओ, उस प्रियदर्शन से कह दो कि अब गंगादत्त तुम्हारे जाल में नहीं फंसता| तुम पापी हो! दुष्ट हो-किसी पापी पर विश्वास नहीं करना चाहिए|


इसलिए पापी मगर, अब मैं भी गंगादत्त की भांति तुम्हारे घर नहीं आऊंगा| मगर बोला यदि तुम मेरे घर नहीं गए तो मैं यहीं पर भूखा मर जाऊंगा|


अरे मैं क्या मुर्ख लम्बकरण हूं जो मुसीबत को देखकर भी अपने को मरवाऊं|

 किसी नगर में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे| एक बार पापबुद्धि ने विचार किया कि वह तो मुर्ख भी है ओर दरिद्र भी| क्यों न किसी दिन धर्मबुद्धि को साथ लेकर विदेश जाया जाए| इसके प्रभाव से धान कमाकर फिर किसी दिन इसको भी ठगकर सारा धन हड़प कर लिया जाए|


यह विचारक वह अगले ही दिन धर्मबुद्धि के पास जाकर कहने लगा, मित्र! वृद्धावस्था में तुम जब अपने नाती-पोतों के पास बैठकर बातें करोगे? तो, अपनी कौन सी कारस्तानी का बखान करोगे? तो, अपनी कौन सी कारस्तानी का बखान करोगे? न तुम कभी विदेश गए और न वहां की वस्तुएं देखी और देखने योग्य स्थान ही देखें| कहते हैं कि इस पृथ्वी पर रहे जिसने विदेश-भ्रमण नहीं किया, अनेक देशों की जानकर प्राप्त नहीं की, उसका तो जन्म ही व्यर्थ है|'


धर्मबुद्धि को पापबुद्धि का परामर्धा भा गया| उसने भी अपने गुरुजनों और परिजनों से एक दिन आज्ञा ली ओर वह पापबुद्धि के साथ विदेश-भ्रमण के लिए निकल पड़ा| इस प्रकार विदेश जाकर दोनों ने खूब धन कमाया| फिर वे अपने घर की ओर वापस चल पड़े| वापस लौटते हुए उन्हें वह दूरी खटक रही थी|


जब वे अपने नगर के निकट आ गए तो पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, मित्र! मैं समझता हूं कि इस सम्पूर्ण धन को लेकर घर जाना ठीक नहीं रहेगा| इतना धन देखकर सभी हमसे मांगने लग जाएंगे| अच्छा यही होगा कि अधिक धन यहीं कहीं जंगल में छिपाकर रख दिया जाए और थोड़ा सा लेकर घर जाया जाए| जब कभी आवश्यकता हुई तो उसके अनुसार धन यहां से निकालकर ले जाएंगे|


धर्मबुद्धि बोला, 'यदि तुम यह ठीक समझते हो तो यही करो|'


एक स्थान पर धन गाड़ दिया गया| फिर कुछ धन लेकर वे दोनों अपने-अपने घर जा पहुंचे अपने घर जाकर दोनों मित्रों के दिन सुख से कटने लगे| पापबुद्धि के मन में पाप था| एक दिन अवसर पाकर वह अकेला वन में आया और सारा धन निकालकर ले गया| गड्डे को उसने उसी प्रकार ढक दिया|


एक दिन पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि के पास जाकर कहा, 'मित्र! मेरा धन तो समाप्त हो गया है अत: यदि तुम कहो तो उस स्थान पर चलकर कुछ और धन निकालकर ले आएं?'


धर्मबुद्धि चलने को तैयार हो गया|


वहां जाकर जब स्थान को खोदा तो जिस पात्र में धन रखा था वह खाली पाया| पापबुद्धि ने वहीं पर अपना सर पीटना आरम्भ कर दिया| उसने धर्मबुद्धि पर आरोप लगाया कि उसने हि वह धन चुरा लिया है, नहीं तो उस स्थान पर उस धन के बारे में उसके अतिरिक्त और कौन जाता था| उसने कहा कि वह जो धन लेकर गया है| उसका आधा भाग उसको दे दे| अन्यथा वह राजा के पास जाकर निवेदन करेगा|


धर्मबुद्धि को यह सुनकर क्रोध आ गया| उसने कहा 'मेरा नाम धर्मबुद्धि है, मेरे सम्मुख इस प्रकार की बात कभी नही कहना| मैं इस प्रकार की चोरी करना पाप समझता हूं|'


किन्तु विवाद बढ़ गया| दोनों व्यक्ति न्यायलय में चले गए| वहां भी दोनों परस्पर आरोप-प्रत्योरोप करके एक-दूसरे को दोषी सिद्ध करने लगे| न्यायधीशों ने जब सत्य जानने के लिये दिव्य परीक्षा का निर्णय दिया तो पापबुद्धि बोल उठा, 'यह उचित न्याय नहीं है| सर्वप्रथम लेख बद्ध प्रमाणों को देखना चाहिए, उसके अभाव में साक्षी ली जाती है और जब साक्षी भी न मिले तो फिर दिव्य परीक्षा ही की जाती है| मेरे इस विवाद में अभी वृक्ष देवता साक्षी है| वे इसका निर्णय कर देंगे|'


न्यायधीशों ने कहा, 'ठीक है, ऐसा ही कर लेते हैं|


इस प्रकार अगले दिन प्रात:काल उस वृक्ष को समीप जाने का निश्चय कर लिया गया| उन दोनों को भी साथ चलने के लिए कहा गया|


न्यायलय से लौटकर पापबुद्धि घर आया और उसने अपने पिता से कहा, 'पिताजी! मैंने धर्मबुद्धि का सारा धन चुरा लिया है| अब मामला न्यायलय में चला गया है| यदि आप मेरी सहायता करें तो मैं बच सकता हूं, अन्यथा हमारे प्राण जाने का भी भय है|'


'जैसा पुत्र वैसा ही पिता|' उसने कहा, 'हां हां बताओ, किस प्रकार वह धन हथियाया जा सकता है?


पापबुद्धि ने अपनी योजना अपने पिता को बता दी| उसके अनुसार उसका पिता वृक्ष के एक कोटर में जाकर बैठ गया| दूसरे दिन प्रात:काल यथासमय पापबुद्धि न्यायधीशों तथा धर्मबुद्धि को लेकर उस स्थान पर गया जहां धन गाड़ कर रखा गया था| वहां पहुंचकर पापबुद्धि ने घोषणा की, समस्त देवगण मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं| 'हे भगवती वनदेवी| हम दोनों में से जो चोर हो आप उनका नाम बता दीजिए|'


कोटरे में छिपे पापबुद्धि के पिता ने यह सुनकर कहा, 'सज्जनों! आप ध्यानपूर्वक सुनिए| उस धन को धर्मबुद्धि ने ही चुराया|'


यह सुनकर सबको आश्चर्य हुआ| तब धर्मबुद्धि के इस अपराध के लिए इसके दण्ड का विधान देखा जाने लगा| अवसर पाकर धर्मबुद्धि ने इधर उधर से घास-फूस एकत्रित की, कुछ लकड़ियां भी चुनी और वह सब कोटरे में डालकर आग लगा दी|


जब वह जलने लगा तो कुछ समय तक तो पापबुद्धि का पिता यह सब सहन करता रहा| किन्तु जब असहाय हो गया तो वह अपना अधजला शरीर और फूटी आंख लेकर उस कोटरे से बाहर निकल आया| उसे देखकर न्यायधीशों ने कहा, 'आप कौन हैं ओर आपकी यह दशा किस प्रकार हुई?'


पापबुद्धि का पिता अब किसी प्रकार भी अपनी बात को छिपाकर रखने में असमर्थ था| उसने सारा वृतान्त आद्योपान्त यथावत् सुना दिया| न्यायधीशों ने जो दण्ड-व्यवस्था धर्मबुद्धि के लिए निश्चय की थी| वह पापबुद्धि पर लागू कर उसको उसी वृक्ष पर लटका दिया|


धर्मबुद्धि की प्रशंसा करते हुए न्यायधीशों ने कहा, 'चतुर व्यक्ति को उपाय के साथ ही उपाय भी सोच लेना चाहिए| लाभ और हानि इन दोनों पक्षों पर विचार न करने पर एक मुर्ख बगुले की समझ ही उसके सभी अनुयायियों को नेवले ने मार डाला|


 एक महात्मा हिमालय में रहते थे| वे हमेशा प्रभु का ध्यान करते रहते थे और दर्शननार्थियों को उपदेश दिया करते थे| एक दिन पढ़े-लिखे लोगों की एक टोली उनके पास पहुंची उन्होंने कहा - "महाराज, हम दुनिया को नहीं छोड़ना चाहते| उसी में रहकर आत्मिक उन्नति करना चाहते हैं| कोई उपाय बताइए|"


स्वामीजी उनसे बोले - "नहीं दुनिया में रहकर आत्मिक उन्नति नहीं हो सकती| दुनिया की मोहमाया में लोग फंसकर रह जाते हैं और उनकी आत्मा पर पर्दा पड़ जाता है| तब आत्मा की साधना कैसे हो सकती है|" फिर इधर-उधर की बातें होती रहीं| पता चला कि स्वामीजी ने छोटी उम्र में ही घर-बार छोड़कर संन्यास ले लिया था| देश के बहुत-से तीर्थों में घूमे और अब अनेक वर्षों से वहां थे|


इस बातचीत के बाद स्वामीजी ने पूछा - "आप लोग यहां कब तक हैं?"


उस टोली के एक सदस्य के यह कहने पर कि तीन-चार दिन रहेंगे स्वामीजी बोले - "गोमुख जाओगे? जाओ तो रास्ते में मेरा एक शिष्य रहता है| उससे अवश्य मिल लेना| वह बड़ा ही विद्वान है, बड़ा मेधावी है| अभी उसकी उम्र कुछ भी नहीं है, पर उसने वेद पुराण, उपनिषद, महाभारत सब कुछ पढ़ डाला है| मुझे बड़ा सहारा था उसका, लेकिन पता नहीं एक दिन उसे क्या सूझा कि यहां से चला गया और अब बिल्कुल सुनसान-बियाबान जगह में अकेला रहता है| जब तक मेरे शरीर में दम था, उसके लिए खाने-पीने की चीजें पहुंचा देता था| भगवान जाने, उसका काम कैसे चलता होगा!" कहते-कहते स्वामीजी इतने विह्वल हो गए कि उनकी आंखों से आंसू बहने लगे| गला रुंध गया|


टोली में से एक ने यह देखकर कहा - "महाराज, अभी तो आप हमें उपदेश दे रहे थे कि मोह को छोड़े बिना आदमी की उन्नति नहीं हो सकती, पर आप स्वयं मोह ग्रस्त हो रहे हैं!"


स्वामीजी ने सिर उठाया और बोले - "अरे, मेरे ये आंसू मोह के नहीं हैं प्रेम के हैं| देखो मोह और प्रेम में बड़ा अंतर है| मोह फंसाता है, प्रेम उबारता है, पर तुम लोग इस अंतर को नहीं समझोगे|"


सचमुच उस अंतर को समझना आसान नहीं था, पर उससे भी मुश्किल उसे जीवन में उतारना था|